कबाड़ के गांधी भी भ्रष्‍टाचार की भेंट

राकेश अचल 

कबाड़ से कृतियां बनाने का चलन नया नहीं है। देश के अनेक शहरों में स्थानीय प्रशासन ने अनेक कृतियां बनवाईं और लगवाई हैं लेकिन उनमें उतना गड़बड़ घोटाला नहीं सुना गया जितना ग्वालियर में कबाड़ से महात्मा गांधी की अनुकृति बनाने में सुना जा रहा है।

ग्वालियर में स्थानीय प्रशासन यानि स्मार्ट सिटी परियोजना और नगर निगम ने कबाड़ से महात्मा गांधी की प्रतिमा बनवाई है। इस पर 98 लाख रुपये की लागत आयी है। कुल 20 मूर्तियां बनाई जा रही हैं इनमें से 4 बन भी चुकी हैं। यदि ये प्रतिमाएं कबाड़ की ही हैं तो इतनी लागत कैसे आ गयी? इससे भी कम राशि में तो नयी प्रतिमा बन जाती! सवाल ये है कि कबाड़ के नाम पर मूर्ति बनाने की अनुमति किसने दी? इसकी फौरी तौर पर जरूरत क्या थी?

कोरोनाकाल में जब स्थानीय निकायों के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं हैं तब इस तरह की फिजूलखर्ची करने की क्या जरूरत थी? इस प्रतिमा के निर्माण में हर तरफ से भ्रष्टाचार झलक रहा है लेकिन हैरानी है कि प्रशासक के अधीन चल रहे स्मार्ट सिटी परियोजना और नगर निगम में किसी ने इस पर उंगली नहीं उठाई, शायद सभी इसमें शामिल हैं या फिर उनमें इसका विरोध करने का साहस नहीं है।

इस समय नगर निगम में कोई चुनी हुई सरकार नहीं है।  स्मार्ट सिटी संचालक मंडल की बैठक हो नहीं रही। कमलनाथ सरकार ने चुनाव टाले थे और शिवराज सरकार ने उसी आदेश को कायम रखा। पूर्व महापौर और वर्तमान सांसद से लेकर पुराने पार्षदों के मुंह सिले हुए हैं। विधायक, मंत्री सब मौन हैं, क्यों मौन हैं, ये शोध का विषय है। सार्वजनिक शौचालयों की सफाई कर सुर्ख़ियों में रहने वाले मंत्री जी को भी इस प्रतिमा के निर्माण में भ्रष्‍टाचार से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि वे लेनदेन के पचड़े में पड़ते ही नहीं हैं, ये सब काम दूसरे लोग करते हैं।

इस मामले में मैं भी मौन रहता लेकिन महात्मा गांधी की प्रतिमा के नाम पर भ्रष्‍टाचार ने मुझे मौन रहने से मना कर दिया। नगर निगम वैसे भी भ्रष्टाचार का अनंत स्रोत है, लेकिन इसमें भी कदाचित इतनी नैतिकता तो होना ही चाहिए कि राष्ट्रपिता के नाम पर तो यह न हो। आपको बता दें कि इस समय संभाग आयुक्त नगर निगम के प्रशासक भी हैं और स्मार्ट सिटी के डायरेक्टर भी। निगमायुक्त तो अपनी जगह हैं ही। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है। स्थानीय सांसद विवेक शेजवलकर पहले ही अपनी उपेक्षा का रोना रो चुके हैं, ऐसे में कौन भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए?

मुझे लगता है कि इस मामले में राज्य सरकार को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और महात्मा गांधी की कबाड़ से बनी अनुकृति का भुगतान तत्काल रोक कर मामले की जाँच कराना चाहिए। मुझे हैरानी होती है कि इतने संवेदनशील मामले में ये शहर मौन क्यों हो जाता है? स्मार्ट सिटी योजना में शामिल ग्वालियर और किसी मामले में स्मार्ट हुआ हो या न हुआ हो लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में इसका कोई मुकाबला नहीं है। प्राय: नगर हित के लिए सभाएं करने वाले जागरूक नागरिक भी नदारद हैं।

आपको बता दूँ कि शहर में टाउनहाल जैसी इमारतें भ्रष्टाचार का जीता जागता स्मारक बन चुकी हैं। इन्हें दशकों से जनता को समर्पित नहीं किया जा सका है जबकि अकूत राशि इसके उन्नयन के नाम पर खर्च की जा चुकी है। भ्रष्‍टाचार का दूसरा स्मारक विक्टोरिया मार्किट है, उसे भी एक दशक से ज्यादा का समय होने को आया है। शहर में विकास की ये गति बताती है कि यहां की जनता कितनी भद्र और जन प्रतिनिधि कितने गांधीवादी हैं?

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