डॉ. अजय खेमरिया
क्या भारत में 70 साल बाद भी उच्च शिक्षा केवल अमीरों और मेट्रोपोलिटन शहरियों के लिए खड़ी हुई है? किसी छोटे, मझोले शहर का कोई संस्थान आज तक अपनी पहचान क्यों नही कायम कर पाया यह सवाल सहज उठाया ही जाना चाहिए। बीएचयू, जेएनयू, जेमयू, जाधवपुर, हैदराबाद, मणिपाल, कोलकोता विश्वविद्यालय। मिरांडा हाउस, लेडी श्रीराम, सेंट स्टीफन, हंसराज, प्रेजीडेंसी, लोयोलो सरीखे कॉलेजों में समानता यही है कि ये संस्थान दिल्ली, चैन्नई, कोलकाता जैसे महानगरों में है और आम भारतीय इन्हें इलीट प्रोपर्टी (केवल अभिजात्य के लिए) मानता है।
कमोबेश आईआईटीज, आईआईएम और राष्ट्रीय महत्व के अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों का भी एक एलीट परकोटा कायम हो गया है। मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन जारी इन संस्थानों की ताजा रैंकिंग में मप्र, यूपी, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, हरियाणा, झारखंड जैसे राज्यों का एक भी उच्च शिक्षण संस्थान शामिल नही है। संयोग से केंद्र प्रशासित सभी संस्थान अपनी कतिपय गुणवत्ता और नवाचार के प्रतिमान स्थापित कर इस रैंकिंग में हर वर्ष प्रतिस्पर्धा करते हैं। यह दीगर बात है कि अलग अलग वैश्विक रैंकिंगो में हमारे संस्थान प्रथम 200 में भी अक्सर गायब रहते है।
इस ताजा रैंकिंग के नतीजे सहज सवाल भी खड़ा करते है। क्या भारत में उच्च शिक्षा के मौजूदा ढांचे ने एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है जिसमें आम गरीब,एवं निम्न मध्यमवर्गीय तबके को कोई जगह नही है? केंद्र की सरकार चंद संस्थानों को चमका कर उच्च शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामले से अपनी भूमिका को चतुराई से समेटती रही है। 1976 में शिक्षा के समवर्ती सूची में आते ही राज्यों ने भी सही मायनों में अपने हाथ खींच लिए है।
देश भर के आईआईटीज की 12362, आईआईएम में 13265, बीएचयू में 12 हजार, दिल्ली विवि में 62 हजार, जेएनयू की 2599 कुल मिलाकर सभी टॉप रैंकिंग वाले संस्थान की उपलब्ध सीट्स जोड़ ली जाए तो यह आंकड़ा 3 लाख के आसपास है। देश में उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन कराने वाले छात्रों की मौजूदा संख्या 3.73 करोड़ है। यानी जिस चमकदार भारत की चर्चा होती है, उसका अनुपात कुल नामांकित आंकड़े का दस फीसदी भी नहीं है।
सवाल यह भी है कि बिहार, यूपी के गांव कस्बों में बीए, बीएससी के नामांकन, अभियान चलाकर कराये जाते हैं और जेएनयू में औसत एक सीट के लिए 36 बच्चों में गलाकाट स्पर्धा होती है। आईआईएम अहमदाबाद में प्रवेश के लिए 99 परसेंटाइल और दसवीं बारहवीं में भी यही ट्रेक रिकॉर्ड चाहिए होता है, लेकिन देश के अन्य संस्थानों में बगैर पात्रता परीक्षा के ही बिजनेस की डिग्रियां मिल रही हैं। समझा जा सकता है कि अपने ही देश में अपने ही लोगों के लिए किस दोयम दर्जे की नीतियों का निर्माण हमने 70 साल में किया है।
मौजूदा सरकार के 6 साल में यूजीसी के फंडिंग पैटर्न में बदलाव नहीं आया है। यह अपने बजट का 65 फीसदी केंद्रीय औऱ 35 फीसदी राज्यों के विश्वविद्यालय पर खर्च करता है। देश के कुल 993 में से केवल 49 ही केंद्रीय विवि हैं और 412 राज्यों के विश्वविद्यालय हैं। 356 निजी एव शेष डीम्ड यूनिवर्सिटी इस सूची में शामिल हैं। सवाल फिर उसी भेदभावपूर्ण नीयत का है जो राज्य और केंद्र के बीच नागरिकों को बांटती है।
यह तथ्य है कि राज्य अपने नागरिकों को नकली अस्मिता के जाल में फँसाते रहे हैं, उनकी राजकीय व्यवस्था उच्च शिक्षा के मामले में बुरी तरह फेल रही है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ चंद केंद्रीय संस्थानों के जरिये ‘आत्मनिर्भर’ भारत और स्किल इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी मिशन पूरे किए जा सकेंगे? देश के 39931 कॉलेजों में पढ़ने वाले 3 करोड़ 73 लाख से ज्यादा बच्चों को हुनरमन्द (स्किल्ड) या शोध प्रवीण बनाये बिना भारत की चमकदार कहानियां कभी टिकाऊ नहीं हो सकती हैं।
