अजय बोकिल
क्या मुर्दे की भी कोई जाति होती है? क्या श्मशान घाटों का भी जातीय आरक्षण होना जायज है? क्या किसी मृतक का शव चिता पर से सिर्फ इसलिए उठवा देना क्योंकि वह ‘नीच जाति’ का है, मानवता की दृष्टि से महापाप नहीं है? कोरोना, राफेल, राम मंदिर और हिंदू एकता के हल्ले के बीच मन को विचलित कर देने वाले सवाल इसलिए कि आखिर हम इंसानियत के किस निचले स्तर तक जाना चाहते हैं? यह शर्मनाक खबर भी उस यूपी से आई है, जो पहले ही अपराधों में डूबा है।
राज्य में आगरा के पास काकरपुर गांव में एक दलित महिला का अंतिम संस्कार दबंगों ने इसलिए नहीं करने दिया कि ये श्मशान उनका है। जो जानकारी सामने आई, उसके मुताबिक चिता पर मुखाग्नि का इंतजार करते शव को बेरहमी से उठवा दिया गया। मजबूरन महिला के परिजनों ने चार किमी दूर जाकर एक दूसरे श्मशान में उसकी अंत्येष्टि की। इस घटना के बाद पूरा परिवार इतनी दहशत में है कि उसने दंबगों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करने की भी हिम्मत नहीं दिखाई।
मामला मीडिया में उछलने के बाद पुलिस ने कहा कि इसकी जांच की जा रही है। दोषी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। इस अमानवीय घटना के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने ट्वीट किया कि उस दलित महिला का शव, जातिवादी मानसिकता के उच्च वर्ग के लोगों ने इसलिए चिता से हटवा दिया, क्योंकि वह श्मशान सवर्णों का था। यूपी सरकार इस जातिवादी घृणित मामले की उच्च स्तरीय जांच कराए और दोषियों को सख्त सजा दिलवाए। योगी सरकार ने इस मामले में क्या कार्रवाई की, साफ नहीं है, लेकिन घटना ने जातिवादी मानसिकता का निकृष्टतम रूप सामने ला दिया है।
अफसोस कि रोज कोरोना के भयावह आंकड़े और राफेल की संहारक शक्ति बताने वाले मीडिया में भी इस खबर को अपेक्षित जगह नहीं मिली। बताया जाता है कि बीती 19 जुलाई को नट समुदाय की 26 वर्षीय महिला की मौत हो गई थी। संभवत: मौत सामान्य ही थी। मृतक का पति और परिजन महिला के शव को अंतिम संस्कार के लिए ग्राम सभा के श्मशान घाट ले गए। जैसे ही महिला को मुखाग्नि देने उसका बेटा आगे आया, आस-पास के सवर्णों ने उसे अंतिम संस्कार करने से यह कहकर रोक दिया कि यह श्मशान घाट ठाकुरों का है। हम किसी दूसरी जाति के लोगों को यहां अंतिम संस्कार नहीं करने देंगे।
इस पर काफी विवाद हुआ। मामले में ग्राम प्रधान, स्थानीय नेताओं, प्रशासन, पुलिस ने भी दखल दिया। लेकिन नतीजा सिफर रहा। अंतत: मृतक का पति राहुल और परिजन पत्नी के शव को चार किमी दूर नागला लाल दास श्मशान भूमि पर ले गए और वहीं अंतिम संस्कार किया। अंत्येष्टि रुकवाने वाले पक्ष का तर्क था कि यहां हर समुदाय का अपना श्मशान है। उसे वहीं पर अंत्येष्टि करनी चाहिए। उसके मुताबिक नट समुदाय घुमक्कड़ जाति है। हमने उन्हें पास में रहने के लिए जमीन दे दी, यही क्या कम है। इस बारे में मृतका के पति राहुल का कहना था कि नटों के लिए बनी श्मशान भूमि पर एक ब्राह्मण ने कब्जा कर लिया है। ऐसे में हम कहां जाएं? नट दलित समुदाय में आते हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उनके पास कोई जमीन नहीं है।
हिंदुओं के श्मशान घाट में दलितों को अंतिम संस्कार करने से रोकने की यह कोई पहली घटना नहीं है। साल भर पहले हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के गांव में दलित परिवार को रोके जाने के बाद उन्हें एक बुजुर्ग महिला की अंत्येष्टि जंगल में करनी पड़ी थी। वहां दबंगों ने दलितों को अंतिम संस्कार से यह कहकर रोका था कि भगवान का कोप हुआ तो दलित ही इसके लिए जिम्मेदार होंगे। इसी तरह यूपी के बागपत में श्मशान घाट पर एक दलित किशोरी की अंत्येष्टि रोके जाने पर दलितों को हाइवे पर धरना देना पड़ा था।
ऐसा ही तमिलनाडु का एक वीडियो पिछले साल वायरल हुआ था। जिसमें सवर्णों के खेत से रास्ता न देने पर दलितों को अपने परिजन का शव पुल से नदी में गिराना पड़ा। इंसानियत को शर्मसार करने वाला यह मामला अदालत तक गया। मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक स्थान पर जाने से जाति के आधार पर किसी को नहीं रोका जा सकता।
यहां विचारणीय मुद्दा यह है कि श्मशान जैसी जगह, जिसे हिंदू मोक्षधाम कहते हैं, के जातिगत आरक्षण का क्या औचित्य है? क्या परलोक में भी जाति जिंदा रहती है? हकीकत तो यह है कि जातीय श्मशान के अधिकांश पक्षधर ‘श्मशान’ शब्द का ठीक से उच्चारण तक नहीं कर पाते। संस्कृत शब्द श्मशान दो शब्दों ‘श्म’ और ‘शान’ से मिलकर बना है। यहां ‘श्म’ का अर्थ ‘शव’ से और शान का तात्पर्य शैया (चिता) से है।
