पिता के सूर्य पर ग्रहण का योग

0
1100

गिरीश उपाध्‍याय

पश्चिमी देशों में जिस तरह पारिवारिक रिश्‍तों और मानवीय संबंधों को लेकर अलग अलग दिवस मनाए जाते हैं वैसी कोई परंपरा भारत में नहीं रही है। खून के रिश्‍तों की बात को यदि अलग भी रख दें, तो भी भारत में परिवार, समाज की बुनियादी और आत्‍मीय इकाई है और पारिवारिक संबंध, संवेदना से उपजा सहज मानवीय गुण। न तो इन संबंधों और सहज मानवीय प्रवृत्तियों को किसी दिन विशेष में बांधा जा सकता है और न ही किसी दिन विशेष को मनाने से उनका महत्‍व स्‍थापित किया जा सकता है।

लेकिन इसके बावजूद भारतीय संस्‍कृति पर पड़ने वाले पाश्‍चात्‍य प्रभाव के चलते, युवा पीढ़ी में इस तरह के दिनों को मनाने की प्रथा शुरू हो गई है और धीरे धीरे इसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है। मैं आज इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि हमें इस तरह के दिन मनाने चाहिये या नहीं। लेकिन मैं 21 जून 2020 को पड़ने वाले कुछ संयोगों और उनसे जुड़ी परिस्थितिजन्‍य वास्‍तविकताओं की ओर आपका ध्‍यान दिलाना चाहूंगा।

सबसे अहम बात मुझे इस बार के 21 जून से जुड़ी तीन बातों/घटनाओं के परस्‍पर संबंधों में नजर आती है। इस दिन फॉदर्स डे भी है, अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस भी और सूर्यग्रहण भी। और इन तीनों बातों को जोड़कर यदि देखें, तो आज के भारतीय समाज की स्थिति के संदर्भ में जो बात उभरकर आती है वो ये है कि यह दिन पिता के सूर्य पर ग्रहण का योग बना रहा है।

पिता हमारे यहां वंश को चलाने वाली बॉयोलॉजिकल इकाई होने के साथ साथ परिवार का पालनकर्ता भी है। हमारे यहां सृष्टि के रचयिता और पालक ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा गया है। परिवार में पिता की सबसे अहम भूमिका पालक और पोषक की है। सूर्य को हमारे यहां मानव जीवन और सृष्टि संचालन के सबसे प्रमुख कारक के रूप में देखा जाता है। और जिस तरह 21 जून को सूर्य पर ग्रहण लगा है उसी तरह भारतीय समाज में कोरोना काल के प्रभाव के चलते परिवार के पालक यानी पिता पर भी इन दिनों एक तरह से ग्रहण के हालात बने हैं। अपनी वर्तमान आजीविका के छिन जाने से ऐसे सभी पालकों या पिताओं के सामने परिवार को पालने पोसने के लिए तरह तरह के ‘योग’ की स्थितियां बनी है। यानी एक तरह से यह समय भारतीय समाज में पिताओं के लिए योग-काल है।

सवाल उठता है कि समाज में पिता नामकी संस्‍था में पिछले कुछ दशकों में क्‍या परिवर्तन आया है। गहराई से देखें तो हम पाएंगे कि पिता की भूमिका में व्‍यावहारिक स्‍तर पर बहुत ज्‍यादा बदलाव हुआ है। एक समय था जब परिवार के पालक या संचालनकर्ता के रूप में पिता का शारीरिक रूप से सक्षम और सबल होना पर्याप्‍त समझा जाता था। लेकिन बदलते समय के साथ उसे शारीरिक और मानसिक दोनों स्‍तरों पर खुद को सक्षम बनाए रखना जरूरी हो गया है। इसमें भी तुलनात्‍मक रूप से उस पर मानसिक दबाव तो बहुत ही ज्‍यादा बढ़ा है।

यह दबाव सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिवेश में आए बदलाव का नतीजा है। मानसिक दबाव के बढ़ते दायरे के कारण पिता की शारीरिक क्षमता लगातार प्रभावित हो रही है। पिता के शारीरिक और मानसिक दोनों स्‍तरों पर जूझने का असर पूरे परिवार पर पड़ रहा है।

हम यदि इन दबावों के कारणों को खोजें तो पहला और सबसे प्रमुख कारण तो संयुक्‍त परिवारों का लगातार खत्‍म होते जाना है। संयुक्‍त परिवारों में यह सुविधा रहती थी कि पिता परिवार पालन के लिए अपनी शारीरिक क्षमताओं को झोंक सकता था और उसकी अनुपस्थिति में, घर में, परिवार के बुजुर्ग, बाकी सदस्‍यों पर आने वाले मानसिक दबाव या तनाव को कम करने का काम कर लेते थे। लेकिन अब यह स्थिति धीरे धीरे खत्‍म होती जा रही है। इसलिए पिता पर आजीविका या घर के बाहर का दबाव और तनाव तो है ही, उस पर घर के भीतर की परिस्थितियों का दबाव और तनाव भी है।