रिसर्च फर्म नेसकॉम और मेकिंसे कहती हैं कि भारत के 10 मानविकी स्नातक और 04 स्नातक यंत्री में से मात्र एक ही नियोजन के योग्य होते हैं। इसे इस सरल अर्थ में भी समझा जा सकता है कि दस में से जिस एक बीए पास को नौकरी मिलती है वह जेएनयू, बीएचयू, एएमयू, जेएमयू का स्नातक है और शेष यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्यों के विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त भारतीय। हमारे यहां स्कूल में पढ़ने वाले हर 9 में से एक विद्यार्थी ही कॉलेज की दहलीज पर पहुँच पाता है इन 70 सालों में। जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 83 और चीन में 73 है।
मौजूदा सकल नामांकन अनुपात 11 फीसदी है जो दुनिया में सबसे कम है और इसे 15 फीसदी तक ले जाने के लिये 226410 करोड़ के धन की आवश्यकता है, लेकिन मौजूदा वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार ने 38317 करोड़ ही आवंटित किये हैं। जिसमें यूजीसी को केवल 4600 करोड़ मिलने हैं।
एसोचैम के एक अध्ययन में बताया गया है कि करीब 1500 नए विश्वविद्यालय खोलने की भी आवश्यकता है क्योंकि अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरा बड़ा उच्च शिक्षा संभाव्य क्षेत्र है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार प्रति वर्ष 43 हजार करोड़ रुपये खर्च कर हमारे युवा विदेशों में जाकर डिग्रियां हासिल करते हैं। 2024 तक ऐसे छात्रों की संख्या 4 लाख और व्यय दोगुना होने का अनुमान व्यक्त किया गया है। जाहिर है जितना धन हम देश भर में उच्च शिक्षा पर लगाते हैं उससे अधिक तो विदेशों में हमारे धनी मानी परिवार गंवा रहे हैं।
इसे इस प्रेक्टिकल नजरिये से भी समझने की जरूरत है कि देश में दो वर्गों के बच्चे ही उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं पहले वे चंद लोग जिन्हें सरकार सामाजिक न्याय के बहाने पढ़ाना चाहती है और दूसरे धनी परिवार के लोग। ऐसे कुल विधार्थियों की संख्या देश के उपलब्ध युवाओं की एक फीसदी भी नहीं है। खुद सरकार का मानना है कि 2030 तक कॉलेजों में 30 करोड़ नामांकन होंगे ऐसी स्थिति में क्या हमारी अधोसरंचना इस भार को वहन कर पायेगी?
सरकार की रैंकिंग में भले ही केंद्रीय संस्थानों का दबदबा हो लेकिन जमीनी सच्चाई वहां भी खस्ता हाल है। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल ने बीते लोकसभा सत्र में स्वीकार किया है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्वीकृत 18243 शिक्षकीय पदों में से 6688 एवं गैर शैक्षणिक के 34928 में से 12323 पद खाली पड़े हुए हैं। राज्यों के विश्वविद्यालयों में औसतन 45 फीसदी शिक्षकीय पद एक तरह से रिक्त हैं। कुलपतियों के पद राज्य सरकारों के रहमोकरम पर निर्भर हो गए हैं।सरकार बदलते ही राज्यों में कुलपतियों के स्तीफे शुरू हो जाते है।
राजनीति और अफ़सरशाही की जकड़ में फंसे राज्यों के विश्वविद्यालय ठोस परिणामोन्मुखी कार्ययोजना और दृढ़ इच्छाशक्ति के बगैर पटरी पर नहीं आ सकते हैं। जब तक राज्यों के विवि उन्नत और गुणवत्तापूर्ण नही होंगे, उच्च शिक्षा का मौजूदा भेदजनक चरित्र भारत में एक तरह के वर्गीय अलगाव को बढ़ाता रहेगा। राष्ट्रीय प्रत्यायन एवं मूल्यांकन परिषद (नेक) के अनुसार 65 फीसदी विवि और 80 फीसदी कॉलेज उसके पैरामीटर पर नाकाम साबित हुए हैं। जाहिर है ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ या ‘सबका साथ, सबका विकास’ तभी सार्थक है जब उच्च शिक्षा का एक समावेशी ढांचा देश के अंदर आम सहमति से विकसित किया जाए।
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टीम मध्यमत