उज्जैन का सिंहस्थ महाकुंभ अपने अंतिम चरण में है। इस आयोजन के धार्मिक और वैचारिक पहलुओं को लेकर, आने वाले कई दिनों तक मंथन के दौर चलते रहेंगे। पिछले दिनों मैं उज्जैन में था और वहां कुछ ऐसी बातों को अनुभव किया, जिन्हें आपसे शेयर करना चाहूंगा।
सिंहस्थ धार्मिक और वैचारिक आयोजन तो है ही, लेकिन धर्म और आस्थामूलक स्वरूप से हटकर इसका एक सामाजिक स्वरूप भी है। सरकार के स्तर पर ‘समरसता’ की परिभाषा जो भी हो, लेकिन सिंहस्थ महाकुंभ जैसे आयोजन भारत जैसे बहुआयामी, बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक धाराओं वाले देश के लिए सामाजिक ‘बांडिंग’ का बहुत बड़ा माध्यम हैं। इन आयोजनों के माध्यम से हम देश के सामाजिक तानेबाने के रेशों को बहुत बारीकी से पढ़ने और जानने की समझ विकसित कर सकते हैं।
प्रवास के दौरान अपने साथ घटी दो घटनाओं से मैंने जो महसूस किया वह चिंता में डालने वाला है। पहले ये दोनों किस्से सुन लीजिए। दिन में मैं उज्जैन के एक लोकप्रिय भोजनालय में खाना खाने गया। बहुत भीड़ थी। हरेक व्यक्ति अपनी आर्डर की हुई सामग्री का इंतजार कर रहा था। मेरे बगल में एक नौजवान बैठा था। उससे बातचीत शुरू हुई तो उसने बताया कि वह उज्जैन का रहने वाला नहीं है, यहां नौकरी करता है। चूंकि इस भोजनालय का खाना बेहतर है, इसलिए वह अकसर यहां आता है। थोड़ी देर बाद मेरी और उसकी खाद्य सामग्री आ गई। उस युवक ने होटल के लोकप्रिय ‘थाली सिस्टम’ वाली थाली मंगाई थी। थाली क्या थी, पूरा भोजनालय ही था। इसका अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि थाली के साथ रोटी इतने बड़े कटोरदान में परोसी गई थी, जैसा हम लोग घरों में पांच छह लोगों की रोटियां रखने के लिए इस्तेमाल करते हैं। मैं अपना डोसा खाते हुए उसे देखता रहा। थोड़ी देर बाद उस युवक ने अपना खाना खत्म किया और चला गया। मैंने देखा कि उसने आधा खाना भी नहीं खाया था। उसके कटोरदान में कम से कम चार रोटी बची होगी। थाली में भी कई सामग्री ऐसी थी जिसे उस युवक ने छुआ भी नहीं था और कुछ को केवल चखकर छोड़ दिया था। होटल का नौकर जब थाली उठाने आया तो मैंने पूछा इस सामग्री का आप क्या करते हो, उसने कहा कचरे में फेंक देते हैं। सुनकर जबरदस्त धक्का लगा। आसपास नजर दौड़ाई तो ऐसी कई थालियां टेबलों से उठाई जा रही थीं और नए लोगों को वही भारी-भरकम सामग्री वाली थालियां परोसी जा रही थीं।
मैंने होटल के नौकर से कहा- क्या आप इसके लिए अलग से कोई बर्तन वर्गरह नहीं रखते जिससे कि यह खाना किसी और भूखे इंसान को दिया जा सके। उसने कहा नहीं, हम तो इसे कचरे में फेंक देते हैं। यानी तमाम तरीके के पकवानों से युक्त वह बचा हुआ खाना मनुष्य तो छोडि़ए, पशुओं तक के लिए भी नहीं सहेजा जा रहा है।
ठीक यही घटना रात को एक अन्य होटल में भी हुई। हमने होटल वालों से कहा कि दो रोटी और दाल दे दीजिए। उन्होंने हमारे बहुत ही साफ आदेश के बावजूद जो सामग्री लाकर दी वो भी उसी ‘थाली सिस्टम’ वाली और इतनी अधिक थी कि उससे दो व्यक्ति बहुत आराम से अपना पेट भर सकते थे। भोजन को कैलोरी की खुर्दबीन से देखने वाले लोग अगर हों तो वह सामग्री चार लोगों के लिए पर्याप्त थी। मैंने उस नौकर से कहा कि हमने तो इतना खाना मंगवाया ही नहीं था, यह तो बहुत बच जाएगा। और जब उससे भी वही सवाल किया कि इस बचे हुए खाने का आप क्या करेंगे, तो उसका जवाब भी ठीक वही था जो सुबह वाले नौकर का था। उसने कहा यह हमारे किसी काम का नहीं, हम इसे कूड़े में फेंक देते हैं। हमने कहा आप इस बचे हुए खाने को पैक कर दीजिए, हम किसी को दे देंगे या किसी प्राणी को खिला देंगे। उसका जवाब था आपको जो पॉलीथीन की थैली दी गई आप ही उसमें डाल लीजिए और जो करना हो आप ही करिए।
सवाल यह है कि एक ओर जहां समाज में रोज हजारों लोग भरपेट खाने को तरसते हों, सड़कों पर छोड़ दिए गए मवेशी पॉलीथीन में रखे कचरे को खाकर अपनी जान जोखिम में डाल रहे हों, वहां समाज की ओर से की जाने वाली यह आपराधिक लापरवाही क्या सिंहस्थ जैसे आयोजनों में चर्चा का विषय नहीं होनी चाहिए? मैंने मेला क्षेत्र में भ्रमण के दौरान अनेक पांडालों में धर्म, उसकी रक्षा, पौराणिक प्रसंग, आदि पर प्रवचनकारों को बात करते तो सुना, लेकिन ऐसे सामाजिक दायित्व बोध को लेकर क्या कोई सामूहिक प्रयास सिंहस्थ जैसे व्यापक फलक वाले मंचों से नहीं होना चाहिए? कारण जो भी रहा हो लेकिन सिंहस्थ के दौरान शराब और मांस की बिक्री प्रतिबंधित करने पर तो बहुत जोर दिया गया, लेकिन पूरे उज्जैन की होटलों में इस तरह की मुहिम क्यों नहीं चलाई जा सकी कि वहां बचा हुआ खाना कूड़े में फेंककर तो नष्ट न किया जाए। और उज्जैन ही क्यों, यह मुहिम पूरी भारत में क्यों नहीं चलनी चाहिए और सिंहस्थ जैसे महा आयोजनों को इसका माध्यम क्यों नहीं बनना चाहिए? (जारी)
गिरीश उपाध्याय