गिरीश उपाध्याय
उत्तरप्रदेश में भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर द्वारा अलग अलग संदर्भों में ‘वेश्या’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर मैंने जुलाई को इस कॉलम में जो लिखा था, उस पर तरह-तरह की प्रतिकियाएं मिली हैं। चूंकि मेरे विचार से यह मामला व्यापक बहस की मांग करता है, इसलिए आज मैं कुछ प्रतिक्रियाओं का जिक्र करते हुए इस मामले पर थोड़ी और बात करना चाहूंगा।
सबसे अलग जो प्रतिक्रिया मुझे लगी वह मेरे पुराने परिचित श्री अखिलेंदु अरजरिया की है। अखिलेंदु अरजरिया से मेरा परिचय करीब तीस साल पुराना है, जब वे ग्वालियर के एडीएम हुआ करते थे। बाद में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के तहत कई पदों पर रहे। इन दिनों वे सोशल मीडिया पर समसामयिक विषयों पर दी जाने वाली काव्यात्मक प्रतिक्रियाओं के कारण काफी चर्चित हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह उनकी कुंडलियों को गाहे बगाहे उद्धृत करते हुए टिप्पणियां करते रहते हैं। पिछले दिनों फेसबुक पर रतलाम की तहसीलदार अमितासिंह द्वारा पोस्ट की गई कुछ टिप्पणियों को लेकर अरजरियाजी की उनसे तीखी बहस चली थी।
इन्हीं अखिलेंदु अरजरिया ने मेरे कॉलम को लेकर फेसबुक पर अपनी टिप्पणी डाली है। आगे बात करने से पहले उस टिप्पणी को जान लीजिए, उन्होंने लिखा है- ‘’मेधा जी को माफी माँगने की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने जो कहा वह न तो अमर्यादित है और न ही उनके खिलाफ कोई प्रकरण बनता है। जो कम्पनियाँ कर रही हैं, वही उन्होंने लिखा है। उन्होंने नर्मदा मैया को वेश्या नहीं कहा और न ही वेश्या से तुलना की है। जिन्हें भाषा का ज्ञान नहीं है, वे ही अर्थ का अनर्थ निकाल रहे हैं। इस प्रकार तो तुलसीदास जी से लेकर आज तक के सभी साहित्यकारों, जन नेताओं के खिलाफ एफ़.आई.आर. दर्ज करने की माँग उठने लगेगी, क्योंकि सभी ने ऐसा कुछ लिखा है, या कहा है जिसका अर्थ का अनर्थ निकल सकता है!’’
मैं अरजरिया जी की बात से सहमत हूं, लेकिन आंशिक रूप से और कुछ असहमतियों के साथ। दरअसल मैंने जो मुद्दा उठाया है, मैं चाहता हूं कि समाज और खासकर बुद्धिजीवी वर्ग उस पर गंभीर विमर्श करे। वो मुद्दा यह है कि हम शब्दों का इस्तेमाल करते समय यह जरूर ध्यान रखें कि उसमें अर्थ का अनर्थ होने की पूरी पूरी संभावनाएं हैं। मैंने अपनी बात ही इसी वाक्य से शुरू की थी कि ‘’बहुत कठिन समय है भाई!’’ दरअसल यह समय कठिन ही नहीं बल्कि दुर्गम है। जहां साधारण तरीके से कही गई बात पर भी खुर्दबीन लगाकर उसमें विवाद की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। गया वो समय, जब ऐसी कई बातें हंसी मजाक में ले ली जाती थी। अब तो गलाकाट राजनीति के शब्दकोश से सद्भाव और सौहार्द जैसे शब्द ही डिलीट कर दिए गए हैं। दूसरे, आज का मीडिया ऐसा है कि वो अच्छे भले आदमी को भी लंगड़ा बना देने को उतारू है।
आज तुलसीदास या साहित्यकारों की रचनाओं और उनके द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा को पढ़ने की फुर्सत किसके पास है? आज के व्याकरणाचार्य तो दयाशंकरसिंह, आजम खान, योगी आदित्यनाथ, निरंजना ज्योति जैसे लोग हैं, जिनका अपना शब्दकोश और अपनी ग्रामर है। ऐसे में यदि मेधा पाटकर जैसे पढ़े लिखे और संजीदा लोग भी उसी धारा में बहने लगेंगे तो समाज से उम्मीद की किरणें भी खत्म होने लगेंगी। अरजरिया जी ने लिखा है कि मेधा को माफी मांगने की जरूरत नहीं थी। गलत! उलटे मेधा पाटकर ने तत्काल माफी मांगकर अपने संजीदा और जिम्मेदार होने का परिचय दिया है। उनसे अपेक्षा भी यही थी।
मेरा मूल प्रश्न ही यही है कि, संदर्भ चाहे जो भी हो, जिस भाषा का इस्तेमाल दयाशंकरसिंह या आजम खान जैसे लोग कर रहे हैं उसी भाषा का इस्तेमाल यदि मेधा पाटकर भी करने लगें तो उनमें और टुच्चे बयान देने वालों में क्या फर्क रह जाएगा? और फिर उसी शब्द को लेकर यदि दयाशंकर पर कार्रवाई हो, तो आप किस मुंह से यह कह सकते हैं कि मेधा पाटकर कहें तो वह शब्द सार्थक है और दयाशंकर कहे तो गाली।
रही बात तुलसी और कई साहित्यकारों के भाषा के इस्तेमाल और उसके अनर्थ निकालने की संभावना की, तो यदि आप इस तर्क की आड़ में मेधा को बरी करते हैं, तब फिर नरेंद्र मोदी या वी.के. सिंह भी कह सकते हैं कि उन्होंने भी शब्दों को मुहावरे की तरह इस्तेमाल किया था। चाहें तो लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी द्वारा समाचार एजेंसी रॉयटर को दिए गए इंटरव्यू के उस अंश को दोबारा पढ़ लें जिस पर तूफान उठ खड़ा हुआ था। गुजरात दंगों को लेकर दुख होने संबंधी सवाल पर मोदी ने कहा था- ‘’दुख तो होता ही है, अगर कुत्ते का बच्चा भी गाड़ी के नीचे आ जाए तो भी दुख तो होता है।‘’
इस वाक्य को तो सहज रूप से नहीं लिया गया। बल्कि इसे अल्पसंख्यकों से जोड़कर बवाल खड़ा कर दिया गया। तो जब मोदी की बात आपत्तिजनक थी, तो मेधा पाटकर की बात सार्थक कैसे हुई? मेधाजी का माफी मांगना स्वयं प्रमाण है कि उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। यह उनकी संवेदना को दर्शाता है।
अंत में एक आपत्ति और निवेदन बिरादरी से भी। हम भी ऐसे बयानों को खांचों या अपने-अपने बाड़ों में खड़े होकर देखना बंद करें। बड़ी मुसीबत अपने बाड़ों में खड़े होकर दी जाने वाली इन प्रतिक्रियाओं से भी हैं। बेहतर होगा कि ‘सहिष्णुता या असहिष्णुता’ के फतवे जारी करते समय हम भी विवेक का थोड़ा सा इस्तेमाल जरूर कर लें। हमसे यह अपेक्षा भी है।