सुरेश हिन्दुस्थानी
लम्बे समय से हाशिए की ओर जा रही कांग्रेस पार्टी गुजरात चुनाव के लिए गठबंधन की तलाश करती हुई दिखाई दे रही है। यह सब राहुल गांधी के नेतृत्व क्षमताओं पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है। ऐसे में सवाल उठता है कि वर्तमान में कांग्रेस क्या इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसे तिनके का सहारा ढूढ़ना पड़ रहा है। राज्य स्तरीय छोटे राजनीतिक दलों की ओर कांग्रेस का इस प्रकार का झुकाव निश्चित ही कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को दर्शा रहा है। कुछ दिनों पूर्व कांग्रेस के भविष्य के मुखिया राहुल गांधी ने मंदिरों में जाकर कांग्रेस को वोट दिलाने के लिए प्रार्थनाएं कीं, लेकिन यह प्रार्थनाएं वरदान में परिवर्तित हो जाएंगी, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही होगी।
मंदिरों में राहुल गांधी का दर्शन करना संभवत: इस बात को ही उजागर करता दिखाई देता है कि कांग्रेस की अभी तक की छवि मुस्लिम परस्त की रही है। हम जानते हैं कि कांग्रेस नीत केन्द्र सरकार के संवैधानिक मुखिया डॉ. मनमोहन सिंह ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारत के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है। यानी कांग्रेस हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक कांग्रेस मानती रही है। राहुल गांधी के मंदिर जाने का कार्यक्रम भी शायद मुस्लिम परस्त छवि से निकलने का ही प्रयास है।
इसी प्रकार अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए कांग्रेस ने देश में वास्तविक आतंकवाद को झुठलाने की कोशिश भी की। इसके लिए कांग्रेस नेताओं ने भगवा आतंकवाद की परिभाषा को जन्म दे दिया। इसके तहत निर्दोष हिन्दुओं पर निर्दयतापूर्वक कार्रवाई को भी अंजाम दिया गया। लम्बे समय के बाद भी उन लोगों पर कोई आरोप सिद्ध नहीं होने के कारण उन्हें हाल ही में बरी किया गया। अब सवाल है कि यह सब कांग्रेस ने किसके इशारे पर किया। हिन्दुओं के लिए सर्वाधिक आस्था का केन्द्र माने जाने व्यक्तियों में से एक शंकराचार्य जी को केवल आरोपों के आधार पर सलाखों के पीछे ले जाया गया। जबकि देश में ईसाइयों द्वारा मतांतरण की कार्यवाही लगातार चलती रहीं। इन्हें क्यों नहीं रोका गया?
कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यही दिखाई देता है कि कांग्रेस को हिन्दू विरोधी छवि का खमियाजा भुगतना पड़ा है। कांग्रेस की अभी तक की पूरी राजनीति केवल मुस्लिम परस्त की रही है। लेकिन यह कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के पूरे मुसलमान कांग्रेस का साथ नहीं देते। उसके पीछे का मूल कारण यही माना जा रहा है कि कांग्रेस ने केवल मुसलमानों को डराने का ही काम किया। उन्हें आगे बढ़ाने के लिए कोई भी सरकारी नीति नहीं बनाई। इसी कारण आज भी मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। दूसरा सबसे बड़ा कारण यह भी है कि वर्तमान में देश की राजनीति में व्यापक परिवर्तन आया है। देश का हिन्दू समाज एकत्रित होने की ओर अग्रसर है। इसलिए कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मंदिरों में जाना प्रारंभ किया है।
आगामी गुजरात चुनाव के लिए वर्तमान स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक चुनौती है। क्योंकि जब से नरेन्द्र मोदी केन्द्र की राजनीति में उभर कर आए हैं, तब से गुजरात में भाजपा की जमीन खिसक रही है, इसे बचाए रखना ही भाजपा की चुनौती है। राजनीतिक दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो यह सर्वथा नजर आता है कि गुजरात में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन भाजपा के समक्ष अपनी यथा स्थिति को कायम रखने के लिए बहुत परिश्रम करने की चुनौती है। हालांकि यह चुनौती कांग्रेस ने पैदा की है, यह कहना ठीक नहीं होगा। क्योंकि वह तो स्वयं ही अपने उद्धार के लिए सहयोगी दलों की तलाश में है।
भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती इसलिए मानी जा सकती है कि लम्बे समय से गुजरात में भाजपा की सरकार स्थापित है। कांग्रेस हर बार की तरह ही इस बार भी जोर लगा रही है। पिछले कुछ महीनों में गुजरात में नए नेताओं के रूप में उभर कर आने वाले हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और निग्नेश मेवानी अब कांग्रेस की ओर समझौते की राजनीति के तहत हाथ बढ़ा रहे हैं। इससे ऐसा ही लगता है कि इन तीनों ने केवल भाजपा का विरोध करने को ही अपना आधार बनाया। तीनों भाजपा विरोधी नेता कांग्रेस के अशोक गहलोत और भरत भाई सोलंकी से वार्ता कर गठबंधन की गुंजाइश तलाश रहे हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं हैं कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की हालत बहुत कमजोर है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहारे अपने उत्थान का मार्ग बनाने का प्रयास करती हुई दिखाई दी। आज भी कांग्रेस के हालात जस के तस दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस को आज भी गठबंधन की तलाश है। प्रश्न यह आता है कि क्या कांग्रेस के नेताओं के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने स्तर पर पार्टी को जीत दिला पाने में समर्थ हो सकें। अभी की स्थिति तो यही प्रदर्शित कर रही है कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़कर सम्माजनक स्थिति में नहीं पहुंच सकती। कांग्रेस के नेता भी लम्बे समय से सत्ता से दूर रहने के कारण हताश होने लगे हैं। यही हताशा कांग्रेस के भविष्य पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह उपस्थित कर रही है।
कांग्रेस को लेकर एक और सबसे बड़ा सच यह भी है कि कांग्रेस अपने उत्थान के लिए गठबंधन करने का प्रयास कर रही है, लेकिन गठबंधन में शामिल होने वाले दल सशंकित हैं। यह दल तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में किए गए गठबंधन के प्रयोग और उसके बाद मिली करारी पराजय के कारण मंथन की मुद्रा में हैं। इन दोनों प्रदेशों में कांग्रेस ने हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे वाली उक्ति ही चरितार्थ की।
तमिलनाडु में जिस करुणानिधि की जीत पक्की मानी जा रही थी, उन्हें कांग्रेस के साथ रहने के कारण करारी हार का सामना करना पड़ा, इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के हालात भी ऐसे ही रहे। विधानसभा चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी सरकार बनाने का दावा कर रही थी, लेकिन कांग्रेस उसे भी ले डूबी। गुजरात के क्षेत्रीय दल भी इसी बात को लेकर भयभीत होंगे। कांग्रेस आज भले ही तिनके का सहारा ढूंढ़ रही हो, लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि तिनका भी डूब जाता है। यह भी सच है कि डूबते जहाज की सवारी कोई नहीं करना चाहता, लेकिन कांग्रेस ऐसे प्रयोगों को जन्म दे रही है।
क्षेत्रीय दलों के सामने मजबूरी यही है कि उनकी पूरी राजनीति ही भाजपा विरोध पर आधारित है, ऐसे में उन्हें तो केवल भाजपा विरोधी राजनीतिक दल को ही समर्थन देना है, दूसरा विकल्प उनके सामने नहीं है। इस प्रकार की राजनीति करना देश के लिए घातक ही कहा जाएगा, क्योंकि केवल विरोध करने के लिए ही विरोध करना किसी भी प्रकार से ठीक नहीं कहा जा सकता।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)