उप्र की राजनीति इन दिनों पूरे देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। सत्ता की कुर्सी पर अखिलेश हैं लेकिन चाबी मुलायम सिंह के पास है। यह सत्ता की लड़ाई तो है ही पर विचारों की लड़ाई भी है। जहाँ एक तरफ अखिलेश को अपने काम और विकास पर पूरा भरोसा है, उप्र की जनता का सामना वे इसी आधार पर करना चाह रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मुलायम सिंह अपने चुनावी अंकगणित एवं बाहुबल पर यकीन रखते हैं। वे जानते हैं इस देश में चुनाव कैसे जीते जाते हैं, केवल काम और विकास के आधार पर चुनाव जीतना तो उनकी कल्पनरा से परे है।
अखिलेश के काम से ज्यादा भरोसा उन्हें शिवपाल के जातीय गणित और मुखतार अंसारी के बाहुबल पर है। जबकि अखिलेश अपने द्वारा चार साल तक प्रदेश में किए गए कार्यों को जनता के सामने रखकर वोटों की अपेक्षा कर रहे हैं। वे कह भी चुके हैं कि इम्तिहान मेरा है टिकट बाँटने का अधिकार मुझे ही मिलना चाहिए, जो कि काफी हद तक सही भी है। लेकिन नेताजी का कहना कि काम करने के लिए सत्ता में होना आवश्यक होता है, पर सत्ता में रहने के लिए काम करना आवश्यक नहीं होता, उसके लिए तो बिसात बिछानी पड़ती है, शह और मात की।
लेकिन एक पढ़ लिखा उदारवादी सोच का नौजवान, जो उप्र के लोगों को पढ़ा लिखा रहा है, उन्हें लैपटॉप दे रहा है, एक्सप्रेस हाईवे बना रहा है, सड़कें सुधार रहा है, अस्पताल और कॉलेज खुलवा रहा है, कानून व्यवस्था से लेकर प्रदेश के मूलभूत ढाँचे को सुधारने में चार साल से लगा है, युद्ध स्तर पर काम करके मेट्रो बनवा रहा है, उसे बाहुबल का गणित कैसे समझ आ सकता है। दूसरी तरफ जिसने अपने जीवन का हर चुनाव केवल जाति, अल्पसंख्यक एवं दलित वोटों के प्रतिशत के आधार पर जीता हो उससे इस सोच से ऊपर उठने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
दरअसल इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन चार सालों में अखिलेश ने उप्र में काम किया है। वहाँ का युवा वर्ग एवं मध्यम वर्ग अखिलेश के साथ है और हाल के घटनाक्रमों से प्रदेश के लोगों के मन में अखिलेश के लिए सहानुभूति भी है। वहाँ की जनता जानती है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो अखिलेश हैं, लेकिन फैसले नेताजी से बिना पूछे नहीं ले सकते। वहाँ के ब्यूरोक्रेट्स अखिलेश से ज्यादा मुलायम और शिवपाल की सुनते हैं। इन मुश्किल परिस्थितियों में भी अखिलेश सरकार ने इन चार सालों में जो काम किया है वो वाकई काबिले तारीफ है।
इतने समय में अखिलेश भी काफी कुछ सीख व समझ चुके हैं और शायद इसीलिए अब वे अपनी छवि से किसी प्रकार का समझौता करने के मूड में नहीं हैं। जैसा कि होता है, दोनों की इस अलग अलग सोच का फायदा कुछ लोगों द्वारा उठाया जा रहा है और अखिलेश विरोधी गुट सक्रिय हो गया है। जिस प्रकार के फैसले आज पार्टी में लिए जा रहे हैं, निश्चित ही वे आत्मघाती सिद्ध होंगे।
समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल का विलय, अमर सिंह का प्रवेश और अखिलेश के युवा समर्थकों का पार्टी से निष्कासन अपने आप में बहुत कुछ कहता है। अभी ताजा घटनाक्रम में उनके स्कूल के मित्र एवं समाजवादी पार्टी के सदस्य उदयवीर को पार्टी से निकाल कर, शायद अखिलेश के सब्र की परीक्षा ली जा रही है या फिर पार्टी में उन्हें उनकी हैसियत का एहसास कराया जा रहा है।
दरअसल अभी तक अखिलेश का पलड़ा भारी था। यह बात सही है कि हाल के लोकसभा चुनावों में उप्र में भाजपा ने 80 में से 71 सीटें हासिल की थीं लेकिन वहाँ का जनमानस बिल्कुल भी दुविधा में नहीं था। भारत का वोटर शुरू से ही समझदार रहा है और वह अपनी व देश की भलाई बहुत ही बेहतर समझता है। वह इस विषय में स्पष्ट था कि केंद्र में मोदी और प्रदेश में अखिलेश लेकिन भारत सरकार द्वारा हाल में की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ने चुनावी सीन और राजनैतिक समीकरण सब कुछ बदल दिया है। यही वजह है कि मुलायम किसी भी प्रकार की चूक करना नहीं चाह रहे, लेकिन अपनी पुरानी सोच को समय के साथ बदल भी नहीं पा रहे। अतिमहत्वाकांक्षा के रथ पर सवार अपने ही बेटे के खिलाफ सत्ता की लालसा में पार्टी और सत्ता बचाना चाह रहे हैं, परिवार भले ही टूट जाए ।
दरअसल राजनीति होती ही ऐसी है। अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाकर स्वयं मुलायम सिंह ने एक तरह से अपने परिवार की राजनैतिक विरासत तय कर दी थी लेकिन समय के साथ वे अपने इस फैसले पर शायद पुनः सोचना चाहते हैं यह अलग विषय है कि कारण पारिवारिक हैं या राजनैतिक।
कुल मिलाकर अखिलेश के लिए यह वाकई परीक्षा की घड़ी है जिसमें उप्र का युवा एवं मध्यम वर्ग तो उनके साथ है लेकिन उनका परिवार नहीं। शायद वे पढ़ लिख कर राजनीति में आने और अपने संस्कारों की कीमत चुका रहे हैं।