दिल्ली के किशोर न्यायालय का हाल ही में आया एक फैसला बदलते भारत की न्याय व्यवस्था में मील का पत्थर कहा जा सकता है। न्यायालय ने आदेश दिया है कि पिछले दिनों एक मर्सीडीज गाड़ी की टक्कर से हुई युवक की मौत के मामले में, गाड़ी चला रहे नाबालिग पर, आपराधिक मुकदमा उसे बालिग मानते हुए ही चलेगा।
किशोर न्यायालय के मजिस्ट्रेट विशाल सिंह ने कहा कि- घटना के वक्त और उसके बाद नाबालिग आरोपी का बर्ताव बताता है कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों से पूरी तरह वाकिफ था। घटनास्थल पर मिले सबूतों से साफ नजर आता है कि आरोपी दूसरों की जिंदगी, उनकी सुरक्षा को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं था। घटना के दिन भी उसमें अपराध के नतीजों को समझ सकने की काबिलियत थी।
कुछ दिन पहले हमने इसी कॉलम में लिखा था कि ऐसे मामलों में यदि अपराध करने वाला नाबालिग है,तो उसके माता-पिता की आपराधिक जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। अब दिल्ली के किशोर न्यायालय ने जो नजीर पेश की है, वह आने वाले दिनों में लापरवाही से चलाए गए वाहनों से होने वाली दुर्घटनाओं में नाबालिगों की भी आपराधिक जिम्मेदारी तय करेगी। उन्हें भी आरोप सिद्ध होने पर गैर इरादतन हत्या या लापरवाही के कारण मौत जैसे अपराधों में सजा दी जा सकेगी। इस फैसले से माता पिता पर भी मनोवैज्ञानिक दबाव बनेगा और जो लोग अब तक बच्चे के नाबालिग होने के कारण, उसे मिलने वाली सजा से छूट को लेकर निश्चिंत भाव में रहते थे, वे अब बच्चे के भविष्य को लेकर थोड़ी चिंता तो जरूर करेंगे। संभव है यह चिंता बड़ी बड़ी गाडि़यां बच्चों या किशोरों के हाथ लग जाने वाली घटनाओं पर थोड़ी रोक लगवाए और इसी बहाने सड़क दुर्घटनाओं में थोड़ी कमी आए।
हालांकि कानून या सजा कभी भी अपराधों को रोकने में कामयाब नहीं रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि कानून या सजा के डर से लोग साधु जीवन जीने लगते हों। यदि समाज है तो अपराध भी होंगे। हां इतना जरूर है कि नियम, कानून, कायदे लोगों में एक डर पैदा करते हैं। यह डर अपराध हो जाने पर मिलने वाली सजा का भी होता है और अपराध से जुड़ी बदनामी का भी। मां बाप को अपनी बदनामी और बच्चे के कॅरियर का डर अब थोड़ा तो जरूर रहेगा।
दरअसल देश में सड़क दुर्घटनाओं का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। परिवहन मंत्रालय द्वारा जारी वर्ष 2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश में साल भर में सड़क दुर्घटनाओं में करीब एक लाख 40 हजार लोग मारे गए। जबकि दुर्घटनाओं में घायल होने वालो की संख्या करीब पांच लाख है। यहां हमें याद रखना होगा कि इन हादसों में केवल लोगों के मरने या घायल होने का ही सवाल नहीं है। ये हमारी आर्थिक प्रगति को भी बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। फिर चाहे वह मृतकों के परिवार के भरण पोषण का मामला हो या दुर्घटनाओं में अंग गंवा बैठने वाले लोगों के बचे हुए जीवन को संभालने का।
इसी सिलसिले में एक चौंकाने वाला आंकड़ा देखिए। इसके अनुसार वर्ष 2014 में लर्निंग लायसेंस के आधार पर वाहन चलाने वालों के हाथों, करीब 51 हजार दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 8347 लोग मारे गए। और इससे भी ज्यादा चिंता में डालने वाला आंकड़ा बगैर किसी लायसेंस के गाड़ी चलाने वालों का है। बिना लायसेंस सड़कों पर गाड़ी लेकर निकलने वालों के हाथों 39 हजार 314 दुर्घटनाएं हुईं जिनमें 7573 लोग मारे गए। बिना लायसेंस के सड़कों पर वाहन चलाने वालों में ज्यादातर नाबालिग ही होते हैं।
इस स्थिति को एक और नजरिए से देखें। आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2014 में ड्रायवरों की गलती के कारण करीब तीन लाख 80 हजार दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें एक लाख 2878 लोग मारे गए और करीब चार लाख लोग घायल हुए। सड़क दुर्घटनाएं करने वालों और उसका शिकार होने वालों में सर्वाधिक हिस्सा 15 से 35 वर्ष के आयुवर्ग के लोगों का है। कुल दुर्घटनाओं में 53.8 प्रतिशत दुर्घटनाएं इसी आयु वर्ग के लोगों के हाथों हुई। जबकि 6454 यानी 4.6 फीसदी दुर्घटनाओं में 14 वर्ष से कम आयु के लोग या तो हादसों के लिए जिम्मेदार थे या उनका शिकार बने।
सड़क दुर्घटनाओं के मामले में प्रशासनिक स्तर पर ही नहीं बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी चेतना और जागरूकता की आवश्यकता है। पिछले दिनों मुझे एक बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हुई। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान मतदाताओं के हिसाब से मुद्दों को जानने का प्रयास किया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु मे चैन्नई के लोगों ने ट्रैफिक को सबसे बड़ा मुद्दा बताया। यानी देश के एक महानगर में लोगों के लिए पानी,बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार संसाधन आदि से भी बढ़कर ट्रैफिक की समस्या है। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सड़कें और उन पर दिनरात बहने वाला यातायात हमारे लिए किस कदर चिंता का विषय होता जा रहा है। चैन्नई के 48.08 प्रतिशत लोगों ने ट्रैफिक जाम को सबसे बड़ा मसला बताया। लोगों ने सरकार के कामकाज के आकलन के लिए भी इन मुद्दों को आधार बनाया और ट्रैफिक जाम तथा ध्वनि प्रदूषण से निपटने के मामले में सरकार को सबसे अधिक विफल माना।
कुल मिलाकर वाहन, सड़कें और यातायात अब घर से बाहर का मसला नहीं रहे हैं। वे हमारे घर के अंदर घुसपैठ करने लगे हैं, इससे पहले कि वे हमारे जीवन को चौराहा बना दें, हम संभल जाएं तो बेहतर है।
गिरीश उपाध्याय