हालांकि ये दिन परीक्षाओं के परिणाम आने के दिन हैं, लेकिन पता नहीं क्यों,‘परिणाम’ के इन दिनों में मेरा मन फिर से ‘परीक्षा’ पर ही बात करने को हो रहा है। घबराइए मत, मैं वैसी कोई परीक्षा नहीं लेने वाला जैसी मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के किसानों ने सरकार की ली थी या यूं कहें कि जैसी परीक्षा आजादी के बाद से सारी सरकारें किसान की लेती आ रही हैं।
मेरा तो दुर्भाग्य यह है कि नदी छोडि़ए, मैं किसी पोखर तक के किनारे नहीं पढ़ा और न ही किसी खेत की मुंडेर पर बैठकर जल, जंगल या जमीन पर चिंतन करता बड़ा हुआ। पढ़ाई में भी लैपटॉप या मोबाइल हासिल करने लायक स्थिति कभी नहीं बन पाई। मुझ जैसा विद्यार्थी चाहे जितनी कोशिश कर ले, वह कोई कठिन या उलझाने वाला सवाल पूछ ही नहीं सकता, इसलिए आप आश्वस्त रहें…
हम लोग तो उस श्रेणी में आते हैं जिन्होंने गाय को भी निबंध से जाना और पोस्टमेन को भी, खेत को भी उसी तरीके से समझा और चांदनी रात में नौका विहार को भी… इसलिए आज मेरा बाल-मन, परीक्षाओं के उसी बाल्यकाल को याद करते हुए ‘मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन’ पर एक निबंध लिखने का हो रहा है। आमतौर पर ऐसे विषयों के बारे में बचपन में माट्साब लोग कुछ सूत्र दिया करते थे। आज सोचता हूं कि कितने भविष्यदृष्टा रहे होंगे वे शिक्षक, जिनकी बातें पचास-पचपन साल बीतने के बाद भी ज्यों की त्यों उपयोग में लाने लायक हैं।
बचपन में सिखाया गया था कि जब भी ऐसे विषयों पर निबंध लिखना हो तो उसे अलग अलग भागों में बांट दो और फिर हर भाग पर एक-एक पैरा लिख डालो, बस हो गया निबंध पूरा… और इन भागों में भी कुछ भाग सार्वकालिक और सर्वमान्य हुआ करते थे, जैसे किसी बात का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक महत्व। सुविधा यह कि आप विषयानुसार, महत्व की इन श्रेणियों को आगे पीछे कर सकते हैं।
तो चलिए इन्हीं श्रेणियों के अंतर्गत आज हम भी मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन पर निबंध लिखते हैं।
धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष- किसान आंदोलन का धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष सबसे पहले इसलिए देखा जाना चाहिए क्योंकि इसीके कारण समस्या का समाधान(?) हो सका। दरअसल उपवास का हमारे पौराणिक आख्यानों से लेकर आधुनिक योग जगत तक में बहुत महत्व है। कहा जाता है कि उपवास से तन और मन दोनों शांत रखने में मदद मिलती है। आधुनिक भारत में यह तरीका गांधीजी के खाते में डाल देने का चलन है जो उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उपवास तो वैदिक काल से ही चला आ रहा है। हमारे देवता तो उपवास से ही प्रसन्न होते आए हैं। तभी तो प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि निराहार रहकर घने जंगलों या गुफाओं में तपस्या किया करते थे। बरसों बरस की तपस्या से प्रसन्न होकर आखिरकार देवता प्रकट होते और साधक से वर मांगने को कहते। साधक के वर मांगते ही वे तथास्तु कहकर अंतर्धान हो जाते। मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन में भी हमारी यही सनातन उपवास परंपरा काम आई। देवता आए और साधक को अभय का वरदान देकर चले गए।
सामाजिक पक्ष- आंदोलन के दौरान और आंदोलन के बाद पैदा हुई स्थितियां स्पष्ट बता रही हैं कि इसने शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच ही नहीं बल्कि गांवों में मिलजुलकर रहने वाले किसानों और व्यापारियों के बीच भी बड़ी खाई पैदा की है। शोषित वर्ग का दायरा तो ज्यादा नहीं बढ़ा, लेकिन शोषक वर्ग का दायरा बहुत अधिक बढ़ गया है। यही कारण रहा कि इन ‘शोषकों’ को सबक सिखाने के लिए, उनकी सुख सुविधाओं में खलल पैदा करने के लिए, फलों, सब्जियों और दूध जैसी वस्तुओं को भी बजाय किसी जरूरतमंद को देने के सड़कों पर नष्ट कर दिया गया।
आर्थिक पक्ष- आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिवारों को मुआवजे से लेकर उपवास स्थल के इंतजाम पर खर्च होने वाली राशि की बात छोड़ भी दें, तो भी अभी इस बात का आकलन होना बाकी है कि प्रदेश को इस आंदोलन से कुल कितना आर्थिक नुकसान हुआ। यह नुकसान अंतत: सरकारी खजाने पर भारी पड़ेगा और खजाने का बोझ कम करने के लिए उसी जनता की जेब काटी जाएगी जिसने इस आंदोलन का खमियाजा उठाया है। दंगों में जलाई गई या नष्ट हुई संपत्ति के मुआवजे और हिंसक घटनाओं के कारण अपनी रोजी रोटी के संसाधन खो देने वालों के कष्ट तो पता नहीं कब दूर हो पाएंगे। रही बात किसानों की, तो उनसे ही पूछना पड़ेगा कि वे इतना कुछ करके भी कुछ हासिल कर पाए या नहीं?
राजनीतिक पक्ष- मेरे हिसाब से आंदोलन का यह पक्ष सबसे ज्यादा मजबूत रहा। बात राजनीति से शुरू हुई थी और राजनीति पर ही खत्म हुई या यूं कहें कि राजनीति से शुरू होकर राजनीति पर ही चल पड़ी है। आप भले ही सहमत हों या न हों लेकिन मेरा तो मानना है भई कि इस पूरे प्रसंग में अपने शिवराजसिंह और अधिक मजबूत होकर उभरे हैं। वैसे भाजपा के ही लोग मानकर चल रहे थे कि अब तो शिवराज निपट ही जाएंगे। लेकिन आलाकमान ने पूरी ताकत से शिवराज के साथ खड़े होकर ऐसे सारे लोगों को संदेश भिजवा दिया कि अभी तो ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा। यकीन न हो तो यूं ही सोचकर देखिएगा कि यदि आलाकमान का इशारा नहीं होता, तो क्या उपवास के मंच पर मौजूद वे तमाम सारे ‘दिग्गज’ यूं ‘एकजुट’ होकर शिवराज का गुणगान करते हुए, उनसे उपवास समाप्ति की ऐसी चिरौरी करते दिखाई देते?
निष्कर्ष- आंदोलन कोई भी हो, वह हमारे सनातन धर्म की उस अमरवाणी की तरह है जो कहती है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर चाहे वह सामान्य मृत्यु हो या अकाल मृत्यु… अब तय आपको करना है कि यह आंदोलन कैसे मरा? या मरा भी है या नहीं…
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इस घटिया निबंध लेखन के लिए पाठकों से क्षमायाचना सहित…