लोकतंत्र तो अधिकार देता है, पर ‘उदारवादी’ नहीं

डॉ. नीलम महेंद्र

आज हम उस समाज में जी रहे हैं जिसे अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन करने में महारत हासिल है। वो समाज जो एकतरफ अपने उदारवादी होने का ढोंग करता है, महिला अधिकारों, मानव अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बड़े बड़े आंदोलन और बड़ी बड़ी बातें करता है लेकिन जब इन्हीं अधिकारों का उपयोग करते हुए कोई महिला या पुरुष अपने ऐसे विचार समाज के सामने रखते हैं तो इसी समाज के कुछ लोगों को यह उदारवाद रास नहीं आता और इनके द्वारा उनका जीना ही दूभर कर दिया जाता है। वो लोग जो असहमत होने के अधिकार को संविधान द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अधिकार मानते हैं वो दूसरों की असहमति को स्वीकार ही नहीं कर पाते।

हाल ही के कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं-

  1. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की एक छात्रा को सोशल मीडिया पर धमकी दी गई है कि यूनिवर्सिटी खुलने के बाद उसे जबरन पीतल का हिजाब पहनाया जाएगा। उसका कुसूर ये था कि उसने कॉलेज में छात्राओं को जबरन हिजाब पहनने के मसले पर अपनी राय रखी थी जिसके बाद स्नातक के एक छात्र ने उसके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए उसे धमकाया।
  2. कुछ दिन पहले ही मुंबई स्थित मानखुर्द में एक हिंदू लड़की ने मस्जिद में अजान के समय लाउडस्पीकर से आने वाली आवाज से परेशान हो कर उनसे नियमों का पालन करने की गुजारिश की थी, तो उसे कट्टरपंथियों के गुस्से का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं, पुलिस और प्रशासन भी उन कट्टरपंथियों के आगे बेबस और बौना नज़र आ रहा था।
  3. 3. जब इस लड़की के समर्थन में सोशल मीडिया पर एक अन्य लड़की ने आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई तो उसे भी बेहद अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए उसका बलात्कार करने की धमकी तक दे दी गई। यह मामला इंदौर का है जहाँ इस लड़की की गुस्ताखी यह थी कि उसने उपर्युक्त लड़की के समर्थन में सोशल मीडिया पर एक प्लेकार्ड की फोटो शेयर की थी जिसमें लिखा था कि अज़ान करो पर आवाज कम करो, लाउडस्पीकर से क्या साबित करना चाहते हो।

लेकिन इन लड़कियों के समर्थन में कोई आवाज नहीं आई और ये अपनी लड़ाई में अकेली खड़ी हैं। दरसअल इन लड़कियों की गलती यह थी कि ये तीनों उन बातों को सच मान बैठी थीं जो इन्होंने तथाकथित उदारवादियों के मुँह से सुनी थीं। वो भूल गई थीं कि भले ही इस देश का लोकतंत्र उन्हें ‘असहमत होने का अधिकार’ देता है और इस देश का संविधान इन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी भी देता है, लेकिन ये तथाकथित उदारवादी नहीं। क्योंकि इनका उदारवाद चयनात्मक है, सार्वभौमिक नहीं।

कुछ समय पहले इन्हीं शब्दों की आड़ में देश के लोकतंत्र की दुहाई देकर और संविधान की रक्षा के नाम पर सीएए के विरोध में समुदाय विशेष की महिलाओं द्वारा अनिश्चितकालीन विरोध प्रदर्शन और धरना दिया जा रहा था जिसे देश भर में इन उदारवादियों का समर्थन प्राप्त था। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, तब उस प्रर्दशन के दौरान लोकतंत्र के नाम पर प्रदर्शनकारियों की तानाशाही और संविधान की रक्षा के नाम पर संविधान सम्मत कानून का गैरकानूनी विरोध पूरे देश ने देखा। लेकिन महिला अधिकारों, लोकतंत्र में असहमत होने के अधिकार और संविधान द्वारा प्रदत्त विरोध करने के अधिकार के नाम पर प्रशासन के हाथ बांध दिए गए।

इसी प्रकार दिल्ली दंगों की साज़िश रचने के आरोप में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की एक छात्रा को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया। वो सीएए के विरोध प्रदर्शन में भी शामिल थी और उसे भी सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया था। उस समय उसके समर्थन में महिला अधिकारों की बात करने वालों की झड़ी लग गई थी। प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर एक महिला जो कि एक छात्रा भी है, उसके साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ और उसके सम्मान के लिए आवाज उठाने वाले महिला और वामपंथी संगठन सामने आ गए थे।

सही भी है, चाहे वो अपराधी हो, पर महिला होने के नाते वो एक आत्मसम्मान की अधिकारी है जिसकी रक्षा किसी भी सभ्य समाज में की जानी चाहिए। लेकिन हिजाब के खिलाफ आवाज उठाने वाली छात्रा हो या लाउडस्पीकर पर अजान का न्यायसम्मत विरोध करने वाली महिला हो या फिर इसके समर्थन में उतरी एक अन्य छात्रा हो, इनके समर्थन में महिला अधिकारों की बात करने वाले उपर्युक्त किसी उदारवादी संगठन की कोई आवाज क्यों नहीं सुनाई दी। जिन वामपंथी संगठनों के महिला सशक्तिकरण के विषय में लंबे चौड़े भाषण विभिन्न मंचों पर अनेकों अवसरों पर देखे और सुने गए आज वो यथार्थ में बदलने के इंतजार में हैं।

अगर आप सोच रहे हैं कि यह दोगला व्यवहार केवल महिलाओं के साथ किया जाता है तो आपको साल के शुरुआत में कन्नूर यूनिवर्सिटी में आयोजित भारतीय इतिहास कांग्रेस के मंच पर केरल के राज्यपाल आरिफ मुहमम्द खान के साथ इतिहासकार इरफान हबीब की बदसलूकी याद कर लेनी चाहिए। 24 मार्च 1943 को भारत के अतिरिक्त गृहसचिव रिचर्ड टोटनहम ने वामपंथियों पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ” भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा है कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते सिवाय अपने स्वार्थों के।”

दरअसल जो वामपंथी मानवाधिकारों, दलित अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, महिला अधिकारों के नारे बुलंद करते हैं, उनका सच यह है कि जब 1979 में उन्हीं की सरकार पश्चिम बंगाल में दलितों का भीषण नरसंहार करती है या 1993 में विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा कार्यकर्ताओं पर खुले आम गोलियां चलवाती है जिसमें 13 लोग मारे जाते हैं या फिर जब बंगाल के वामपंथी कार्यकर्ता 2006 में तापसी मलिक नाम की एक नाबालिग लड़की का बलात्कार कर उसे जला कर मार डालते हैं तो इनका उदारवाद, मानव अधिकार, महिला अधिकार की बातें, खोखले नारे बन कर रह जाते हैं। लेकिन अब शायद समय आ गया है। अब इन उदारवादियों के सिलेक्टिव लिबरलिज्‍म से पर्दा उठने लगा है।

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