राकेश अचल
दुनिया का पता नहीं लेकिन भारत में अखबार तब निकाले गए जबकि केवल तोप थी। आज तोपें भी हैं और तोपचन्द भी। अखबार आज भी निकल रहे हैं लेकिन अखबारों के वजूद को लेकर आशंकाएं भी कम नहीं हैं, क्योंकि अब तोपों और तोपचंदों के अलावा सोशल मीडिया भी अखबारों का प्रतिद्वंदी बन गया है, लेकिन हांगकांग के अखबार प्रेमियों ने सबसे ज्यादा लोकप्रिय दैनिक ‘एप्पल डेली’ के अंतिम संस्करण की दस लाख प्रतियां खरीदकर इन तमाम आशंकाओं को निर्मूल कर दिया है।
हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आखिरी अखबार ‘एप्पल डेली’ का अंतिम प्रिंट संस्करण खरीदने के लिए गुरुवार तड़के ही लोगों की लंबी लाइनें लग गईं। आम तौर पर 80 हजार प्रतियों का प्रकाशन करने वाले इस अखबार के अंतिम संस्करण की दस लाख प्रतियां देखते ही देखते बिक गईं। लोकतंत्र के समर्थन के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले इस अखबार के अंतिम संस्करण में एक तस्वीर प्रकाशित की गई, जिसमे एप्पल डेली के कर्मचारी इमारत के आसपास बारिश के बावजूद एकत्रित हुए समर्थकों का कार्यालय से हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे हैं। इसके साथ ही शीर्षक दिया गया, ‘हांगकांग वासियों ने बारिश में दुखद विदायी दी, हम ‘एप्पल डेली का समर्थन करते हैं।’
भारत में अखबारों के इतिहास में न जाते हुए मैं आपको बताना चाहता हूँ कि देश में इस समय भी एक लाख से अधिक पंजीकृत समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। देश में 1780 से शुरू हुआ अखबारों का ये सफर 2021 में भी जारी है। हमारे यहां अखबार निकालने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता तय नहीं है। हमारे जमाने के अनेक कम्पोजीटर तक आज अखबार निकाल रहे हैं। कुछ तकनीक का कमाल है तो कुछ कानूनों की उदारता का। कोरोनाकाल में अखबार उद्योग पूरी तरह से लड़खड़ा गया, अनेक अखबार बंद हो गए, अनेक अखबारों में कास्ट कटिंग के नाम पर अंधाधुंध छंटनी कर दी गयी, अधिकांश अखबार नियमित छपने के बजाय अपने डिजिटल संस्करण पर आ गए।
‘एप्पल डेली’ जैसा कोई अखबार भारत में नहीं है कि जिसके लिए उसके पाठक मर-मिटें। दरअसल सरकार की आँख की किरकिरी बने इस अखबार को लेकर पुलिस ने उसकी 23 लाख डॉलर की संपत्ति जब्त करने, उसके कार्यालय की तलाशी लेने और पांच शीर्ष सम्पादकों और अधिकारियों को पिछले हफ्ते गिरफ्तार करने के बाद कहा था कि वह अपना संचालन बंद करेगा। पुलिस ने अखबार पर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए विदेश से मिलीभगत का आरोप लगाते हुए यह कार्रवाई की थी। दुनिया में इस कार्रवाई की निंदा हो रही है।
चीन और भारत की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन अंदरूनी तौर पर भारत में भी पिछले कुछ वर्षों से अखबारों को तेजहीन बनाने की मुहिम चलाई जा रही है। भारत में कोई भी ऐसा अखबार नहीं है जो ताल ठोंककर सरकार के खिलाफ खड़ा हो और देश की जनता उस अखबार के साथ खड़ी हो। दरअसल इतनी सामर्थ्य जुटाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। ये सामर्थ्य अब शायद ही किसी अखबार के पास बची हो?
