बात करीब सात साल पहले की है। ठीक ठीक तारीख यदि आपको चाहिए तो मामला अप्रैल 2010 का है। स्थान भोपाल का भारतीय वन प्रबंधन संस्थान। अवसर था संस्थान द्वारा आयोजित दीक्षांत समारोह का और मुख्य अतिथि थे उस समय के केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश। जैसा कि परंपरागत कन्वोकेशन समारोहों में होता है, जयराम रमेश को भी उस समारोह के लिए गाउन पहनाया गया था।
कार्यक्रम में बैठे बैठे जयराम रमेश, गरमी के कारण उस गाउन में पसीने पसीने हो गए और जब उनके बोलने की भारी आई तो उनका वह पसीना गुस्से में तब्दील होकर उबल पड़ा। उन्होंने अपना भाषण शुरू ही इस बात से किया कि ‘’मैं समझ नहीं पाता कि आजादी के 60 साल बाद भी हम इन बर्बर औपनिवेशिक परंपराओं से क्यों चिपके हुए हैं।‘’
जयराम रमेश ने सवाल उठाया था कि ‘’आखिर विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोह सामान्य वेशभूषा में क्यों नहीं हो सकते। इसके लिए मध्यकालीन पाश्चात्य चोगों को ढोने की क्या जरूरत है।‘’ ऐसा कहते हुए उन्होंने मंच पर ही अपना वह गाउन उतार फेंका था और बाद में मुख्य अतिथि के तौर पर पूरा भाषण अपनी सदाबहार कुर्ता पायजामा वाली भारतीय वेशभूषा में ही दिया। रमेश के इस कदम का सभागार में मौजूद छात्र छात्राओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया था।
इस घटना के दो महीने बाद ही जून 2010 में इंदौर में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में इंदौर की सांसद और वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी परंपरागत चोगा पहनने से इनकार कर दिया था। महाजन का कहना था कि यह भारतीय परंपरा के अनुरूप नहीं है। उन्होंने देवी अहिल्या विवि को सुझाव दिया था कि वह इस परंपरा को बदले और भारतीय पोशाक में दीक्षांत समारोह आयोजित करे।
इसके कुछ ही महीनों बाद ऐसा ही वाकया अगरतला में हुआ था जब सितंबर 2010 में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार ने त्रिपुरा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में परंपरागत चोगा पहनकर शामिल होने से इनकार कर दिया था। उस कार्यक्रम में बाकी लोग, जिनमें तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील और त्रिपुरा के राज्यपाल डी.वाय. पाटिल भी शामिल थे, परंपरागत गाउन पहनकर ही शामिल हुए थे। वहां खुद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने कहा था कि यह गाउन पहनकर भाषण देना बहुत असुविधाजनक है।
दीक्षांत समारोहों की परंपरागत वेशभूषा के इन ऐतिहासिक किस्सों के बीच एक घटना इसी साल 18 अप्रैल को भोपाल में घटी। इस दिन अटलबिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उच्च शिक्षा मंत्री जयभानसिंह पवैया सहित सभी अतिथि भारतीय वेशभूषा में थे। इतना ही नहीं, छात्र जहां सफेद कुर्ता पायजामा पहने, गले में पीले रंग का उत्तरीय डाले, सिर पर पंडित मदनमोहन मालवीय की स्टाइल वाली पगड़ी पहने नजर आए वहीं छात्राएं क्रीम रंग की साड़ी और केसरिया ब्लाउज में थीं। उसी दौरान पवैया ने संकेत दिए थे कि भविष्य में दीक्षांत समारोह का ड्रेस कोड बदला जाएगा।
और सात साल पहले गरमी और पसीने से हुई परेशानी के कारण जयराम रमेश ने झुंझलाकर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में औपनिवेशिक गाउन उतार फेंकने की जो पहल की थी, उसका परिणाम यह निकला है कि अब मध्यप्रदेश के सभी दीक्षांत समारोहों में यह औपनिवेशिक गाउन इतिहास की वस्तु बना दिया गया है।
मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों की समन्वय समिति ने बुधवार को अपनी बैठक में यह फैसला किया कि भविष्य में होने वाले दीक्षांत समारोहों में महिलाओं के लिए साड़ी और पुरुषों के लिए कुर्ता व पायजामा ही आधिकारिक पोशाक रहेगी। समिति ने समारोह में भाग लेने वाले मंच पर उपस्थित अतिथियों के अलावा उपाधि प्राप्त करने वाले छात्र छात्राओं की पोशाक के रंग भी तय कर दिए हैं।
एक लिहाज से इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए। इसे यदि विवाद का विषय न बनाया जाए तो यह बदलाव इस मायने में सुखद है कि यह वास्तव में एक औपनिवेशिक चोगे से मुक्त होने का अहसास दिलाता है। वह चोगा जो देश के शिक्षा संस्थानों ने आजादी के 70 साल बाद भी ओढ़ रखा है। मध्यप्रदेश की यह पहल अनुकरणीय है और देश के सभी विश्वविद्यालयों को दीक्षांत समारोहों में पहनी जाने वाली पोशाक के स्वरूप में बदलाव पर विचार करना चाहिए।
मध्यप्रदेश के इस फैसले की नुक्ताचीनी भी अवश्य होगी। इसमें तरह तरह के रंग और अर्थ ढूंढे जाएंगे। लेकिन कई विषय ऐसे होते हैं जिनका राजनीतिकरण न किया जाना समाज के हित में होता है। आखिर हम क्यों व कब तक उन गुलाम परंपराओं को ढोते रहेंगे जो हमारी संस्कृति का हिस्सा न होने के बावजूद हम पर लाद दी गई हैं।
मुझे बताया गया है कि स्नातक शब्द का आविर्भाव ही गुरुकुल में होने वाले एक विशिष्ट आयोजन से हुआ है। उस समय शिष्य के शिक्षापूर्ण कर लेने पर गुरु उसे एक विशिष्ट समारोह में स्नान कराकर उसकी शिक्षा पूर्ण होने की उद्घोषणा करता था। लेकिन धीरे धीरे हमारी ये सारी चीजें बदलती गईं और पता नहीं कब हमने ये काले चोगे धारण कर लिए।
आजादी के 70 साल बाद ही सही, हम यदि यह चोगे उतार फेंकने का उपक्रम कर रहे हैं तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। हमारे लिए यह अतिरिक्त प्रसन्नता का विषय इसलिए है कि इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश से हुई है। मुझे इस पूरे प्रसंग में बस एक ही बात जोड़नी है, वो ये कि दीक्षांत समारोह की पोशाक का काला चोगा तो हमने उतार फेंका, लेकिन समूची शिक्षा पद्धति पर जो काला चोगा पड़ा है उसे हम कब अलग करेंगे?