गिरीश उपाध्याय
कोविड महामारी के दूसरे भयावह चक्र के चलते आखिरकार यह फैसला कर लिया गया है कि इस बार दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं नहीं होंगी। 12 वीं कक्षा की परीक्षा के बारे में हालांकि अभी तक ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ है लेकिन हो सकता है दबाव बढ़ने पर उस बारे में भी ऐसा कोई फैसला हो जाए। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि इस तरह साल दर साल जनरल प्रमोशन देकर तैयार की जाने वाली पीढ़ी का भविष्य क्या? और न सिर्फ उस पीढ़ी का बल्कि एक राष्ट्र के रूप में हमारा भविष्य क्या?
परीक्षाएं सिर्फ एक कक्षा से दूसरी कक्षा में प्रमोट होने का जरिया ही नहीं हैं। वे छात्रों की प्रतिभा और योग्यता के प्रतिस्पर्धात्मक रूप से आकलन/मूल्यांकन का माध्यम भी हैं। जब आप जनरल प्रमोशन करते हैं तो उन छात्रों की मानसिकता पर बहुत गहरा असर होता है जो पूरे साल मनोयोग से पढ़ाई करके खुद को प्रतिस्पर्धात्मक रूप से अव्वल आने के लिए तैयार करते हैं। इनमें बड़ी संख्या में ऐसे छात्र होते हैं जिनमें आगे चलकर विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करने या देश और समाज के लिए उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करने की प्रतिभा के बीज छुपे होते हैं। जनरल प्रमोशन उन्हें कुंठित करता है और मानसिक रूप से प्रभावित भी। कई बार यह कुंठा छात्रों को अवसाद में ले जाती है जो और भी खतरनाक स्थिति है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर करें तो क्या करें? दरअसल कोविड काल के दौरान हमने वैसे तो कई मोर्चों पर रणनीति तैयार करने में अपनी असफलता का प्रदर्शन बखूबी किया है, लेकिन यहां मैं दो मोर्चों का खासतौर से जिक्र करना चाहूंगा। पहला मोर्चा स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं का है। इस क्षेत्र में हमारी क्या हालत है उसका अंदाजा इन दिनों मीडिया और सोशल मीडिया में आने वाली जानकारियों से आसानी से लगाया जा सकता है। कहने को अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन, दवा, वेंटिलेटर आदि की अनुपलब्धता को मौतों का कारण बताया जा रहा है, लेकिन कुल मिलाकर इन सारी मौतों का कारण हमारी बदइंतजामी है। समय रहते समुचित और प्रभावी प्रबंधन करने में हम पूरी तरह विफल रहे हैं। हजारों मौतें और लाखों लोगों की पीड़ा, सिर्फ और सिर्फ परिस्थति से सबक लेकर पर्याप्त एहतियाती कदम न उठा पाने का नतीजा है।
स्वास्थ्य और चिकित्सा की तरह ऐसा ही दूसरा क्षेत्र है शिक्षा का। जब कोविड का पहला दौर आया था तो लॉकडाउन के चलते तमाम स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए थे। ऐसा किया जाना जरूरी भी था क्योंकि ये वो जगहें हैं जहां सोशल डिस्टेंसिंग का पालन बहुत मुश्किल होता है। खासतौर से स्कूलों में, जहां बच्चों को आपस में घुलने मिलने से नहीं रोका जा सकता। कोविड के पहले दौर में स्कूल कॉलेज बंद होने का दौर जब लंबा खिंचा तो सारा ध्यान ई लर्निंग या डिस्टेंस लर्निंग पर केंद्रित किया गया।
अनुभव बताता है कि ई-कक्षा या ऑनलाइन डिजिटल कक्षाओं का वह प्रयोग न तो पूरी तरह कामयाब हो पाया और न ही प्रभावी। बाकी बातों को छोड़ भी दिया जाए तो उसने शिक्षा के क्षेत्र में भी एक वर्गभेद कायम किया। जिनके पास डिजिटल लर्निंग के संसाधन थे वे तो किसी तरह ऑनलाइन कक्षाओं से जुड़ गए लेकिन जो ये संसाधन नहीं जुटा सकते थे वे इससे वंचित ही रहे। वंचित रहने वाले छात्रों में सबसे ज्यादा संख्या उन बच्चों की थी जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे।