भारतीय समाज को मोटे तौर पर पितृसत्‍तात्‍मक समाज माना या कहा जाता है। एक समय था जब संतान बाहरी दुनिया को पिता की ही आंखों से देखती और जानती थी। अपने भविष्‍य की संभावनाएं खोजने के लिए भी वे पिता पर ही आश्रित रहती थीं। एक तरह से वे अपने लिए सपने भी पिता की आंखों से ही देखती थीं। या कि पिता अपने अधूरे सपनों को संतान की आंखों में डालकर उनके पूरे होने की उम्‍मीद लगाता था।

लेकिन संचार के संसाधनों ने संतानों को बहुत कुछ अपनी आंखों से देखने और स्‍वयं के लिए संभावनाओं का पता लगाने के कई दरवाजे खोल दिए हैं। अब वे बहुत सारे निर्णयों को लेकर पिता पर निर्भर नहीं रहे हैं। और ऐसा छोटी उम्र से ही होने लगा है। ऐसे में पिता और संतान के बीच एक अनचाहे टकराव या तनाव की स्थिति बन रही है।

आज का युवा अपने कॅरियर के सपने को पूरा करने में किसी का दखल नहीं चाहता। यहां तक कि माता-पिता का भी नहीं। पहले वह पिता के दखल की बाट देखता था, लेकिन अब पिता इस सोच में रहता है कि पता नहीं मैं संतान के लिए जो भविष्‍य या कॅरियर देख रहा हूं, वो उसे पसंद भी आएगा या नहीं। कई परिवारों में ऐसी स्थितियां बन रही हैं, जहां संतानें अपने पैतृक व्‍यवसाय तक को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्‍हें बाहर रहकर नौकरी करना या संघर्ष करना मंजूर है, लेकिन घर के जमे जमाए कारोबार को चलाना या उसमें अपना कॅरियर तलाशना मंजूर नहीं।

शिक्षा और रोजगार के लिहाज से परिवार से दूरी ने भी पिता और संतानों के बीच के रिश्‍तें को बहुत हद तक प्रभावित किया है। पहले संतान के घर में ही रहने के कारण पिता और संतान के बीच एक नियमित और प्रत्‍यक्ष संवाद की स्थिति बनी रहती थी। भले ही पिता रोज संतान के साथ बैठकर बात न करता हो लेकिन संतान की घर में मौजूदगी, किसी भी संभावित संकट को भांपने और उससे निपटने के लिए संवाद करने में मददगार होती थी।

अब अव्‍वल तो ऐसा संवाद संभव ही नहीं रहा और यदि संवाद होता भी है तो वह रियल न होकर वर्चुअल होता है। और कई बार तो उस संवाद का होना भी संवाद की जरूरत पर नहीं ब्रॉडबैंड की स्‍पीड पर निर्भर करने लगा है। ऐसे में अवसाद के हालत बनने और उनसे निपटने में असफल होने का खतरा भी बढ़ा है।

परिवार के सदस्‍यों के बीच परंपरागत रूप से चलती आई बांडिंग पर असर तो कई साल पहले से ही शुरू हो गया था, लेकिन हाल के कुछ सालों में इन रिश्‍तों की रिसन/छीजन और बढ़ी है। इसके चलते संतानों और पिता या पालक के संबंधों में भी जटिलताएं उभरी हैं। अभी तक पिता बच्‍चों की समस्‍याओं को लेकर उनकी काउंसलिंग करवाते रहे हैं, लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि आने वाले दिन माता-पिताओं के लिए भी इस तरह की काउंसलिंग जरूरी बना सकते हैं, जहां उन्‍हें यह सिखाया जाए कि बदली हुई परिस्थितियों में वे अपनी संतानों से कैसे व्‍यवहार करें, ताकि माता-पिता और संतान के बीच परस्‍पर रिश्‍तों की डोर टूटने से बच जाए।

कोरोना काल ने तो पिता और संतान के संबंधों को और अधिक जटिल बना दिया है। दोनों पर मनोवैज्ञानिक दबाव और बढ़ा है। उन घरों में स्थिति जटिल हो गई है जहां पिता या पुत्र की आजीविका छिन गई है। और जहां दोनों की ही आजीविका पर संकट आ गया है वहां तो हालात और गंभीर हैं। कोरोना का यह संकट जल्‍दी टलने वाला नहीं है। इसके चलते परिवार नाम की इकाई और खासतौर से पिता और संतान के रिश्‍तों पर क्‍या असर होगा और भविष्‍य में यह असर किस सामाजिक बदलाव के रूप में सामने आएगा कहना मुश्किल है।

फादर्स डे पर शुभकामनाओं के आदान प्रदान के साथ ही यह विचार भी होना ही चाहिए कि इन बदलते हालात में, परिवार में पिता अपनी भूमिका को किस तरह नए सिरे से परिभाषित करे और परिवार भी पिता की चिंताओं को लेकर अपनी भूमिका में क्‍या बदलाव लाए।

————————————-

आग्रह

कृपया नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर मध्‍यमत यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें।

https://www.youtube.com/c/madhyamat

टीम मध्‍यमत

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here