अजय बोकिल
‘घुटने टेकना’ यूं तो हिंदी का एक मुहावरा है, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक संदर्भ में इसके अर्थ अलग होते हैं। यानी घुटने किसने टेके, कब टेके और किसके आगे टेके, इसीसे उसका फलितार्थ तय होता है। राजनेता ऐसा करते हैं तो वह ‘राजनीति’ मानी जाती है। लेकिन मामला अफसरों का हो तो यह देखना भी जरूरी है कि किस राजनीतिक चौघडि़या में उन्होंने ‘घुटने टेके।’ वरना अंजाम वही होता है, जो इंदौर में दो वरिष्ठ अधिकारियों का विपक्षी कांग्रेस विधायकों के आगे घुटने टेकने की वजह से हुआ।
वो गए थे समझाने, रवानगी का आदेश लेकर लौटे। कांग्रेस ने शिवराज सरकार द्वारा इन अफसरों को हटाने की आलोचना की तो वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने ‘घुटना टेक प्रकरण’ में यह बयान देकर विवाद को और नया मोड़ दे दिया कि नौकरशाही को हमेशा घुटने टेककर ही रहना चाहिए।
नौकरशाही दवारा विधायिका के आगे घुटने टेकने का ताजा मामला इंदौर में हुआ। वहां कांग्रेस विधायक और पूर्व मंत्री जीतू पटवारी समेत पार्टी के 3 विधायक राज्य में कोरोना से निपटने में राज्य सरकार की नाकामी के खिलाफ सांकेतिक धरने पर बैठे थे। उनकी मांग थी कि लॉकडाउन तोड़ने वाले स्थानीय भाजपा नेताओं के खिलाफ महामारी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया जाए।
इन कांग्रेस नेताओं का धरना समाप्त करवाने कलेक्टर ने एसडीएम राकेश शर्मा और सीएसपी डी.के.तिवारी को धरना स्थल पर भेजा। दोनों अफसरों ने उनसे क्या बात की, यह तो साफ नहीं हुआ, अलबत्ता एक वीडियो जरूर सोशल मीडिया में वायरल हुआ, जिसमें दोनों अफसर पूर्व मंत्री पटवारी समेत तीनों कांग्रेस विधायकों के आगे जमीन पर घुटने टेककर उनसे धरना खत्म करने की ‘मनुहार’ करते दिखे। एसडीएम तो हाथ जोड़ते नजर आए। जब यह वीडियो कलेक्टर तक पहुंचा तो उन्होंने इसे आपत्तिजनक माना। भाजपा नेता भी नाराज दिखे। मामला ‘सरकार’ तक पहुंचा और ‘घुटना टेक अफसरों’ को इंदौर से चलता कर दिया गया।
मध्यप्रदेश के राजनीतिक-प्रशासनिक परिदृश्य में घुटने टेकने का विशेष महत्व रहा है। अफसरों के संदर्भ यह संयोग ही है कि राज्य में दोनों ‘घुटना टेक प्रकरण’ मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के कार्यकाल में ही हुए। एक आला प्रशासनिक अधिकारी द्वारा सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री के आगे घुटने टेकने का मामला शिवराज के पहले मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ था। जब सीहोर के तत्कालीन जिला कलेक्टर एस.के. मिश्रा मंच पर मुख्यमंत्री के आगे घुटने टेककर जानकारी देते दिखे।
ये तस्वीर अखबारों में छपी। कलेक्टर के चेहरे पर गदगद होने का भाव था। उसके कुछ साल बाद ही ये कलेक्टर शिवराज के सबसे करीबी और शक्तिशाली अफसरों में गिने जाने लगे। यानी उन्हें ‘घुटने टेकने’ का सुफल मिला। लेकिन इंदौर के इन दो अधिकारियों की किस्मत ऐसी नहीं थी या फिर उनका ‘राजनीतिक चौघडि़या’ खराब था। उन्हें इतनी समझ शायद नहीं थी कि घुटने किसके आगे और किस मुहूर्त में टेकने चाहिए।
अगर वो किसी भाजपा के मंत्री या नेता के आगे घुटने टेकते तो इस’ विनम्रता’ का उन्हें ‘इनाम’ मिलता। लेकिन दोनों ‘नासमझ’ अफसरों ने घुटने विपक्षी नेताओं के आगे टेके, जो राजनीतिक दृष्टि से अक्षम्य अपराध था। ये अफसर शायद इतना भी नहीं जानते थे कि विपक्ष के धरने या सत्तापक्ष की नाराजी को खत्म करने के लिए भाषिक संवाद के साथ-साथ शारीरिक क्रियाएं भी अलग-अलग होनी चाहिएं।
मसलन सत्ता पक्ष की नाराजी को ‘घुटने टेककर’ ही दूर किया जा सकता है, लेकिन विपक्ष के विरोध को ‘हाथ उठाकर’ ही दूर किया जाना चाहिए। ‘बिटवीन द लाइन्स’ यह कि जहां ‘हाथ उठाने’ चाहिए’ थे, वहां ये अफसर ‘घुटनों के बल’ बैठ गए।
इन दोनों अफसरों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे यह माना गया कि उन्होंने घुटनों के बल बैठकर ‘पद की गरिमा घटाई।’ सवाल यह भी उठा कि तत्कालीन सीहोर कलेक्टर ने जिस ढंग से घुटने टेके थे, तब उससे पद की गरिमा कैसे ‘बढ़ी’ थी? इस यक्ष प्रश्न का जवाब क्या है?
