लेकिन घर में कोई बात रखने का मौका तो दे?

सात अक्‍टूबर को मैंने इसी कॉलम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इंस्‍टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज ऑफ इंडिया के स्‍वर्ण जयंती समारोह में दिए गए भाषण की इस पंक्ति को कोट किया था कि- ‘’कुछ लोगों को आलोचना के बिना अच्‍छी नींद नहीं आती।‘’ प्रधानमंत्री ने यह बात अपनी ही पार्टी के दो वरिष्‍ठ नेताओं यशवंत सिन्‍हा और अरुण शौरी द्वारा वर्तमान सरकार की अर्थनीति को लेकर की जा रही आलोचना के संदर्भ में कही थी।

प्रधानमंत्री की इस टिप्‍पणी के बारे में मैंने कहा था कि ‘’यह वाक्‍य इस समय देश का सबसे बड़ा सवाल भी है और इस सवाल में ही सवाल का जवाब भी छिपा है। सवाल यह कि देश के लिए वे लोग अच्‍छे हैं जिन्‍हें नींद नहीं आती या वे लोग जो इतनी उथल पुथल के बाद भी नींद में ही हैं।‘’

मेरी इस टिप्‍पणी पर हमारे एक सुधी पाठक ने कुछ सवाल उठाए हैं। उन्‍होंने मुझे लिखा- ‘’आपने बहुत सही सवाल उठाया है कि देश के लिए वे लोग अच्छे हैं जिन्हें नींद नहीं आती या वे लोग जो इतनी उथल पुथल के बाद भी नींद में ही हैं। लेकिन यहाँ सवाल यह नहीं है कि यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के द्वारा उठाए गए मुद्दे सही हैं या नहीं। सवाल यह भी है कि क्या इसके पीछे उनको सरकार में शामिल न किए जाने की भड़ास नहीं हैक्या उन्हें ऐसा कहने से पहले अपना दल नहीं छोड़ देना चाहिए?’’

वे आगे कहते हैं- ‘’अस्सी पार के यशवंत सिन्हा को वैसे भी यह सोचकर संतुष्ट हो जाना चाहिए कि बेटे को मंत्रिमंडल में रखा हुआ है। उनके सवाल बेटे के लिए परेशानी पैदा कर सकते हैं। अगर उनमें मुलायम-अखिलेश जैसे संबंध हों तो अलग बात है।‘’

‘’वैसे यशवंत सिन्‍हा और अरुण शौरी वही हरकत कर रहे हैं जो एमपी में कभी कभी बाबूलाल गौर कर दिया करते हैं।‘’

अपने पाठक की प्रतिक्रिया का पूरा सम्‍मान करते हुए आज मैं इसी बात को आगे बढ़ाना चाहूंगा। दरअसल किसी भी राजनीतिक दल का कोई नेता जब भी इस तरह की बातें करता है या सवाल उठाता है तो उस पर पहला वार इसी सलाह के साथ होता है कि उसे ऐसी बातें सार्वजनिक मंच पर न कहकर पार्टी फोरम पर करनी चाहिए थी। दूसरी सलाह यह होती है कि यदि इतना ही विरोध है तो पार्टी से अलग हो जाएं।

परंपरागत रूप से दी जाने वाली इस सलाह को लेकर एनडीटीवी के रिपोर्टर ने खुद यशवंत सिन्‍हा से भी पूछा था। मामले को समझने के लिए यहां उनका वह जवाब सुनना भी जरूरी है। जरा सुनिए क्‍या पूछा एनडीटीवी रिपोर्टर ने और क्‍या बोले थे यशवंत सिन्‍हा-

रिपोर्टर- सरकार की तरफ से और पार्टी की तरफ से यह कहा जा रहा है कि बहुत से तरीके थे यशवंत सिन्‍हा के सामने… वो अपनी बात रख सकते थे पार्टी के फोरम में, सरकार के सामने… उन्‍होंने मीडिया प्‍लेटफॉर्म क्‍यों चुना.. क्‍या मकसद था… सवाल उठा रहे हैं वो…

सिन्‍हा- आप उनसे पूछिए कि किस प्‍लेटफॉर्म पर रख सकते थेपूछिए ना उनसे… पूछिए उनसे कि किस प्‍लेटफॉर्म पर यशवंत सिन्‍हा अपनी बात रख सकते थे?

रिपोर्टर- क्‍या बीजेपी में नेताओं के पास मंच नहीं है अपनी बात रखने का?

सिन्‍हा- नहीं… नहीं है… नहीं है, मैं कह रहा हूं आपसे… जिम्‍मेदारी के साथ कह रहा हूं…

रिपोर्टर- क्‍या आप प्रधानमंत्री के पास जाकर ये बातें नहीं कह सकते थे?

सिन्‍हा- नहीं, नहीं कह सकते थे… क्‍योंकि प्रधानमंत्री से मैंने सालभर पहले एक और विषय पर समय मांगा था, वो आज तक नहीं मिला है… तो अब क्‍या सात रेसकोर्स रोड के सामने धरना दे दें कि मुझे कुछ कहना है…

यानी सिन्‍हा साफ साफ यह बता रहे हैं कि भाजपा में अपनी बात रखने वाले नेताओं के लिए कोई फोरम नहीं है। वहां केवल सुनने की इजाजत है कुछ कहने की नहीं। और ऐसे में यदि यह सवाल उठाया जाए कि ऐसी बातें पार्टी फोरम पर ही कही जानी चाहिए तो उसका क्‍या अर्थ रह जाता है? क्‍या राजनीतिक दलों का अंदरूनी लोकतांत्रिक ढांचा इतना कमजोर या भयग्रस्‍त है कि वह असहमति की जरा सी बात से ही ढह जाएगा? और कोई व्‍यक्ति दल भी क्‍यों छोड़े, क्‍या परिवार में रहकर परिवार के मुखिया के किसी फैसले से असहमति जताना इतना बड़ा अपराध हो चला है कि व्‍यक्ति को परिवार से ही निकाल दिया जाए। यह कुछ कुछ वैसी ही बात है कि आप किसी खास समुदाय से कहें कि यहां आपको नहीं जम रहा तो आप पाकिस्‍तान चले जाएं।

दरअसल देश के अधिकांश राजनीति दलों में ये स्थितियां बन रही हैं कि यदि पार्टी की नीतियों या पार्टी की सरकार को लेकर कुछ कहना हो तो उसकी इजाजत कहीं नहीं है। भाजपा में स्थितियां और ज्‍यादा बिगड़ी हुई दिखाई देती हैं। अन्‍यथा आप ही बताएं, आखिर क्‍या वजह है कि या तो सिर्फ और सिर्फ ठकुरसुहाती कही जा रही है या फिर मुंह की जिप बंद है।

आपको याद होगा कि ऐसे ही हालात की ओर इशारा करते हुए राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी दशहरे के अपने संदेश में सरकार को सलाह दी थी कि वह चारों तरफ से फीडबैक आने दे, उसके रास्‍ते बंद नहीं होने चाहिए।

यह बात सुनने में बहुत अच्‍छी लगती है कि घर की बात घर में ही रहे। लेकिन घर के लोगों को जब घर में ही अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलेगा तो वे कहां जाएंगे। वे पड़ोसी से जाकर कहेंगे, मित्रों से कहेंगे, समाज से कहेंगे… और यही हो रहा है।

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