पर वोट देने वालों को भी सरकारें कहां जवाब देती हैं?

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्‍पणी बहुत ध्‍यान देने लायक है कि जो लोग वोट नहीं देते उन्‍हें सरकार से सवाल करने का हक नहीं है। कोर्ट ने यह तल्‍ख टिप्‍पणी अतिक्रमण हटाने के एक मामले में दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की। दरअसल गैर सरकारी संगठन वॉयस ऑफ इंडिया के धनेश ईशधन ने जब सुनवाई के दौरान यह कहा कि उन्‍होंने अपने जीवन में कभी वोट नहीं डाला तो प्रधान न्‍यायाधीश ने लगभग उन्‍हें फटकारते हुए कहा कि जो लोग वोट नहीं देते उन्‍हें सरकार से सवाल करने का हक नहीं है।

दिल्‍ली के इस एनजीओ ने देश भर में हो रहे अतिक्रमण को लेकर सरकारों को दिशानिर्देश जारी करने की मांग कोर्ट से की है। लेकिन प्रधान न्‍यायाधीश जे.एस. खेहर के अलावा जस्टिस एन.वी. रमन और डी. वाय. चंद्रचूड़ की बेंच ने 5 फरवरी को कहा कि- ‘’हर बात के लिए सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। दिल्‍ली में बैठकर देश भर के अतिक्रमणों पर नजर रखना संभव नहीं है। यदि हमने कोई आदेश जारी भी कर दिया तो हमारे पास कोर्ट की अवमानना के मामलों का ढेर लग जाएगा।‘’

दरअसल अतिक्रमणों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर यह मामला दिन-ब-दिन दिलचस्‍प होता जा रहा है और वह भी कोर्ट की लीक से हटकर की गई टिप्‍पणियों के कारण। आपको यदि थोड़े दिन पीछे ले जाऊं तो पिछले साल 26 अगस्‍त को तत्‍कालीन प्रधान न्‍यायाधीश टी.एस. ठाकुर के अलावा जस्टिस चंद्रचूड़ और ए.एम. खानविलकर की बेंच में जब यह मामला आया था तो उन्‍होंने भी ऐसी ही एक चर्चित टिप्‍पणी करते हुए याचिकाकर्ता से सवाल किया था कि- ‘’क्‍या आप यह सोचते हैं कि हम आदेश देंगे और देश में रामराज्‍य आ जाएगा? क्‍या हमारे आदेश दे देने सारी चीजें ठीक हो जाएंगी? हम यदि आदेश दें कि देश में भ्रष्‍टाचार नहीं होना चाहिए तो क्‍या भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाएगा? चीजें इस तरह से नहीं चलतीं।‘’

वैसे इस याचिका को तो पिछले साल आरंभिक सुनवाई के दौरान ही कोर्ट ने खारिज करने के संकेत दिए थे,लेकिन बाद में बेंच ने इसकी सुनवाई 5 फरवरी 2017 तक के लिए बढ़ा दी थी।

मैंने मामले की पिछली सुनवाई के बाद इसी कॉलम में (9 सितंबर 2016) लिखा था कि- ‘’मैं कोर्ट की बात से सौ फीसदी सहमत हूं। अरे जब स्‍वयं भगवान राम अपने राज में सौ टंच खरा रामराज्‍य नहीं ला सके तो आज कोर्ट, सरकार या हमारी क्‍या बिसात? लेकिन माननीय कोर्ट से इतनी गुजारिश है कि रामराज्‍य न सही, कम से कम ऐसी कामकाज्‍य व्‍यवस्‍था के लिए तो वो जरूर पहल करें जहां नागरिकों की वाजिब बात सुनी जाए।‘’

अब ताजा सुनवाई में नए प्रधान न्‍यायाधीश की टिप्‍पणी से मामले में एक और पेंच फंस गया है। यदि इस टिप्‍पणी को आधार मानें तो उन लोगों को सरकार से सवाल पूछने का कोई हक नहीं है जो वोट डालने तक की‘जहमत’ नहीं उठाते। एक मायने में कोर्ट का ऑब्‍जर्वेशन गलत भी नहीं है। यदि आप बेहतर या कार्यकुशल सरकार के चुनाव में भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर घटिया कामकाज और अव्‍यवस्‍थाओं के लिए नेताओं व सरकारों को दोष भी मत दीजिये।

लेकिन जब मैं कोर्ट की टिप्‍पणी का समर्थन करता हूं तो उसी के समानांतर मेरे मन में यह सवाल भी उतनी ही शिद्दत से उठता है कि चलो, जिन्‍होंने वोट नहीं डाला वे तो सवाल नहीं पूछ सकते, लेकिन उनका क्‍या,जिन्‍होंने वोट डाला है? हमारे यहां तो वोट डालकर, सरकार चुनने वालों की भी चुनाव के बाद सुनवाई नहीं होती। अव्‍वल तो उन्‍हें यही पता नहीं चल पाता कि अपनी परेशानियों को लेकर सवाल किससे करें, और यदि पता चल भी जाए और सवाल कर भी लिए जाएं, तो भी जवाब आना तो दूर, सवाल की पावती तक नहीं आती। वो डॉयलॉग है ना- मी लॉर्ड तारीख पर तारीख… उसी तर्ज पर बेचारी वोट डालने वाली जनता भी सवाल पर सवाल करती रहती है लेकिन जवाब नदारद रहता है।

सड़कों, फुटपाथों, बस्तियों और मोहल्‍लों में अतिक्रमण एक संवैधानिक अधिकार की तरह पांव पसार रहा है। यह महानगरों से लेकर कस्‍बों व गांवों तक की व्‍यवस्‍थाओं को लीलता जा रहा है। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट न सही, हाईकोर्ट भी न सही, लेकिन कोई तो हो जो लोगों की परेशानियों का संज्ञान ले। जिन्‍होंने वोट नहीं डाला वे सरकारों को कठघरे में खड़ा करने के पात्र नहीं हैं, लेकिन कम से कम उन लोगों की तो सुनवाई हो जो वोट डालकर इसलिए पछता रहे हैं कि, जिन्‍हें वोट डाला था वे ही अब उनके आसपास आए दिन अतिक्रमण की सौगात डालकर जा रहे हैं।

यह ठीक है कि दिल्‍ली से बैठकर पूरे देश पर निगाह नहीं रखी जा सकती, लेकिन कानून में यह व्‍यवस्‍था तो की ही जा सकती है कि जिस इलाके में अतिक्रमण हुआ उस इलाके का प्रतिनिधि भी सजा का पात्र होगा। फिर चाहे वह पंच हो, पार्षद हो अथवा विधायक या सांसद…

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