मध्यप्रदेश में उच्च शिक्षा के परिसर लंबे समय से खदबदा रहे हैं। असंतोष शिक्षा तंत्र को लेकर भी है और उच्च शिक्षा को संभालने वाले राजनीतिक नेतृत्व को लेकर भी। ऐसे माहौल में उच्च शिक्षा मंत्री जयभानसिंह पवैया सराहना के पात्र हैं कि उन्होंने छात्रों के एक आंदोलन को उग्र होने से पहले ही ठंडा कर दिया। इससे पहले प्रदेश में उच्च शिक्षा का जो राजनीतिक नेतृत्व था, उसे आप स्मृति ईरानी का पुरुष संस्करण कह सकते हैं। उस नेतृत्व ने अपने अडि़यल रवैये के कारण कई समस्याओं और आंतरिक असंतोष को जन्म दिया। एक ओर जहां छात्रों की समस्याओं पर गंभीरता और संवेदनशीलता से विचार नहीं हुआ वहीं दूसरी ओर शिक्षकों से ऐसा व्यवहार किया गया मानो उनसे बदला निकाला जा रहा हो।
लेकिन पिछले दिनों प्रदेश मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के बाद राज्य में भी केंद्र जैसा ही दृश्य बना है। आपको याद होगा, स्मृति ईरानी के अडि़यल रवैये और अपने रुख को ही ‘अंतिम सत्य’ मानने की प्रवृत्ति के कारण सरकार की कितनी किरकिरी हुई थी। नए मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कार्यभार संभालने के बाद पहला बयान ही यही दिया था कि वे शिक्षा परिसरों में संवाद की परंपरा को बढ़ावा देंगे। स्मृति ईरानी के समय सारा झगड़ा ही संवादहीनता का था। मध्यप्रदेश में भी नए उच्च शिक्षा मंत्री जयभानसिंह पवैया ने अभी तक जो रुख अपनाया है वह संवाद की स्थिति को बनाए रखने वाला है।
चूंकि पवैया स्वयं कई जनआंदोलनों का हिस्सा रहे हैं इसलिए उनसे अपेक्षा भी की जाती है कि वे छात्रों की समस्याओं को धैर्य से सुनें और उनका निराकरण करें। उन्होंने बुधवार को वही किया और अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) के कार्यकर्ताओं के बीच पहुंचकर दो महत्वपूर्ण घोषणाएं कर दी। पहली घोषणा प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव फिर से कराने की और दूसरी घोषणा उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में सेमेस्टर प्रणाली खत्म करने की। प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव फिर से शुरू कराने की मांग कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई और भाजपा का छात्र संगठन अभाविप दोनों ही लंबे समय से कर रहे हैं।
घोषणाएं होने के बाद इनके गुणदोषों पर बात करना जरूरी है। पहले बात छात्रसंघ चुनाव की। प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव पर 2006 के बाद रोक लगा दी गई थी। उज्जैन में प्रोफेसर सभरवाल की कथित हत्या को इसके पीछे एक प्रमुख कारण माना गया था। बीच में मेरिट के आधार पर चुनाव का प्रयोग हुआ पर वह भी नहीं चला। अब जब ये चुनाव फिर से कराने का फैसला किया गया है तो यह सरकार और छात्र संगठन दोनों की जिम्मेदारी है कि वे शिक्षा परिसरों में अराजकता का माहौल न पनपने दें। यह सही है कि छात्रसंघ चुनाव छात्रों में किसी हद तक नेतृत्व का गुण विकसित करने में मददगार साबित होते हैं, लेकिन इसके साथ ही उनमें उन तमाम बुराइयों के कीटाणु भी पनपने लगते हैं जो राजनीतिक क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट पहचान हैं।
छात्रसंघ यदि शिक्षा परिसरों को एक आदर्श और अनुशासित संस्था के रूप में विकसित करने में सहभागी हों तो ही उनकी सार्थकता है अन्यथा वे भी किसी गिरोह या गुंडों की फौज से कम नहीं होंगे। देश में हाल ही में कई विश्वविद्यालय परिसरों में ऐसे दृश्य देखे जा चुके हैं। छात्रसंघों का पहला लक्ष्य शिक्षा और उसके अनुकूल माहौल तैयार करना होना चाहिए। देखा यह जाता है कि शिक्षा और शिक्षा परिसर का अनुशासन तो गौण हो जाता है और सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ राजनीति पर केंद्रित होने लगता है।
एक और मामला छात्रसंघ चुनावों में धनबल और बाहुबल के इस्तेमाल का है। छात्रसंघ राजनीतिक नेतृत्व के गुण विकसित करने की नर्सरी के साथ साथ राजनीतिक दुर्गुण विकसित करने की पाठशाला भी हैं। ऐसे में छात्र संगठनों को ही तय करना होगा कि वे इन चुनावों को विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दुर्गुणों से कैसे बचाए रखेंगे। यदि छात्रसंघ चुनाव भी राजनीतिक या रसूख के वर्चस्व की लड़ाई का पर्याय बनकर रह गए तो फिर शिक्षा परिसरों में अराजकता का माहौल पनपने से कोई नहीं रोक सकता। सरकार ने चुनाव को हरी झंडी तो दे दी है, लेकिन शिक्षा संस्थाओं में राजनीति और गुंडागर्दी पढ़ाई पर हावी न हो जाए उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा।
दूसरा मामला सेमेस्टर प्रणाली को खत्म करने का है। दरअसल इसको लेकर दोनों तरह के मत हैं। कई राज्यों में यह प्रणाली ठीक चल रही है लेकिन हमारे यहां इसे शुरुआत में ही पोलियो हो गया था। उसके बाद यह व्यवस्था घिसट घिसट कर ही चलती रही। इस दौरान इसे जारी रखने या न रखने को लेकर उच्च शिक्षा विभाग कई बार आगे पीछे होता रहा। विभाग की कमजोरी यह रही कि वह इस व्यवस्था को प्रभावी ढंग से लागू नहीं करवा पाया और इसने हमारे पूरे शैक्षिक कैलेण्डर का ही सत्यानाश कर दिया।
सवाल तो यह उठता है कि जब सेमेस्टर सिस्टम गलत था तो उसे लागू ही क्यों किया गया? और यदि इतने सालों में उसका एक कच्चा पक्का ढांचा बन गया है, तो उसे पुख्ता करने के बजाय वापस लेने से क्या हो जाएगा? सेमेस्टर प्रणाली को लेकर विभाग के अधकचरे मानस ने शिक्षा व्यवस्था का जो बंटाढार किया है,उससे उबरने में पूरे शिक्षा तंत्र को लंबा समय लगेगा। देखना तो यह भी होगा कि जब देश में बाकी जगहों पर सेमेस्टर सिस्टम है और हमारे यहां नहीं होगा, तो हम मुख्यधारा से अलग होकर प्रतिस्पर्धा में खुद को कैसे टिका पाएंगे?