अजय बोकिल
हाल में जो तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई, वह किसी बॉलीवुड फिल्म के मेलोड्रामा जैसी थी। तस्वीर में एक बूढ़ी दादी और उसकी किशोर पोती आपस में मिलकर रो रहे थे। मानो दो बिछड़े बरसों बाद मिले हों। तस्वीर के साथ भावुक पोस्ट भी थी। इसके मुताबिक ‘एक स्कूल ने अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों के लिए वृद्धाश्रम का टूर आयोजित किया। वहां इस लड़की ने अपनी दादी को देखा। साथ में एक सवाल भी था कि ‘जब बच्ची ने अपने माता-पिता से दादी के बारे में पूछा था तो उसे बताया गया था दादी अपने रिश्तेदार के यहां रहने गई हैं। ये किस तरह का समाज बना रहे हैं हम?’
देखते ही देखते ये तस्वीर और संदेश खूब वायरल हुआ। आम लोगों के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और क्रिकेटर हरभजन सिंह जैसे लोग भी इसे अपने फ़ेसबुक और टि्वटर पर साझा करने लगे। कुछ समझदार लोगों ने वायरल तस्वीर का सच जानने की कोशिश की तो पता चला कि तस्वीर वरिष्ठ फोटो पत्रकार कल्पित भचेच ने अहमदाबाद में 2007 में खींची थी।
कल्पित ने इसे एक पत्रकारीय संयोग बताते हुए कहा कि (जिस दिन तस्वीर खींची गई) वह दिन 12 सितंबर 2007 था। घर से निकलते समय पत्नी ने कहा कि रात को समय पर घर आना, क्योंकि कल आपका जन्मदिन है। रात 12 बजे केक काटेंगे। घर से निकलते ही कुछ देर बाद मेरे मोबाइल पर शहर के मणिनगर के जीएनसी स्कूल से कॉल आया। कॉल स्कूल की प्रिंसिपल रीटा बेन पंड्या का था। उन्होंने कहा कि स्कूली बच्चों के साथ वो लोग वृद्धाश्रम जा रहे हैं। क्या मैं इस दौरे को कवर करने के लिए आ सकता हूं? मैंने हां कर दी और वहां से घोड़ासर के मणिलाल गांधी वृद्धाश्रम पहुंचा।
मैंने आग्रह किया कि बच्चों और वृद्धों की एक साथ तस्वीर लेना चाहता हूं। जैसे ही बच्चे खड़े हुए, एक स्कूली बच्ची वहां मौजूद एक वृद्ध महिला की तरफ़ देखकर फूट-फूट कर रोने लगी। सामने बैठी वृद्धा भी उस बच्ची को देखकर रोने लगी। तभी बच्ची दौड़कर वृद्ध महिला के गले लग गई। यह मार्मिक दृश्य देखकर सभी की आंखें भर आईं। मैंने यह तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर ली। वृद्धा से पूछा तो उसने बताया कि उन दोनों में दादी और पोती का रिश्ता है। बच्ची ने भी कहा कि हां ये मेरी ‘बा’ (दादी) हैं।
इसी के साथ बच्ची ने ह्रदय को चीर देने वाला ‘खुलासा’ भी किया कि उसके पिता ने दादी के बारे में उसे बताया था कि वो तो रिश्तेदारों से मिलने गई है। यहां आने पर पता चला कि वो तो वृद्धाश्रम में है। ये तस्वीर दूसरे दिन अखबार में छपी तो कई लोगों का दिल भर आया। हालांकि दूसरे दिन जब एक रिपोर्टर दादी से मिलने पहुंचा तो दादी ने सपाट भाव से कहा कि वह यहां अपनी मर्जी से रह रही है।
दादी-पोती का यह ‘भरत मिलाप’ कई कहानियां कहता है। पहला तो यह कि आधुनिक भारतीय समाज में वृद्धों की क्या स्थिति है। दूसरा यह कि घर के बुजुर्गों के बारे में वो लोग भी झूठ बोलते हैं, जिन्हें कल खुद इस हाल का सामना करना है। तीसरे, यह कि जिस पोती ने अपनी बा के बारे में केवल सुना भर था, वह उसे साक्षात देखकर रो क्यों पड़ी? चौथा, दादी और पोती के बीच ममत्व का वह कौन-सा अदृश्य धागा था, जो पोती के पिता द्वारा अपनी मां के बारे में झूठ बोलने पर भी टूट नहीं पाया था? पांचवा, दादी ने मीडिया के सामने अगर ‘झूठ’ बोला तो इसकी वजह भी शायद मां की ममता ही रही होगी, जो लाख कष्ट और तिरस्कार सह कर भी अपने बेटे को ‘बदनामी’ से बचाना चाहती थी।
ये तस्वीर हांडी के चावल का एक दाना भर है। 21 वीं सदी में भारतीय समाज जिस तेजी से बदल (या बिगड़) रहा है, यह उसकी बानगी है। भारतीय समाज संयुक्त परिवारों से टूटकर एकल परिवारों में बदला और एकल परिवारों में भी व्यक्ति अलग-अलग टूट रहे हैं। शहरी इलाकों में इसकी प्रक्रिया बहुत तेज है।
