राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने आठ दिनों की मध्यप्रदेश यात्रा के दौरान हुए कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे। लेकिन उनका मीडिया से सीधा कोई संवाद नहीं हुआ।
वैसे भी सरसंघचालक के कार्यक्रमों में मीडिया के साथ सीधा इंटरेक्शन बहुत कम होता है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि खुद को लेकर होने वाली मीडिया रिपोर्टिंग के बारे में संघ मानता है कि उसकी छवि को हमेशा बिगाड़ने और उसकी बातों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। लिहाजा संघ के पदाधिकारी मीडिया से दूरी बनाए रखना ही पसंद करते हैं।
शायद मीडिया के प्रति संघ की इसी धारणा का परिणाम रहा होगा कि पूरे आठ दिनों की इस महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान सरसंघचालक ने मीडिया से अलग से औपचारिक या अनौपचारिक किसी तरह का संवाद नहीं किया। उन्हें जो भी बात करनी या कहनी थी, वह उन्होंने अपने कार्यक्रमों के दौरान होने वाले संबोधनों के जरिये कही।
प्रत्यक्ष संवाद शायद इसलिए भी टाला गया कि हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य के आरक्षण के संबंध में दिए गए एक बयान को लेकर संघ और भाजपा दोनों के लिए अप्रिय स्थिति बन गई थी। वैद्य का वह बयान संदर्भ से हटकर और गलत तरीके से प्रस्तुत किये जाने के कारण विवाद का विषय बन गया था। हालांकि बाद में हुए ‘डैमेज कंट्रोल’ के चलते मामले ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा, लेकिन लगता है वह भी एक कारण था कि सरसंघचालक के दौरे में मीडिया से सीधे संवाद से परहेज रखा गया।
पांच राज्यों खासकर उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनजर भाजपा और संघ दोनों ही नहीं चाहते होंगे कि किसी भी बात की गलत व्याख्या कर दिए जाने या संदर्भ से काटकर उसकी गलत रिपोर्टिंग होने के कारण पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर कोई विपरीत असर हो।
लेकिन 11 फरवरी को भोपाल में डॉ. भागवत ने मीडिया से जुड़े एक कार्यक्रम में, मीडिया को लक्षित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें जरूर कहीं। पत्रकार विजयमनोहर तिवारी की किताब के विमोचन समारोह में सरसंघचालक ने मीडिया को बहुत बड़ी सीख दी। उन्होंने कहा- ‘’पत्रकार निष्पक्षता और निर्भीकता से सत्य को लिखें, लेकिन उसमें प्रामाणिकता होनी चाहिए।‘’
चूंकि यह बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक के मुंह से निकली है इसलिए हो सकता है कि उसे किसी और चश्मे से देखा जाए। लेकिन एक बार को सारे चश्मे उतारकर देखने की कोशिश करें तो क्या यह नहीं लगता कि प्रामाणिकता आज के मीडिया की सबसे बड़ी जरूरत और प्रामाणिकता का अभाव उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही है।
मीडिया का सत्य दरअसल मीडियाकार की अपनी सोच या उसका पक्ष ही होता है। जो अकसर उसकी अधकचरी जानकारियों पर आधारित होता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिसे हम वास्तव में ‘सत्य’ कहते हैं, ‘सत्य’ मानते हैं या जो वास्तव में ‘सत्य’ होना चाहिए, उसका मीडिया के उस ‘सत्य’ से कितना लेना देना है, जो मीडियाकार हमें बता रहा है।
हां, जहां तक निर्भीकता की बात है, तो वह तो आज के मीडियाकारों में कूट कूट कर भरी है, फर्क सिर्फ इतना है कि जिसे नैतिकता के शब्दकोश में निर्भीकता कहा जाता है, पत्रकारिता के शब्दकोश में उसका मायना उच्छृंखलता है। और मीडिया इसका पूरी निष्ठा से पालन व दोहन कर रहा है। इन दोनों का यानी सत्य और निर्भीकता का प्रामाणिकता से कितना लेना देना है, इस पर बात न ही की जाए तो बेहतर है। क्योंकि बात वास्तव में प्रामाणिक हो या न हो लेकिन मीडिया तो अपनी हर खबर को ‘’टेस्टेड एंड फाउंड ओके’’ की सील लगे अंदाज में ही प्रस्तुत करता है।
हालांकि ये कीटाणु सिर्फ मीडिया में ही नहीं हैं। हर जगह ऐसा ही हो रहा है। क्या ये कीटाणु हमें राजनीति और समाज के अन्य संगठनों में दिखाई नहीं देते? आज कई लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी कही हुई बात ही सत्य है और यह सत्य भी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज वाली ‘निर्भीकता’ (या दादागिरी) के साथ समाज पर थोपा जा रहा है।प्रामाणिकता जांचने की तो छोडि़ये, उस पर सवाल उठाने की इजाजत भी नहीं है।
संभवत: सरसंघचालक की नजरों से भी यह बात छुपी नहीं है, इसीलिए उन्होंने एक संदर्भ देते हुए बहुत साफ-साफ कहा कि-‘’किसी की देशभक्ति को मापने का अधिकार किसी को भी नहीं है। कोई अगर खुद को देश का कर्ताधर्ता माने तब भी दूसरों की देशभक्ति नहीं माप सकता।‘’ मेरा मानना है कि संघ समर्थकों और संघ विरोधियों दोनों को इस बयान पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए।
डॉ. भागवत ने बड़ी साफगोई से सत्य, निर्भीकता और प्रामाणिकता के साथ ही एक और शब्द का उल्लेख किया –पोलिटिकली करेक्ट-… उन्होंने कहा यह शब्द आजकल बहुत प्रचलित और कारगर हो चला है। जब भी हमें खुद को बचाना होता है तब हम इस शब्द का इस्तेमाल कर लेते हैं। उन्होंने इस शब्द को लेकर पंचतत्र की एक रोचक कहानी भी सुनाई।
मेरा मानना है कि पूरा समाज ही इन दिनों ‘पोलिटिकली करेक्ट’ वाले रास्ते पर चल पड़ा है। न तो कोई बुराई मोल लेना चाहता है और न भलाई। ऐसे में सत्य और प्रामाणिकता की परवाह का सवाल ही नहीं उठता। और वैसे भी जब फायदा ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने में ही है, तो कोई प्रामाणिक होने की जहमत क्यों उठाए?