सवाल यह भी है कि धरने पर बैठे कांग्रेस विधायकों को ‘घुटने टेक’ कर मनाने की नौबत क्यों आई? हो सकता है कि धरने पर बैठे विधायकों से दोनों अफसरों ने झुककर बात करने की बजाए सहज भाव से अपने घुटने जमीन पर टेक दिए हों। लेकिन उन्होंने किसी पर उस तरह ‘घुटना धरा’ तो नहीं था, जैसा कि हमने अमेरिका में एक अश्वेत की गर्दन पर गोरे अफसर को धरते देखा था। यहां अफसरों की शक्ल में मानों सरकार घुटने टेकती महसूस हुई।
वैसे हिंदी में ‘टेकने’ को लेकर तीन मुहावरे हैं। पहला ‘घुटने टेकना’, दूसरा ‘मत्था टेकना’ और तीसरा है ‘हाथ टेकना।’ पहले में समर्पण है, दूसरे में ‘श्रद्धा भाव और तीसरे में विवशता है। अब सवाल यह कि ब्यूरोक्रेसी का घुटने टेकना कब ‘गरिमा के अनुकूल’ और कब ‘प्रतिकूल’ होता है? और यह किस आधार पर और किस नीयत से तय होता है? अगर अफसर सरकार के आगे घुटने टेकते हैं तो वह सत्तापक्ष के हिसाब से और नहीं टेकते तो विपक्ष के हिसाब से ‘अनुकूल’ होता है।
ध्यान रहे कि राजनीतिक दल विपक्ष में रहते हुए तो उन अफसरों को याद करते हैं, जिन्होंने सिद्धांतों की खातिर ‘सरकार’ के आगे ‘घुटने टेकने’ से इंकार कर दिया। फिर चाहे उन्हें ‘लूप लाइन’ में जाना पड़ा हो या फिर पद से इस्तीफा ही क्यों न देना पड़ा हो। लेकिन सत्ता का सिंहासन मिलते ही नौकरशाही से उनकी अपेक्षाएं एकदम यू-टर्न ले लेती हैं। यहां उस ‘प्रतिबद्ध ब्यूरोक्रेसी’ की मिसालें दी जाती हैं, जो गर्दन और घुटने दोनों ही झुकाकर चलती है।
इस प्रक्रिया में ‘रीढ़’ की भूमिका उन राजनीतिक दलों के वाचाल प्रवक्ताओं की तरह हो जाती है, जो रात-दिन कुतर्कों के घोड़े हांककर सूरमा बने रहते हैं। वैसे ‘घुटने टेकना’ और ‘घुटनों के बल चलने’ में ज्यादा अंतर नहीं है। व्यवहार में ‘घुटनों के बल चलना’, ‘घुटने टेकने’ का ही एक्स्टेंशन है। दोनों में केवल एक सावधानी रखनी होती है कि घुटने सीधे न हो जाएं और पांव अपने दम पर आगे न बढ़ने लगें। और यह भाव अगर ‘मत्था टेकने’ की सूरत अख्तियार कर ले तो कहना ही क्या?
इंदौर में तैनात अफसरों की बदकिस्मती कहें या नामसझी कि उन्होंने राजनीतिक चौघडि़या को ठीक से नहीं समझा। ‘घुटने टेकने’ का सियासी ‘शुभ-लाभ’ तो उन्हें समझना ही चाहिए था। संविधान में विधायिका को कार्यपालिका से ऊपर माना गया है, लेकिन कार्यपालिका को किन जनप्रतिनिधियों के आगे और कब ‘घुटने टेकना’ चाहिए, इसका कहीं उल्लेख नहीं है।
ये अफसर भी सही नेता के आगे सही समय पर ‘घुटने टेकते’ तो मलाईदार पोस्टिंग ही पाते, बजाए लूप लाइन में जाने के। मंगल घड़ी में घुटने टेकते तो उनके ‘हाथ आसमान को छूते।’ वैसे यह बहुत समझदारी नहीं है कि अफसरों के ‘घुटने टेकने’ को सरकार के ‘सिर झुकने’ से जोड़ कर देखा जाए। सत्ता में रहते हुए दिमाग और घुटने के बीच सुरक्षित डिस्टेंसिंग हर स्तर पर कायम रहनी चाहिए। क्या नहीं?
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टीम मध्यमत