आज जब यह कॉलम लिखने बैठा हूं तो करीब 35 साल पुरानी यादें ताजा हो आई हैं। तुलना करके देखता हूं तो ‘कन्फ्यूज’ हो जाता हूं। कभी लगता है सारी स्थितियां बदल गई हैं और कभी कभी लगता है कि कुछ नहीं बदला। कई बातें आज भी वैसी ही ‘आदिम’ हैं जैसी 35 साल या उससे भी पहले रही होंगी।
आज की परिस्थिति के बारे में तो ठीक ठीक नहीं कह सकता, लेकिन उस समय पत्रकारिता के ‘रंगरूट’ के लिए स्थितियां बहुत विकट होती थीं। खासतौर से वे खुर्राट सीनियर जो ‘पढ़े’ भी होते थे और ‘लिखे’ भी। जबकि आज इसके विपरीत या तो आपको ‘कहे’ मिलेंगे या ‘सुने’। कुछ ‘कहासुनी’ करते भी मिल जाएंगे।
आप सोच रहे होंगे कि, ये मैं कहां का रोना लेकर बैठ गया। दरअसल पुराना जमाना, उस समय के एक वरिष्ठ पत्रकार की याद आ जाने से याद आया। उनका नाम था श्री दाऊलाल साखी। मैं जब पत्रकारिता में आया तो वे उस जमाने के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक, नवभारत के विशेष प्रतिनिधि हुआ करते थे। उनका एक कॉलम राजनीतिक डायरी के नाम से छपा करता था। वैसे उन दिनों वरिष्ठ पत्रकारों को राजनीतिक डायरी लिखने का बड़ा शौक था। यह चलन काफी सालों तक जारी रहा। तो कुल मिलाकर साखी जी नवभारत के लिए राजनीतिक रिपोर्टिंग किया करते थे।
जैसा कि मैंने कहा, उस समय हम जैसे रंगरूटों के लिए राजनीतिक रिपोर्टिंग बहुत लुभावनी या यूं कहें कि‘ग्लैमरस’ चीज हुआ करती थी। नवजात रिपोर्टर पालने में ही राजनीतिक रिपोर्टर बनने के सपने देखा करता था। इसलिए प्रेस कान्फ्रेंस आदि में ऐसे वरिष्ठ राजनीतिक रिपोर्टरों को बहुत ध्यान और सम्मान से देखा जाता। उनकी हरकतों को बारीकी से नोट किया जाता। इस संदर्भ में साखीजी का जिक्र मैं यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उनके समय किसी भी बड़े नेता, खासतौर से मुख्यमंत्री की प्रेस कान्फ्रेंस में दो बातें एक तरह से पहले से ही तय होती थीं। साखीजी सबसे आगे बैठते और पहला सवाल उनके लिए रिजर्व होता। यह सवाल नंबर में ही नहीं विषयवस्तु के रूप में भी रिजर्व कहा जा सकता था। वो सवाल होता- ‘मंत्रिमंडल का विस्तार कब हो रहा है।‘
नेतागण भी जानने लगे थे कि पहला सवाल साखीजी ही पूछेंगे और उन्हें यह भी पता था कि वह सवाल क्या होगा, लिहाजा वे भी उसी तैयारी से आते। जहां तक मुझे याद है, एक बार तो बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ। शायद अर्जुनसिंह की प्रेस कान्फ्रेंस थी और साखी जी सवाल पूछते, इससे पहले ही उन्होंने अपनी धीर गंभीर आवाज में कहा- ‘‘अभी मंत्रिमंडल के विस्तार की कोई योजना नहीं है साखीजी…’’ अर्जुनसिंह का इतना कहना था कि प्रेस कान्फ्रेंस में जोरदार ठहाका गूंज उठा।
