चूंकि यह समय अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के साथ साथ संजय लीला भंसाली पर वाद-विवाद और बहस का है इसलिये स्वाभाविक है कि इस समय में गांधी को याद करने वाले मूर्ख ही कहलाएंगे। शायद यही कारण था कि 30 जनवरी यानी गांधी के शहादत दिवस पर भी वाट्सएप के संदेश गांधी के बजाय खिलजी-पद्मावती प्रसंग पर हो रही नई लीला से ही भरे पड़े थे।
ऐसा नहीं है कि देश गांधी को भूल गया है। जरा याददाश्त पर जोर डालें तो शायद आपको याद आ जाए कि बमुश्किल महीना भर पहले गांधी इस देश में चर्चा में आए थे। मामला एक डायरी और कैलेंडर से जुड़ा था। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की डायरी और कैलेंडर पर चरखे के साथ गांधी के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोटो छपा था और पूरे देश में सरकार की नीति और नीयत को लेकर बवाल मचा था।
याद कीजिये, उस समय क्या-क्या नहीं कहा गया था। गांधी को या तो नोट पर छपने वाले फोटो के जरिये या फिर सिर्फ उनके नाम से पहचानने वालों ने कहा था कि यह मोदी और उनकी सरकार की, गांधी और चरखे को हाईजैक करने की कोशिश है। दूसरी तरफ से जवाब आया था कि चरखा या खादी किसी की बपौती नहीं है, गांधी की भी नहीं। चरखा गांधी से पहले भी था। उलटे मोदी ने तो चरखा चलाकर खादी की कीमत बढ़ा दी।
अभी चंद दिनों पहले की ही तो हैं ये सारी बातें जब गांधीवादी और प्रतिगांधीवादी आमने-सामने एक दूसरे को चुनौती देते हुए खुद को ज्यादा गांधीवादी-खादीवादी साबित करने पर तुले थे। लेकिन सोमवार 30 जनवरी 2017 को, जिस दिन गांधी को याद करना बनता है, उस दिन ऐसे सारे मोर्चों पर या तो खामोशी पसरी रही या फिर कुछ औपचारिकताएं भर निभा दी गईं।
मुझे याद आता है वो समय जब इस तारीख को पूरे देश में सुबह 11 बजे सायरन बजता था और गांधी को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनिट का मौन रखा जाता था। वह सायरन कम से कम याद तो दिला देता था कि आज गांधी की पुण्यतिथि है। लेकिन अब विवाद ही याद दिलाते हैं कि देश में गांधी नाम का भी कोई शख्स हुआ था।
हमारे यहां महापुरुषों की जयंती या पुण्यतिथि पर उनके चित्रों व प्रतिमाओं पर फूलमालाएं चढ़ाने का चलन है। इसे अब बस रस्मी तौर पर निभा लिया जाता है। गांधी किसी आदर्श या विचार का केंद्र नहीं बल्कि आरोप-प्रत्यारोप और एक दूसरे को ऊंचा-नीचा दिखाने का माध्यम भर रह गये हैं।
ऐसा ही एक प्रसंग राजधानी भोपाल में सोमवार को सामने आया। मुझे बताया गया कि गांधी प्रतिमा पर माल्यार्पण की रस्म निभाने कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेता एकत्र हुए। कांग्रेस का दल पहले आया और उसने मूर्ति पर माल्यार्पण कर दिया। बाद में भाजपा के नेता सदल बल वहां पहुंचे और उन्होंने भी गांधी प्रतिमा को हार पहनाकर श्रद्धांजलि अर्पित की।
हार चढ़ाने की रस्म चल ही रही थी कि अचानक राजनीतिक लहर उठी और कांग्रेस के नेताओं ने मूर्ति के आसपास बिखरी पड़ी रेत और मिट्टी की ओर इशारा करते हुए उलाहना दिया कि निगम को आज के दिन भी गांधी प्रतिमा के आसपास साफ सफाई करवाने की सुध नहीं आई। इस पर बहस होने लगी। इसी बीच भाजपा नेताओं ने फोन करके झाड़ू बुलवा लिये और खुद ही प्रतिमा के आसपास झाड़ू लगाकर सफाई कर दी। उनके इस गांधीवादी रवैये ने कांग्रेस नेताओं को निरुत्तर कर दिया।
लेकिन इस घटना ने फिर साबित कर दिया कि गांधी अब सिर्फ और सिर्फ राजनीति का मोहरा भर रह गये हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो गांधी प्रतिमा के आसपास गंदगी का उलाहना देने के बजाय क्या यह काम खुद नहीं किया जा सकता था? जो काम भाजपा के लोगों ने किया वही काम यदि कांग्रेस की तरफ से हो जाता तो बात का भी वजन पड़ता और काम का भी। लेकिन बेचारे गांधी भी क्या करें। जिस पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा परवाह करनी चाहिये, वहां भी गांधी से ज्यादा तो आज गोडसे का नाम लिया जा रहा है, अपने विरोधियों को गाली देने के लिए।
यह घटना बताती है कि चाहे कोई भी दल हो। गांधी को याद करना या गांधी की बात करना अब केवल जबानी जमाखर्च भर रह गया है। वर्तमान सरकार ने केंद्र में सत्ता संभालने के बाद गांधी को याद करते हुए ‘स्वच्छता अभियान’ के रूप में देश में बहुत बड़ी मुहिम छेड़ी थी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अभियान का आगाज किया था। अभियान के तहत देश के कई हिस्सों में भाजपा नेताओं से लेकर फिल्मी कलाकारों तक ने हाथ में झाड़ू लेकर अपने फोटो सेशन करवाए। कई महीनों तक हाथ में झाड़ू लेना एक फोटो अपॉर्च्यूनिटी बना रहा। साफ सुथरी जगह पर झाड़ू लगाते कई चेहरे अखबारों, टीवी और सोशल मीडिया पर वायरल होते रहे।
लेकिन वह उबाल अब ठंडा पड़ गया है। कचरे और गंदगी के ढेर अब भी कायम हैं। गांधी के नाम से शुरू हुई साफ सफाई गांधी को ही साफ करने की दिशा में आगे बढ़ चली है।
ऐसे में गांधी की पुण्यतिथि पर दिखावे के लिए दो मिनिट का मौन रखने के बजाय क्यों न गांधी के नाम पर आजीवन मौन रहने का ही संकल्प ले लिया जाए…