हमारे यहां फिल्मों के प्रमाणीकरण के लिए सेंसर बोर्ड नाम की संस्था है, जो फिल्मों को उनके कंटेट की संवेदनशीलता के अनुसार ‘ए’ और ‘यू’ या ‘यूए’ जैसे सर्टिफिकेट प्रदान करती है। ‘यू’ सर्टिफिकेट वाली फिल्में वो होती हैं जिन्हें सामान्य तौर पर कोई भी देख सकता है, लेकिन ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली फिल्में केवल वयस्कों के लिए ही होती हैं। ये फिल्में 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए प्रतिबंधित होती हैं। एक समय था जब ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली फिल्मों को बच्चे भेष बदलकर या माता पिता अथवा समाज से छुपकर देखने का जुगाड़ किया करते थे। यदि बच्चा ऐसी फिल्म देखते हुए किसी परिचित या रिश्तेदार की निगाह में आ जाता, तो घर में उसकी खैर नहीं होती थी।
यह वो समय था जब फिल्मों में ‘ए’ सर्टिफिकेट पाने वाली फिल्में में थोड़ा बहुत बदनउघाड़ू मसाला होता था और लोग उसे ही देखने जाते थे।
1990 के दशक तक ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली फिल्मों का बहुत हौवा रहा,लेकिन उदारीकरण ने धीरे धीरे सारे बंधन ढीले कर दिए और बाद में इंटरनेट ने तो एक तरह से उन्हें खत्म ही कर दिया। अब ‘ए’ या ‘यू’ केवल नाम के सर्टिफिकेट भर रह गए हैं। व्यावहारिक तौर पर उनका कोई मतलब नहीं रहा क्योंकि इंटरनेट पर वो सब उपलब्ध है जिसके सार्वजनिक होने के बारे में एक समय हमारा समाज सोच भी नहीं सकता था।
जैसा हाल फिल्मों का रहा है वैसा ही कुछ कुछ भारत में टेलीविजन आने के बाद खबरों का भी रहा है। एक समय दूरदर्शन ही खबरें दिखाने का जरिया होता था और वहां सलमा सुलतान जैसी न्यूज रीडर हर खबर को ऐसे गंभीर अंदाज में सुनाती थीं कि लगता था मानो छाती पर कोई बोझ रखा जा रहा हो। धीरे धीरे खबरें सरकारी दूरदर्शनी अंदाज के चंगुल से मुक्त हुईं और प्राइवेट न्यूज चैनल आने के बाद उन्होंने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के मुक्त आकाश में उड़ना शुरू किया। ऐसा लगा मानो सूचनाओं का बसंत आ गया हो। तरह तरह के खबर आधारित कार्यक्रम, नई जानकारियां, सूचनाएं और विश्लेषण लिए हुआ करते थे।
लेकिन 20 वीं सदी खत्म होते होते यह ‘अभिव्यक्ति की आजादी’, ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ में तब्दील होने लगी और आज हालत यह है कि यह अपने आप में बहुत बड़ा खतरा बन गई है। आज खबरें विश्वास नहीं जगातीं बल्कि डराती हैं। एक जमाने में रामसे ब्रदर्स की कथित डरावनी फिल्मों के डरावने सपने आया करते थे, लेकिन आजकल डरावनी खबरों के डरावने सपने आते हैं। एक समय बच्चों को ‘भूत बंगला’ टाइप फिल्में टीवी पर आने के दौरान वहां से हटा दिया जाता था, आज टीवी चैनल खबरों के नाम पर जो दिखा रहे हैं उसके चलते बच्चों को वहां से हटाना पड़ रहा है।
ताजा मामला गुड़गांव के रेयान इंटरनैशनल स्कूल की दूसरी कक्षा के सात साल के छात्र प्रद्युम्न ठाकुर की नृशंस हत्या का है। इस मामले की जिस तरह से रिपोर्टिंग की जा रही है, उसने पत्रकारिता की आचार संहिता के मानो सारे बंध तोड़ दिए हैं। टीवी के एंकर और रिपोर्टर घटनास्थल को ऐसे रौंद रहे हैं मानो पैरों तले मिट्टी रौंद रहे हों। रोज नया कुछ देने या सबसे अलग और सबसे तेज रहने की अश्लील होड़ में सारे सबूतों, गवाहों और पूरी जांच प्रक्रिया से ऐसा खिलवाड़ किया जा रहा है कि देखकर हैरत होती है।
प्रद्युम्न की हत्या बहुत संवेदनशील मामला है, लेकिन हमारे जांबाज रिपोर्टर उसे अपराध जगत की सामान्य मर्डर स्टोरी की तरह पेश कर रहे हैं। पिछले दिनों इस घटना को लेकर जो रिपोर्टिंग हुई उसने बच्चे की हत्या में बरती गई जघन्यता से भी ज्यादा जघन्यता दिखाई। चैनलों ने उन डॉक्टरों से इंटरव्यू किए जिन्होंने पहले पहल प्रद्युम्न को घायल अवस्था में देखा था या जिनके पास उसे बचाने के लिए तत्काल ले जाया गया था। उसके बाद उस डॉक्टर से बात हुई जिसने उसका पोस्टमार्टम किया था। इस दौरान बच्चे को मारे जाने या उसके गले पर छुरा चलाए जाने का जो विवरण प्रस्तुत किया गया, उसे देखकर लगा कि हमारे रिपोर्टर भी इस मामले में ‘ब्ल्यू व्हेल’ जैसा कोई गेम खेल रहे हैं।
डॉक्टरों के हवाले से बहुत बारीकी और विस्तार से बताया गया कि बच्चे की गरदन पर कितनी बार छुरा चलाया गया। ‘जनहित’ में यह जानकारी भी प्रसारित की गई कि बच्चे की मौत बहुत ज्यादा खून बह जाने से हुई। उसकी गरदन पर छुरे से दो बार वार किया गया। छुरे का एक घाव 18 सेमी लंबा और 2 सेमी चौड़ा था। उसके ठीक 2 सेंमी नीचे किया गया दूसरा घाव 12 सेमी लंबा और 2 सेमी गहरा था। पूरे मर्डर को तीन से चार मिनट में अंजाम दिया गया…वगैरह।
ये क्या है…! अरे एक मासूम बच्चे की मौत हुई है। जरा मामले की नजाकत और संवेदनशीलता को तो समझिए। क्या आपको अहसास है कि इस खबर को पूरे देश के बच्चे बड़े गौर से देख रहे हैं। क्या उन्हें मौत का इंच-इंच या सेंटीमीटर और मिलीमीटर ब्योरा देना जरूरी है? क्या बच्चे की गरदन से कतरा-कतरा खून बहने का लाइव जरूरी है? मुझे कई लोगों ने बताया कि घटना से जुड़ी खबरें देखने के बाद मासूम बच्चों ने अपने मां-बाप से सवाल पूछे हैं कि ‘रेप’ क्या होता है? गर्दन पर 2 सेंमी घाव कितना गहरा होता है?
आखिर मां-बाप बच्चों को इन सवालों का क्या जवाब दें? उनके पास तो इन मासूम और दहला देने वाले सवालों के कोई जवाब नहीं है। लेकिन क्या खुद मीडिया के पास इस सवाल का जवाब है कि आखिर इस तरह की रिपोर्टिंग से उसे क्या हासिल हो रहा है?
और यदि नहीं तो क्या अब हमें खबरों को भी ‘ए’ और ‘यू’ सर्टिफिकेट देने पर विचार करना होगा?
jai ho.