एक वास्तविकता है कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी और अंग्रेजी के ही नहीं बल्कि भाषाई अखबारों की प्रसार संख्या में भी 30 से लेकर 65 फीसदी की कमी आयी है। अनेक नामचीन्ह अखबारों के संस्करण बिना किसी पूर्व सूचना के बंद कर दिए गए। बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए, बावजूद इसके नए अखबारों के प्रकाशन का सिलसिला जारी है। इसकी वजह ये है कि देश में टेलीविजन सरकार या सरकारों का ‘माउथपीस’ बनकर रह गया है। अखबारों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। पूरी तरह से न भी खोई हो लेकिन कम तो जरूर हुई है और ये एक बार नहीं बल्कि बार-बार उजागर भी हुआ है।
भारत में अखबारों के दिन लद इसलिए नहीं रहे क्योंकि यहां बेरोजगारी है, महामारी है, अराजकता है। और जनता इन सबके बारे में जागरूक रहना चाहती है। कोरोना के दूसरे काल में मृतकों की संख्या को लेकर अखबारों की विश्वसनीयता धूल में मिल गयी। सरकारों ने जो कहा सो अखबारों ने छापा, लेकिन जब प्रतिद्वंदी मीडिया ने मोर्चा सम्हाला तब कहीं जाकर अखबारों को भी सच के साथ खड़ा होना पड़ा। भारत में विपक्ष कि गैर मौजूदगी भी अखबारों के दिन नहीं लदने दे रही। विपक्ष का आधे से ज्यादा काम आज भी अखबार ही कर रहे हैं। संसद में बहस अखबारों की कतरनों की बिना पर होती है।
आजादी के बाद भारत में ये पहला मौक़ा है जब अखबारों और टीवी चैनलों से नौकरियां खो चुके नामचीन्ह पत्रकारों से लेकर जिला स्तर तक के पत्रकार अपना-अपना यू-ट्यूब चैनल लिए बैठे हैं, और मजे की बात ये है कि उनके पास दर्शकों की अच्छी खासी संख्या भी है, जबकि उनका आधे से ज्यादा मसाला अखबारों में आ चुकी खबरों पर आधारित होता है। आम आदमी दोनों माध्यमों में जाकर खबर की विश्वसनीयता परखना चाहता है।
मेरा अपना अनुभव है कि जिन देशों में मसले कम हैं वहां मसालेदार खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे देशों में न लोगों के घरों पर रोज अखबार मंगाए जाते हैं और न पढ़े जाते हैं, क्योंकि किसी के पास इतनी फुरसत ही नहीं है। ये ऐसी अखबारविहीन दुनिया है जहाँ लोग ऑनलाइन जीना सीख चुके हैं। यहां अखबारों के दिन जरूर लदते दिखाई देते हैं, लेकिन यहां के अखबारों ने समय के साथ अपना स्वरूप बदलकर अपने वजूद को सुरक्षित कर रखा है। भारत में ऐसा नहीं हो पाया, जो सरकार से टकराया उसकी मिट्टी पलीद कर दी गयी।
मुझे याद है जब मैं अखबारों की दुनिया में आया था उस समय अख़बार 4 से 8 पृष्ठ के होते थे। बाद में ये संख्या बढ़ते हुए 16 से 20 तक पहुंची। अखबारों की पृष्ठ संख्या प्रकाशन सामग्री की वजह से नहीं अपितु विज्ञापनों कि वजह से बढ़ी। अखबारों को तेल-साबुन की तरह ब्रांड बनाकर तरह-तरह के लालच देकर बेचा गया। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। अखबारों के दिन सचमुच लद न जाएँ इसके लिए अखबारों को खुद बदलना होगा। पहली शर्त विश्वसनीयता की बहाली, दूसरी शर्त सत्ता प्रतिष्ठान से लोहा लेने का माद्दा और तीसरी शर्त कलेवर में समयानुकूल परिवर्तन।
भारत में बड़े अखबार रहें या न रहें लेकिन छोटे अखबार जरूर रहेंगे और आने वाले दिनों में ये छोटे अखबार ही जनता की जुबान में बात करेंगे, बड़े अखबारों को तो चाहे-अनचाहे चारण-भाट बनकर रहना ही पडेगा। नहीं बनेंगे तो उन्हें भी बुरे दिन देखना पड़ सकते हैं। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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