दुनिया की सबसे ताकतवर हस्तियों में शुमार दो महिलाओं ने हाल ही में जो बात कही है वह समूचे मानव समाज के लिए सबक तो है ही, साथ ही हम भारतीयों के लिए उस बात का खास महत्व इसलिए है कि हम तो वह विचार पीढि़यों से घुट्टी में पिलाते आए हैं।
मशहूर बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको की भारतीय मूल की सीईओ इंदिरा नूयी ने पिछले दिनों अपना पद छोड़ने का ऐलान किया। वे लगभग 12 साल से अमेरिका की इस प्रमुख फूड और बेवरेज कंपनी की अगुवाई कर रही हैं। 62 वर्षीय नूयी 3 अक्तूबर को सीईओ का पद छोड़ देंगी।
करीब 24 साल से इस कंपनी से जुड़ीं और दुनिया के प्रमुख 500 सीईओ में शामिल रह चुकीं नूयी ने अपने बयान में कहा, ‘‘मैं भारत में पली बढ़ी हूं। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे ऐसी असाधारण कंपनी की अगुवाई करने का मौका मिलेगा।’’
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जो नूयी ने कही वो यह है कि वे कंपनी के प्रमुख का पद छोड़ने के बाद अपने परिवार पर ध्यान देंगीं। उनकी दो बेटियां हैं और खुद के बारे में नूयी का मानना है कि वे शायद अच्छी मां साबित नहीं हो सकी हैं। लिहाजा अब वे कोई और जिम्मेदारी न लेते हुए सारा ध्यान अपनी बेटियों और परिवार पर ही लगाएंगी।
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दूसरा मामला नूयी की तरह ही चर्चित और सितारा हैसियत रखने वाली टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स का है। अपनी बेटी के जन्म के बाद टेनिस कोर्ट पर लौंटी अमेरिका की इस मशहूर खिलाड़ी ने रोजर्स कप टूर्नामेंट से हाल ही में अपना नाम वापस ले लिया है।
नाम वापसी के पीछे के कारणों का खुलासा करते हुए सेरेना ने कहा- ‘’मेरा मानना है कि मैं अपनी बेटी के लिए अच्छी मां साबित न हो पाने के डर में जी रही हूं।‘’ अपने कॅरियर में 23 ग्रैंड स्लैम जीतने वालीं सेरेना ने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट के जरिए अपने इस डर को साझा किया।
उसने कहा- “पिछला सप्ताह मेरे लिए आसान नहीं था। कुछ निजी मामलों से परेशान थी और मैं डर में भी हूं। मुझे ऐसा लगता है कि मैं एक अच्छी मां नहीं हूं। मैं अपने बच्चे के लिए पर्याप्त चीजें नहीं कर पा रही हूं।”
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इन दोनों मशहूर हस्तियों के बयानों को यदि आप ध्यान से देखें तो आपको कई बातें समान लगेंगी। चाहे नूयी हों या सेरेना, दोनों ने ही बहुत छोटे स्तर से, कड़ी मेहनत और प्रतिभा के बल पर खुद को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाया है। दोनों के पास आज न तो शोहरत की कमी है और न दौलत की…
लेकिन पैसा और प्रसिद्धि पाने के बाद भी उन्हें अपने जीवन में आज एक खालीपन महसूस हो रहा है। एक के मन में पछतावा है तो दूसरे के मन में डर। इंदिरा नूयी की बेटियां जहां विश्वविद्यालय की छात्राएं हैं वहीं सेरेना की बेटी ने अभी दुनिया में कदम रखा है।
दोनों मांएं अपनी बेटियों और परिवार की चिंता में हैं। हो सकता है कि दोनों के इन बयानों को कई सारे लोग पब्लिसिटी स्टंट या ध्यान बटोरने के लिए किया गया दिखावा बताएं, लेकिन उस बहस में पड़ने के बजाय मैं यहां दूसरी बात करना चाहता हूं।
सवाल यह है कि आज तमाम सुख सुविधाएं, दौलत और शोहरत पाने के बाद भी लोगों के मन में खालीपन या पछतावे का भाव क्यों पैदा हो रहा है? और ये तो वे लोग हैं जो हर इच्छित वस्तु को पैसे से खरीदने की कुव्वत रखते हैं। उनके लिए अभाव शब्द शायद कोई मायने नहीं रखता।
फिर क्या बात है कि आज बुलंदियों पर पहुंचने के बावजूद दोनों को परिवार और घर की चिंता सता रही है, या उन्हें उसके बारे में बात करने की जरूरत महसूस हो रही है। सब कुछ पा जाने के बाद वे आज क्यों अपने घर,परिवार और अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहती हैं…?
दरअसल इन्होंने भौतिक सुखों के साथ साथ कॅरियर बनाने के चक्कर में जो खोया है उसकी अहमियत अब समझ में आ रही है। यह न सिर्फ इंदिरा नूयी का पछतावा है और न ही सेरेना विलियम्स का डर। यह आज की पीढ़ी की वह नियति है जिसका सामना आज नहीं तो कल, इस अंधी दौड़ में भाग रहे हरेक युवा को करना पड़ेगा।
इस पड़ाव पर आकर हमें भारतीय और पाश्चात्य समाज का अंतर भी साफ समझ में आता है। हमारे यहां परिवार नाम की इकाई का जो महत्व रहा है उसने तमाम विकृतियों के बावजूद हमारे समाज को आज भी छिन्न भिन्न नहीं होने दिया है। परिवार को धुरी मानकर हम मनुष्य मात्र से संवेदना और भावना के धरातल पर रिश्ते जोड़ते आए हैं।
लेकिन बाह्य संस्कृति के प्रभाव, कॅरियर की अंधी दौड़ और ‘हम’ से ‘मैं’ की ओर मुड़ रही प्रवृत्तियों ने भारतीय समाज को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। संयुक्त परिवारों को हम लगभग समाप्त कर ही चुके हैं और एकल परिवार अब एक सचाई बन गए हैं।
परिवार को तोड़ने या उसकी उपेक्षा का नतीजा है कि हम सामाजिक रूप से आतंक, असुरक्षा और अपराध को भोगने के साथ साथ व्यक्तिगत रूप से अवहेलना, अपमान, अकेलेपन और अवसाद जैसी स्थितियों से घिरते जा रहे हैं।
यह परिवार ही है जो रिश्तों के धागों के जरिये हमें मनुष्य मात्र के साथ संवेदना का ताना बाना बुनना सिखाता है। आज इंदिरा नूयी और सेरेना को यदि परिवार की याद आ रही है तो यह मनुष्य की मूल प्रवृत्ति का ही परिचायक है, जिसकी बुनियाद ही भावनाओं और संवेदनाओं पर टिकी है।
अमेरिका में जाकर बस गईं और अमेरिका में ही पैदा हुई इन हस्तियों के दर्द की दवा भारतीय संस्कृति में तो बरसों से मौजूद रही है। विडंबना बस यही है कि हम उस दवा को अब ‘आउटडेटेड’ या ‘एक्सपायर्ड’ मानने लगे हैं। (जारी)