मध्यप्रदेश में चल रहे किसान आंदोलन में मंगलवार को पुलिस फायरिंग के दौरान छह लोगों के मारे जाने की घटना के बाद हालात और बेकाबू हो गए हैं। अब तक जो हिंसा मुख्य रूप से मंदसौर जिले में ही केंद्रित थी वह मालवा और पश्चिमी मध्यप्रदेश के बाकी कई शहरों में भी फैल गई है। टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया पर यात्री बसों और निजी वाहनों को जलाने, थानों और बैंकों में आग लगाने, सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाने और पुलिस एवं प्रशासिक अधिकारियों पर हमला करने की खबरें और फोटो लगातार अपलोड हो रहे हैं।
मुख्य रूप से अपनी फसल के उचित दाम मिलने और कर्ज माफी जैसी मांगों को लेकर एक से 10 जून तक चलने वाला यह आंदोलन सातवें दिन में प्रवेश कर गया है और ऐसा लग रहा है कि आंदोलन की जो मियाद तय की गई थी अब उसका कोई बंधन, लगातार हिंसक हो रहे आंदोलनकारियों को शायद ही बांध सकेगा।
जहां नेता और अफसर तक सार्वजनिक रूप से पिट रहे हों वहां आग जल्दी ठंडी हो जाए ऐसा अमूमन होता नहीं। कोयला एक बार आग पकड़ ले तो वह तभी बुझता है जब उस पर भरपूर पानी डाल दिया जाए या फिर वह पूरा जलकर राख न हो जाए। आंदोलन के कोयले में जलने लायक कार्बन काफी बचा है और सरकारी दमकलों के पास इतना पानी दिख नहीं रहा कि इस कोयले को बुझा दें।
लेकिन जिस तरह से जन और धन दोनों की हानि हो रही है, उसे देखते हुए आंदोलन में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहभागी सभी पक्षों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि यह आग ठंडी हो। किसी भी आंदोलन में हिंसा की एक सीमा होती है, जब वह आंदोलन सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान से आगे बढ़कर इंसानों को लीलने का सबब बनने लगे तो सभी का फर्ज बनता है कि किसी भी परिवार को सरकारी मुआवजे का मोहताज न बनने दें।
पर यह आग बुझे कैसे? तो सबसे पहली और सर्वोच्च जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन क्या सरकार सचमुच आग को बुझाने की कोशिश कर रही है? जो रवैया सामने आया है उससे ऐसा लगता नहीं। सरकार आंदोलन के बादशाह को राजनीति के इक्के से काटना चाहती है। लेकिन वह यह भूल रही है कि बादशाह तो छोडि़ए, सामने फेंकी गई दुक्की या तिक्की भी यदि तुरुप की हो तो आपका कोई दूसरा इक्का उसे काट नहीं सकता।
ऐसे मामलों में परंपरागत राजनीति का अनुभव कहता है कि आप अपना अहंकार छोड़ें, अपनी अकड़ी हुई गर्दन को थोड़ा लचीला बनाएं और सभी राजनीतिक दलों की तरफ सहयोग का हाथ बढ़ाते हुए लोगों को शांत करने में उनकी मदद लें। लेकिन आप क्या कर रहे हैं? जो आंदोलन घोषित रूप से किसान संगठनों का था, शुरुआती दौर में सरकार की विचारधारा वाला भारतीय किसान संघ भी जिसमें शामिल था, उस आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बता रहे हैं। कांग्रेस पर आंदोलन को भड़काने और उकसाने का आरोप लगा रहे हैं।
और नतीजा क्या हो रहा है? बरसों से राजनीतिक उपवास कर रही कांग्रेस के मुंह में खुद आप ही मनचाहा लड्डू ठूंस दे रहे हैं। आपकी इस बचकानी हरकत ने बरबस ही कांग्रेस को किसानों के साथ खड़ा कर दिया है और ऐसा करके आप खुद आंदोलन करने वाली जमात यानी किसानों के विरुद्ध जा खड़े हुए हैं।
सरकार और सत्तारूढ़ दल के नेता जिन्होंने अब तक एक तरह से मुख्यमंत्री को इस सारी परिस्थिति से लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया था, वे बुधवार को अलग-अलग मोर्चों पर सक्रिय नजर आए। लेकिन जरा इस सक्रियता की शब्दावली देखिए, सत्ता संगठन के ये लोग किसानों की बात कम, मुख्यमंत्री का गुणगान ज्यादा कर रहे हैं। मसलन कहा जा रहा है- मुख्यमंत्री बहुत दुखी हैं…, कल रात उन्होंने खाना तक नहीं खाया…, सीएम ने तो किसान धर्म का पालन किया है…, मुख्यमंत्री किसान पुत्र हैं, उनके साथ न्याय होना चाहिए… वगैरह, वगैरह
ये सारी हरकतें मामले को सुलझाने की नहीं वरन मामले पर राजनीति करने की हैं। जिसका ज्यादा हिस्सा तो सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से होता दिख रहा है। क्योंकि उसके नेता कांग्रेस से कह रहे हैं कि वह लहू और लाश की राजनीति न करे, किसानों को भड़काना बंद करे…, आंदोलन करने वालों के बारे में कहा जा रहा है कि वे गुंडे और असामाजिक तत्व हैं या उनके पीछे डोडा चूरा तस्करों और अफीम माफिया का हाथ है…।
यह बात सही है कि ऐसे आंदोलनों में समाजविरोधी तत्व भी हाथ सेंकते हैं लेकिन अभी ऐसे बयान आंदोलन के अंगारे को बुझाने वाले नहीं बल्कि आग को और भड़काने वाले हैं… इसीलिए पलटवार करते हुए सोशल मीडिया पर आपसे पूछा जा रहा है कि फायरिंग में मरने वाले ‘गुंडों’ को आपने एक करोड़ का मुआवजा क्यों दे दिया?
किसी भी जनआंदोलन का मामला जब बिगड़ जाए तो पहल उसी पक्ष को करना पड़ती है जो सबसे बड़ा होता है या जो सरकार में है। लेकिन यहां तो उलटे सत्ता संगठन खुद आरोप प्रत्यारोप में उलझा हुआ है। चीजें सुलझ सकती हैं, बशर्ते आप खुद उसमें राजनीति का पेट्रोल न डालें।
जानना चाहते हैं, ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं? तो सुनिए…
बुधवार को आपकी कट्टर विरोधी विचारधारा वाले,प्रदेश के एक बहुत बड़े नेता से मेरी बात हुई। उन्होंने छूटते ही पूछा- ‘’ये शिवराज को हो क्या गया है? यह तो राजनीति भी नहीं है? दलगत या वैचारिक विरोध के बावजूद शिवराज से हमारी सहानुभूति इसलिए है कि देश में जमीन से उठकर शीर्ष पर पहुंचने वाले नेताओं की जमात अब खत्म हो रही है। हम इस नस्ल को बचाए रखने के पक्षधर हैं।‘’
उस नेता ने और भी बहुत सी बातें कहीं… उसका निष्कर्ष यह था कि ‘’जैत गांव से निकला एक साधारण किसान परिवार का बेटा, सीएम बनने के बाद आइवरी टॉवर के कॉकस का कैदी बनकर रह जाएगा यह कभी सोचा नहीं था…’’
उस नेता की बात अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है, क्या कोई और भी है जो इस गूंज को सुन पा रहा है…?