ऐसे ही एक अन्य मौके पर एक मुख्यमंत्री ने मंत्रिमंडल के विस्तार की जिज्ञासा पर पत्रकारों के सवाल का जिस लहजे में जवाब दिया, उसने शुरू में तो सबको चौंका दिया। जनवरी यानी नया साल आने में करीब छह माह का समय था। एक पत्रकार ने उलझाने के लिए सवाल दागा- ‘’आप तो इतना हिंट कर दो कि जनवरी से पहले होगा या बाद में…’’ चतुरसुजान मुख्यमंत्री ने नहले पर दहला जड़ते हुए कहा- ‘’या तो जनवरी से पहले होगा या जनवरी के बाद…’’ खबर लिखने की हड़बड़ी में रिपोर्टर बिना इस वाक्य का ‘मर्म’समझे उसे नोट करने लगे। तभी एक वरिष्ठ की बत्ती जली और उन्होंने तपाक से कहा- ‘‘अरे, इसका क्या मतलब?’’ मुख्यमंत्री ने ठहाका लगाते हुए कहा- ‘’अब मतलब आप लोग निकालते रहिए।‘’ दरअसल जनवरी से पहले या बाद का ‘रहस्योद्घाटन’ कर मुख्यमंत्री ने तारीख नहीं बताई थी, बल्कि बड़ी चतुराई से सवाल को टालते हुए उलटे पत्रकारों को उलझा लिया था।
साखी जी और मंत्रिमंडल के विस्तार के किस्से मैंने इसलिए सुनाए, क्योंकि मुझे लगता है, आज भी कुछ नहीं बदला, सब कुछ वैसा ही है। पत्रकार आज भी मंत्रिमंडल के विस्तार की खबर जानने के लिए वैसे ही मरे जा रहे हैं, जैसे 35 साल या उससे पहले मरे जाते थे। कभी कभी तो ऐसा लगता है, मानो हमारी नई नई शादी हुई हो और हम मंत्रिमंडल के विस्तार की नहीं, बल्कि अपने ‘परिवार के विस्तार’ की बात कर रहे हैं। जैसे सास आंखों में चमक लाते हुए, नई नवेली बहू से पूछती है- ‘’क्यों बहू कोई ‘खबर’…!’’ उसी तरह रिपोर्टर मुख्यमंत्री से पूछता है- ‘कोई खबर’… सास भले ही खुलकर न कहती हो, लेकिन बहू समझ जाती है कि बुढि़या कौनसी खबर की बात कर रही है। वैसे ही रिपोर्टर भले ही ‘मंत्रिमंडल विस्तार’ जैसे शब्दों का सहारा न ले, लेकिन मुख्यमंत्री समझ जाता है कि उसका इशारा किधर है।
मध्यप्रदेश में इन दिनों ऐसी ही ‘इशारेबाजियां’ हो रही हैं। आषाढ़ आ चुका है। सावन आने वाला है। सबको हरा ही हरा दिख रहा है। मौसम विभाग ने अच्छे मानसून की ‘चेतावनी’ काफी पहले ही जारी कर दी है। कहते हैं बारिश के दिनों में मिट्टी में कोई भी ‘डंडी’ लगा दो, उसमें कोपलें फूट आती हैं। सो कई लोग अपनी अपनी ‘डंडिया’ लेकर खड़े हैं। मंत्रिमंडल विस्तार के नाम पर अब तक ऐसे ‘आशा कार्यकर्ताओं’ को आश्वासन का झुनझुना पकड़ाते आए शिवराजसिंह ने भी एक बार फिर अपने चिरपरिचित अंदाज में विस्तार की बात को हवा दे दी है। देखते हैं, ये हवाएं अबकी बार अरब सागर या बंगाल की खाड़ी से आती हैं, या फिर हमेशा की तरह राजस्थान के रेगिस्तान से…
गिरीश उपाध्याय
साखी जी की पत्रकारिता का एक स्थायी अंग होता था कॉंग्रेस पर उनकी टिप्पणी- या तो विस्तार होगा या नहीं होगा और या इंदिरा जी जैसा चाहेंगी वैसा होगा