ये बच्चे गरीब और मध्यम वर्ग के थे और इनके माता पिता अपना पेट काटकर किसी तरह बच्चों की शिक्षा का खर्च उठा रहे थे। इन बच्चों के भविष्य पर कोविड की जो गाज गिरी उससे भारत का कितना नुकसान हुआ उसका आकलन तो भविष्य में ही हो सकेगा, जब कुछ सालों बाद कोविड काल के इन वर्षों के तुलनात्मक अध्ययन हमारे सामने होंगे। लेकिन इससे तो इनकार किया ही नहीं जा सकता कि इस परिस्थिति ने ऐसे बच्चों को शिक्षा से दूर करने का काम किया है।
जरूरत इस बात की थी कि इस एक साल में हम शिक्षा का ऐसा कोई वैकल्पिक तरीका खोज पाते जो सभी बच्चों के लिए सहज और समान रूप से प्रभावी होता। लेकिन वहां भी ट्रायल एंड एरर की मनोवृत्ति से ही काम लिया गया। जो समझ में आया वो प्रयोग कर लिया गया, बगैर यह सोचे कि इससे समूची शिक्षा प्रणाली और उसके साथ-साथ इस शैक्षिक स्थिति से निकलने वाले बच्चों की प्रतिभा, योग्यता और भविष्य पर क्या असर होगा।
बच्चों को जनरल प्रमोशन देना कमोबेश वैसा ही है जैसा मुफ्त अनाज देना। जो चीज मुफ्त में हासिल हो रही हो उसके लिए फिर मेहनत करने की प्रवृत्ति भी धीरे धीरे कम होती जाती है। उसी तरह एक बार छात्रों में यदि जनरल प्रमोशन की भावना घर कर जाए तो वे पढ़ाई पर परिश्रम करने के बजाय इसी भाव में रहने लग जाते हैं कि चलो बिना परीक्षा के ही अगली कक्षा में प्रमोशन तो मिल ही जाएगा।
सवाल यहां छात्रों की ऐसी मानसिकता को दोष देने का नहीं है। सवाल ये है कि कोरोना के चलते एक बार फिर परिस्थितियां विकट हो सकती हैं, यह मालूम होने के बाद भी, हमने शिक्षा पद्धति में छात्रों की योग्यता और प्रतिभा के मूल्यांकन का कोई वैकल्पिक मैकेनिज्म तैयार नहीं किया। और यही वजह है कि जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है, हम एक बार फिर जनरल प्रमोशन जैसे बहुत ही आसान और लोकप्रियतावादी, लेकिन घातक कदम को विकल्प के रूप में चुनने के लिए बाध्य हो गए हैं।
लेकिन क्या इससे समस्या का हल हो जाएगा? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 2021 वो साल है जिसमें हमने अपनी नई शिक्षा नीति की शुरुआत करने का फैसला किया है। तो क्या हम अपनी नई शिक्षा नीति की शुरुआत उस पीढ़ी के साथ करने जा रहे हैं जो कोविड महामारी के चलते न तो कक्षाओं में पहुंच सकी है और न ही जिसने अगली कक्षा में प्रोन्नत होने के लिए कोई परीक्षा पास की है। ऐसे में अंदाज लगाया जा सकता है कि हमारी नई शिक्षा नीति का आधार किस जमीन पर खड़ा होगा।
हमारे पास अब भी समय है। कोविड इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है। और कोविड न भी हो तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में इसके जैसी ही कोई और बीमारी पैदा नहीं होगी जो मानव समाज की दैनंदिन गतिविधियों को इस तरह बाधित करके रख दे। ऐसे में यह सोचना कि समाज को एक डिबिया में बंद करके उसे आगे ले जाया जा सकता है, बुद्धिमानी नहीं होगी। इसके लिए हमें स्थायी और प्रभावी विकल्प खोजना होंगे। क्लास रूम शिक्षा से लेकर परीक्षा प्रणाली तक के विकल्प। दौड़ में सभी को पहला पुरस्कार दे देना पॉपुलिस्टिक कदम तो हो सकता है, लेकिन वह समाज से प्रतिस्पर्धा के भाव को खत्म करता है। समाज के जीवित रहने और जीवित रहने के साथ-साथ उसके सक्षम, सबल और आत्मनिर्भर बनने के लिए जरूरी है कि परीक्षा जैसी कसौटियां किसी न किसी रूप में जरूर जिंदा रहें। (मध्यमत)
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