मोदी सरकार ने जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) के कानून को पारित करा कर निश्चित ही एक क्रांतिकारी काम किया है। परिवर्तन यदि व्यवस्था में सकारात्मक, सरल एवं जनहितैषी परिणाम लाने वाला हो तो, इसकी प्रशंसा एवं स्वागत तो बनता है। उम्मीद है कि नई व्यवस्था दर्जनों टैक्स के मकड़जाल और दुष्चक्र से भारतीय अर्थ व्यवस्था को मोक्ष प्रदान करेगी।
परंतु नई टैक्स प्रणाली जब धरातल पर उतरेगी तब उसके अपने खतरे भी साथ आएंगे। मसलन नई प्रणाली एकदम नई और समझ से बाहर होगी। कई वस्तुओं पर टैक्स कम हो सकता है, कई वस्तुओं पर कर ज्यादा हो सकता है, फलस्वरूप महंगाई में वृद्धि हो सकती है और जिन वस्तुओं का दाम कम हो जाएगा संभव है उसका लाभ व्यापार, उद्योग जगत उपभोक्ता तक न पहुंचाए। इतिहास गवाह है कि जब भी कोई परिवर्तन आता है तो उसके संक्रमण काल में ‘प्रसव पीड़ा’ भी होती है। संभव है इसकी कीमत वोट की शक्ल में सरकार को अदा करनी पड़े।
हमारे देश में एक और स्थायी एवं आधारभूत समस्या यह है कि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था विश्व की ‘धूर्ततम’ और ‘भ्रष्टतम’ है जो इस अच्छे परिवर्तन का भी सत्यानाश करने में सक्षम है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो सरकार तो हमेशा अच्छे ही कानून बनाती है, परंतु कानून को लागू करने के लिए ‘नियम निर्माण’, ‘प्रपत्र निर्माण’ करना ही होता है। और यही वह सुरंग है जिससे नौकरशाही हमला बोलती है और अपना जौहर दिखाती है।
कभी कभी तो कानून को लागू करने के लिए बने नियम ‘दिन में तारे दिखा देने’ या ‘रात में सूरज की तपिश का अहसास करा देने’ वाले साबित हुए हैं। नौकरशाही की एक और बड़ी कुख्याति किसी भी व्यवस्था की सरलता को नष्ट करने की रही है। भूतकाल में भी अच्छे अच्छे काम/कानून/नीतियां, क्रियान्वयन के स्तर पर असफल हो गए हैं और आदमी ‘पुनर्मूषकोभव’ हो जाता है।
संक्रमण काल के खतरे तो अपनी जगह मौजूद हैं ही। जीएसटी जैसा कदम तो प्रयास की शुरुआत भर है, अथवा ‘समुद्र मंथन’ है। इस प्रक्रिया के विकास (evolution) और इसके स्थिर (stablize) होने तक, इस व्यवस्था को लाने वालों की कुर्सी की रक्षा भगवान भरोसे हो जाती है। हालांकि यह तय है कि संक्रमण काल बीतने और पूर्ण विकसित हो जाने के बाद नई कर प्रणाली निश्चित ही देश के लिए शुभ होगी।
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(लेखक वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)