अच्छा लगता है जब आप कोई मुद्दा उठाएं और उसकी गूंज समाज में सुनाई दे। ऐसे ही एक मामले ने, मुझे अपने लिखे पर सुकून महसूस करने का मौका दिया है। यह मामला देश की उस सर्वोच्च संस्था या लोकतंत्र के उस महत्वपूर्ण स्तंभ से जुड़ा है जो इन दिनों बहुत अधिक चर्चा में है। जी हां, बात न्यायपालिका की है।
मैंने इसी कॉलम में 3 और 4 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट में हो रही आधार कार्ड और निजता के अधिकार संबंधी मामले की सुनवाई को लेकर विस्तार से अपनी बात लिखी थी। अखबारों में उस मामले की सुनवाई की रिपोर्टिंग पढ़ते समय एक विचार मन में आया था जिस पर अब एक अन्य याचिका के जरिये सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा है।
मैंने 4 अगस्त के कॉलम में लिखा था- ‘’मुझे नहीं मालूम की कोर्ट में होने वाली ऐसी बहसों का संसद या विधानसभाओं की तरह कोई रिकार्ड रखा जाता है या नहीं। लेकिन यदि नहीं रखा जाता तो ऐसा होना चाहिए। क्योंकि ऐसा विमर्श बार बार नहीं होता। यह आने वाली पीढि़यों के लिए तो धरोहर होगा ही, नए वकीलों के लिए भी मार्गदर्शक बनेगा।‘’
मुझे यह मुगालता तो कतई नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के वकील और जज साहेबान मेरा लिखा पढ़ते होंगे, लेकिन पिछले दिनों देश की वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने ठीक इसी मुद्दे पर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई है। 18 जनवरी को दाखिल की गई इस याचिका में आधार जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सुनवाई का सीधा प्रसारण करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने से फैसलों की गलत रिपोर्टिंग रोकने में मदद मिलेगी।
इंदिरा जयसिंह के मुताबिक सीधा प्रसारण होने से न्याय होने के साथ न्याय होते दिखाई देने की बात को पुख्ता तरीके से स्थापित किया जा सकेगा। इससे एक संस्था के रूप में सुप्रीम कोर्ट का आत्मविश्वास बढ़ेगा। अदालत के फैसले देश के सभी लोगों को प्रभावित करते हैं, इसलिए उन्हें यह जानने का अधिकार है कि कोई फैसला कैसे किया गया है।
इंदिरा जयसिंह ने अदालत की सुनवाई के सीधे प्रसारण की व्यवस्था होने तक कार्यवाही को रिकॉर्ड कर उसे यूट्यूब चैनल पर डालने की मांग की है। जब उनसे पूछा गया कि इससे तो सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की आलोचना शुरू हो जाएगी तो जयसिंह ने कहा कि स्वस्थ आलोचना से क्या दिक्कत है, इसका तो स्वागत होना चाहिए।
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए उसे दो हफ्ते में जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल से भी कहा है कि वे इस मामले में कोर्ट की मदद करें। याचिकाकर्ताओं ने इस कदम को लोगों के न्याय पाने के अधिकार का हिस्सा बताया है।
दरअसल मैंने जब अदालतों की कार्यवाही रिकार्ड किए जाने संबंधी सुझाव देते हुए अपनी राय रखी थी, तो उससे पहले कई वकीलों से मेरी बात हुई थी और करीब करीब सभी इस बात से सहमत थे कि न्यायपालिका में पूर्ण पारदर्शिता लाने के लिए ऐसा किया जाना चाहिए।
मुझे आश्चर्य है कि कई मामलों में पारदर्शिता की बात करने वाले हमारे सिस्टम ने अभी तक इस बारे में क्यों नहीं सोचा? जहां तक आलोचना का सवाल है तो जब संसद की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की बात उठी थी तब भी एक बड़े वर्ग ने उसकी आलोचना करते हुए कहा था कि इससे सांसदों के प्रदर्शन में गिरावट आएगी। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि संसद का प्रदर्शन जो है सो है पर देश की जनता को जरूर पता चल रहा है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली इन संस्थाओं में कैसा आचरण कर रहे हैं।
अभी हाल की ही घटना ले लीजिए। राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दौरान कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी को लेकर एक अप्रिय प्रसंग उपस्थित हुआ। अब चूंकि घटना का सीधा प्रसारण हुआ था इसलिए लोगों के सामने दोनों पक्ष समान रूप से उपस्थित थे और लोगों ने अपनी राय भी उसी हिसाब से बनाई।
इसी तरह अदालती कार्यवाही को लेकर भी कई तरह की बातें समय समय पर उठती रही हैं। पिछले दिनों खुद सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का मीडिया के सामने आकर कार्यवाही के तौर तरीके पर सवाल उठाना इसका जीताजागता उदाहरण है। उस घटना ने हमारी पूरी न्यायप्रणाली पर सवाल खड़े किए थे।
ऐसे में यदि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई का सीधा प्रसारण हो तो न्याय के दौरान उठाई जाने वाली शंकाओं को न्यूनतम किया जा सकेगा। किसी पक्षपातपूर्ण कार्यवाही के आरोप भी नहीं लग सकेंगे, क्योंकि सीधे प्रसारण के दौरान देश देख रहा होगा कि कौन सा वकील कैसे तर्क प्रस्तुत कर रहा है और कौनसा न्यायाधीश किस तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है।
जैसा मैंने कहा, मुझे आश्चर्य है कि हमारी न्यायप्रणाली में इस बारे में गंभीरता से कभी नहीं सोचा गया। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले आ जाने के बाद उन्हें तो AIR (आल इंडिया रिपोर्टर) में संकलित कर दिया जाता है, लेकिन उसमें सिर्फ फैसले का जिक्र होता है। बहस के दौरान किस पक्ष ने क्या तर्क दिए और किस जज ने क्या टिप्पणी की इसका रिकार्ड भी जरूर होना चाहिए।
आने वाले दिनों में सु्प्रीम कोर्ट में राम जन्मभूमि जैसे मामलों की सुनवाई होनी है। ऐसे मामले न सिर्फ ऐतिहासिक महत्व के होते हैं बल्कि उनसे देश के भविष्य का ताना बाना भी जुड़ा होता है। ऐसे में पूरी कार्यवाही ही मिनिट्स के रूप में रिकार्ड होनी चाहिए ताकि पचास, सौ साल बाद कोई विवाद उठे तो पता तो चल सके कि किस पक्ष ने क्या दलील दी थी।
देश का राजनीतिक और संसदीय इतिहास तो किसी न किसी रूप में दर्ज है, संसद और विधानसभओं की कार्यवाही के मिनिट्स भी हमें मिल जाएंगे, लेकिन देश की न्यायपालिका का इतिहास इस तरह कहीं दर्ज नहीं है। इसका दस्तावेजीकरण भावी पीढि़यों के लिए तो मार्गदर्शक होगा ही, उसे पढ़कर नए वकील भी खुद को अधिक पेशेवर तरीके से तैयार कर सकेंगे।