दुर्भाग्य से यूपी सहित देश के कई राज्यों में श्मशान भी जातियों और समुदायों के हिसाब से बंटे हुए हैं। राजस्थान में तो यह परंपरा सालों से चली आ रही है। हर श्मशान पर बाकायदा सम्बन्धित जाति का बोर्ड भी लगा रहता है। यह इस बात का खुला ऐलान है कि जीते-जी तो हिंदू समाज बंटा हुआ है ही, मरने के बाद भी वह एक नहीं होने वाला है।
कई जगह दलितों को अंत्येष्टि के लिए अलग जमीन दी गई है। लेकिन ज्यादातर स्थानों पर वहां भी दबंगों ने अवैध कब्जे कर लिए हैं। दलित संगठन ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित लैंड राइट्स’ के महासचिव ललित बाबर का कहना है, “हमारे पास घर और रोजगार के लिए तो जमीन पहले ही नहीं थी। अब मरने के लिए भी जमीन नहीं मिल रही है। या तो हमारे पारंपरिक श्मशान हमें लौटाए जाएं या फिर हमें नई जमीन दी जाए।‘’
हालांकि दलितों को अंतिम संस्कार के लिए अलग जमीन देने की बात भी सही इसलिए नहीं है, क्योंकि परोक्ष रूप से यह उसी जाति व्यवस्था का स्वीकार है, जिसके विरोध में दलित लड़ते रहे हैं। इसी संदर्भ में मद्रास हाईकोर्ट ने श्मशान के लिए दलितों को अलग जमीन देने को लेकर तल्ख टिप्पणी की थी कि ऐसा लगता है कि सरकार खुद ही जाति के आधार पर विभाजन को बढ़ावा दे रही है।
जीवन यात्रा के इस अंतिम विश्राम स्थल के जातीय विभाजन को तोड़ने की नीयत से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कुछ समय पहले हर गांव में हिंदुओं का ‘एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान’ अभियान शुरू किया था। लेकिन आगरा की घटना बताती है कि यह सकारात्मक विचार भी व्यापक व्यवहार नहीं बन पाया है। हालांकि कुछ शहरों में हालात बदले हैं और हिंदू समाज की सभी जातियों और धर्मों के लिए एक श्मशान की पैरवी की जाने लगी है। यहां ‘एक श्मशान’ से तात्पर्य संख्या से नहीं बल्कि एकता से है।
यहां सवाल यह है कि अगर अंतिम विदाई के लिए भी दलितों को जगह न दी जाए तो वो क्या करें? क्या नौकरियों और शिक्षा की तरह यहां भी आरक्षण मांगे? मृतक के लिए भी जमीन न मिलना, जिंदा रहने से भी बदतर है। हालांकि यह भी कड़वी सचाई है कि अंत्येष्टि तो दूर, जोतने के लिए भी ज्यादातर दलितों के पास जमीनें नहीं है। कहीं हैं भी तो वहां भी दबंगों का कब्जा है।
इस घटनाक्रम का दूसरा पक्ष यह भी है कि शहरों-गांवों में लगातार बढ़ती आबादी के कारण श्मशान या मरघटों के लिए जमीन घटती जा रही है। कई जगह तो उन पर भी अवैध कब्जे हो गए हैं। ऐसे में जातीय समूहों में अपने श्मशान अलग बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लेकिन मृतक संस्कार के लिए जमीनों का इस तरह ‘आरक्षण’ सुविधा की दृष्टि से भले ठीक हो, जाति विभाजन को और गहरा करने वाला है।
यह उन प्रयासों पर भी पानी फेरने वाला है, जिसमें जीते-जी जातीय समरसता कायम करने की पैरवी की जाती है। जाति बंधन तोड़ने का आग्रह किया जाता है। हिंदू समाज की एकता की बात की जाती है। यह भी विरोधाभासी है कि जहां अन्य क्षेत्रों से आरक्षण खत्म करने की मांग की जा रही है, वहीं ‘श्मशान आरक्षण’ को आंख मूंद कर स्वीकार किया जा रहा है।
हिंदू मान्यता में मोक्ष पाने का अर्थ ही है मुक्ति या छुटकारा पाना। लेकिन अगर मरने के बाद भी जाति का मोह और दुराग्रह नहीं छूट रहा तो यह कैसा मोक्ष और कैसा मोक्षधाम? आगरा की निर्दय घटना ने ‘मोक्ष’ शब्द को ही बेमानी कर दिया है। क्या नहीं?
ये तो हिन्दू ही नहीं हिंदुओं के अन्य जातियों वाले पंथ जैन, सिख, बौद्ध सहित इसे और मुस्लिमों के भी कई किस्से सुनाई देते हैं जो कई हिस्सों में बंटे हुए हैं और उसी तरह लोकव्यवहार करते हैं। यदि किसी को पूर्वज्ञान है कि अमुक स्थान पर विवाद होगा तो वहाँ जाना ही नहीं चाहिए।
बेहतर होता कि सभी धर्म वाले इसमें मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए कुरीतियों का पल्ला छोड़ दें।
अनेक प्रकार से लोग खुद अपने अपने ख़ुदाओं को बनाकर बंदगी करते नज़र आते हैं। ऐसे मसले में किसी राज्य सरकार की उलाहना लोग देने लगें तो क्या यह सही होगा।
पहले ख़ुद आगे आकर अपनी कुरीतियों से बाहर निकलें फिर सरकार को कोसें या फिर सरकार ही प्रत्येक शव का अंतिम संस्कार, ताबूत दफन करे या मरने वाले को सुपुर्द ए ख़ाक करे।
मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जिनसे आपका सहमत होना जरूरी नहीं है।