किसी जमाने में बुजुर्गों को घर का मार्गदर्शक और संस्कारों का रक्षक समझा जाता था, लेकिन आज वो ज्यादातर घरों में-‘अवांछित बोझ’ में तब्दील हो गए हैं। हालांकि सभी परिवार ऐसे नहीं हैं, लेकिन अधिकांश की कहानी यही है। छोटे परिवारों में बुजुर्गों की भूमिका या तो हाशिए पर है अथवा केवल याचक या आश्रित की है। उनका अपना जीवन दीनता से भरा है।
वर्ष 2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में 60 साल से ऊपर वाले बुजुर्गों/अथवा वरिष्ठ नागरिकों की संख्या करीब 11 करोड़ है। इनमें से कई (खासकर शहरों में) ऐसे हैं, जिनके बेटे-बेटी उन्हें अपने पास रखना गैर जरूरी समझते हैं। अगर रखते भी हैं तो उन बुजुर्गों को अपना मन मारकर या पेट काटकर गुलामों सी जिंदगी जीनी पड़ती है। कई अच्छे खाते-पीते परिवारों ने भी अपने बुजुर्गों को ‘झंझट’ मानकर वृद्धाश्रमों में छोड़ दिया है या फिर उपेक्षित और यातनापूर्ण जिंदगी जीने के बजाए वृद्ध खुद ही वृद्धाश्रमों में चले गए हैं। जाने से पहले उन्होंने अपने सपनों को खुद ही मार दिया है।
परिजन कभी-कभी उनसे मिलने आने की औपचारिकता निभाते हैं तो कई मामलों में बरसों तक कोई उनकी सुध नहीं लेता। जिनके बेटे-बेटी विदेश जा बसे हैं, उनकी कहानी और दर्दनाक है। माता-पिता उनके लिए केवल एक अकाउंट नंबर भर हैं, जिनमें वो परदेस से पैसा जमा करते रहते हैं।
सवाल यह है कि ऐसी स्थिति क्यों बन रही है? क्यों एक पोती का अपनी दादी से साक्षात्कार एक वृद्धाश्रम में जाकर ही होता है? जिन मां और बाप ने अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर, पाल पोस कर बड़ा किया, वही बेटा बड़ा होकर अपनी मां को लेकर अपनी बेटी से निर्लज्ज झूठ कैसे बोल सकता है?
इसके कई कारण हैं। पहला तो शहरों में स्थानाभाव। छोटे आशियानों के मन भी बहुत छोटे हैं। इसमें ‘हम दो, हमारे दो’ से ज्यादा के लिए जगह नहीं है। दूसरे, आर्थिक मजबूरियां। सीमित आय बुजुर्गों की परवरिश की इजाजत नहीं देती। क्योंकि (पेंशन मिले तो फिर भी ठीक है) बुजुर्ग कुछ कमाते नहीं। तीसरे, एकल परिवारों के सदस्यों का भी ज्यादा से ज्यादा आत्मकेन्द्रित होते जाना। केवल और केवल अपनी सुख सुविधा के बारे में सोचना। इस अकाट्य सच को हवा में उड़ा देना कि उनकी जिंदगी की सांझ भी होने वाली है।
जिन परिवारों ने बुजुर्गों को साथ रखा भी है तो उन्हें कई तरह से प्रताडि़त किया जाता है। मसलन ठीक से खाना न देना, इलाज न कराना, पीटना, सतत उपहास करना, दैनिक जरूरतें भी पूरी न करना, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करना, जो थोड़ी बहुत सम्पत्ति बुजुर्गों के पास हो, उसे भी हड़प लेना और फिर उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर करना।
हालांकि भारत सरकार ने परिवारों में बुजुर्गों की ठीक से देखभाल न करने को कानूनन अपराध बनाया हुआ है, लेकिन इससे बहुत मदद शायद ही मिल रही हो। कारण बुजुर्ग कोर्ट कचहरी के चक्कर नहीं लगा सकते। इधर सोशल मीडिया ने बुजुर्गों को आपस में जोड़ने का काम किया है तो दूसरी तरफ यही सोशल मीडिया बुजुर्गों को अपनों से काट भी रहा है। घर के बुजुर्ग आसमान की ओर तकते रहते हैं और घर के बाकी सदस्य मोबाइल में डूबे रहते हैं। यह दृश्य अब आम है।
विडंबना यह है कि जिस भारतीय संस्कृति में माता-पिता को देव तुल्य माना गया है, उसी संस्कृति में अब मां-बाप एक अवांछित और कबाड़ की वस्तु बनते जा रहे हैं। दुर्भाग्य से अहमदाबाद की वायरल हुई दादी-पोती की तस्वीर इसी कड़वे सच का जिंदा प्रमाण है।
(‘सुबह सवेरे’ से साभार)