यूं तो मध्यप्रदेश कहने को दो दलीय राजनीति वाला प्रदेश है और यहां पिछले कई दशकों से मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता आया है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि चुनाव के दौरान ये दल कुल मतदान का आधा आधा बांट लेते हों। भले ही मध्यप्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कोई तीसरी शक्ति या मोर्चा न हो लेकिन छोटी मोटी स्थानीय या क्षेत्रीय ताकतें भी हमेशा से वोट में सेंधमारी करती रही हैं। खासतौर से बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद।
बसपा के अलावा राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों खासतौर से महाकौशल क्षेत्र में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही है। कुछ सालों से समाजवादी पार्टी ने भी यहां अपनी जमीन खोजने की कोशिश की है। बसपा और सपा का प्रभाव मध्यप्रदेश के उन इलाकों में ज्यादा है जो उत्तरप्रदेश की सीमा से लगते हैं। और यह पट्टी ग्वालियर चंबल इलाके से लेकर विंध्य तक फैली हुई है।
पिछले चुनावों की बात करें तो 2008 में भाजपा ने 37.64 फीसदी और 2013 में 44.87 फीसदी वोट हासिल किए थे। जबकि इन चुनावों में कांग्रेस को क्रमश: 32.39 और 36.38 प्रतिशत वोट मिले थे। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा अन्य दलों व निर्दलियों ने 2008 में 29.97 फीसदी और 2013 में 18.75 फीसदी वोट तोड़ लिए थे।
2003, 2008 और 2013 में सरकार भले ही भाजपा की बनी हो लेकिन उसके और कांग्रेस के बीच वोटों के अंतर में अप्रत्याशित उतार चढ़ाव आता रहा है। 2003 में जहां भाजपा ने कांग्रेस की तुलना में 10.89 फीसदी वोट ज्यादा हासिल किए थे, वहीं 2008 में दोनों के बीच वोटों का अंतर घटकर 5.25 ही रह गया था। 2013 में भाजपा ने फिर जोर मारा और इस अंतर को अपने पक्ष में 8.49 तक बढ़ा लिया।
इससे पहले 1998 का चुनाव भी बहुत कांटे का रहा था। उस समय भाजपा अपनी जीत को लेकर इतनी आश्वस्त थी कि उसके नेताओं ने चुनाव नतीजे आने से पहले ही अपनी सरकार का खाका बनाना शुरू कर दिया था। लेकिन ऐन वक्त पर बाजी उलट गई और तमाम विपरीत कयासों के बावजूद दिग्विजयसिंह को फिर से सरकार बनाने का मौका मिल गया। 1998 के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से सिर्फ 1.6 फीसदी ज्यादा वोट लेकर अपनी सरकार बना ली थी।
ये आंकड़े मैंने इसलिए दिए ताकि यह समझा जा सके कि मध्यप्रदेश की जनता की तासीर क्या है और किस तरह वह चुनाव में अप्रत्याशित रुख भी अपनाती रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह 1998 में 1.6 फीसदी ज्यादा वोट देकर कांग्रेस को जिताने के बाद अगले चुनाव में 10.89 फीसदी वोटों की भारी भरकम सौगात भाजपा की झोली में डालकर उसकी सरकार नहीं बनवाती।
दूसरी ओर भाजपा भले ही पिछले 15 सालों से प्रदेश में राज कर रही हो लेकिन 2008 में जनता ने उसे सिर्फ 5.25 फीसदी का बहुमत देकर ही सत्ता तक पहुंचाया। 2013 के चुनाव में तो फिर भी व्यापमं जैसा मुद्दा था लेकिन 2008 तो वो समय था जब मध्यप्रदेश में सिर्फ राज्य की ही नहीं देश की अनूठी लाड़ली लक्ष्मी योजना लागू की जा चुकी थी और सरकार के खिलाफ वैसी कोई एन्टीइन्कंबेंसी भी नहीं थी।
इसका मतलब यह है कि भाजपा शासनकाल में भी जनता के मूड में खासा उतार चढ़ाव आता रहा है। और यह उतार चढ़ाव मतदान के दौरान राजनीतिक दलों को मिलने वाले वोटों में दिखता भी रहा है। पिछले 15 सालों में एक बात और देखने को मिली है, वो ये कि इस दौरान भाजपा ने जहां अपना कार्यकर्ता और वोट बेस दोनों बढ़ाने की कोशिश की है वहीं कांग्रेस इन दोनों मोर्चों पर कुछ खास नहीं कर पाई। उसकी उम्मीद हमेशा से इस बात पर टिकी रही है कि लोग ही भाजपा को हराएंगे और चूंकि मध्यप्रदेश में भाजपा का विकल्प कांग्रेस ही है इसलिए स्वाभाविक रूप से जब जनता का गुस्सा फूटेगा तो सत्ता का फल उसकी ही झोली में आकर गिरेगा।
इस बार भी कांग्रेस की उम्मीदें खुद के पुरुषार्थ पर कम और जनता के गुस्से पर ज्यादा टिकी हुई हैं। उसके नेता कहते भी रहे हैं कि यह चुनाव भाजपा और जनता के बीच है। इस बार सरकार से हम नहीं, जनता लड़ रही है। यही कारण रहा कि इस चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा ही नहीं था, मुद्दा था तो बस यही कि जनता कथित रूप से बदलाव चाहती है।
लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे जैसे चुनाव परवान चढ़ा और भाजपा को लगा कि एंटी इन्कंबेंसी की बात जरूरत से ज्यादा ही हवा बिगाड़ रही है तो उसने अपने मैदानी तंत्र पर ध्यान दिया। मुझे लगता है कि तमाम विपरीतताओं के बावजूद शिवराजसिंह यदि यह दावा कर पा रहे हैं कि चौथी बार भी सरकार भाजपा की ही बनेगी तो उसके पीछे पार्टी का अपनी संगठन क्षमता और पुख्ता चुनावी रणनीति पर भरोसा ही है।
यह बात अलग है कि उसे इस भरोसे का फल कितना और कैसा मिलता है। यहां मेरा एक और मानना है कि चुनाव में वोट पाने के लिहाज से भाजपा अपनी अधिकतम क्षमता तक पहुंच चुकी है। उसने पिछली बार यानी 2013 में जो 44.87 फीसदी वोट हासिल किए थे वह एक तरह से उसका चरम है। भाजपा को संभवत: यह अहसास भी अच्छी तरह से हो गया है कि पिछली बार जैसा प्रदर्शन वह शायद ही कर पाए। लिहाजा उसे तो अब और ऊपर जाने के बजाय अपने ऊंट को पहाड़ पर बनाए रखने की लड़ाई ही लड़नी है। शायद यही कारण है कि ‘अबकी बार 200 पार’ जैसे नारे के साथ शुरू हुआ भाजपा का चुनावी अभियान 140 सीटों के दावे तक सिमट आया है। आश्चर्य इस बात का है कि इतनी ही सीटों का दावा कांग्रेस भी कर रही है…!!!