मध्यप्रदेश में नई सरकार बनने के बाद हाल ही में हुई कुछ घटनाओं पर बात करना जरूरी है। इसलिए नहीं कि यह किसी की ‘व्यक्तिगत आलोचना’ है बल्कि इसलिए कि ये घटनाएं सरकार की छवि पर बन सकने वाले कोहरे की ओर इशारा करती हैं। बात करने का मकसद यह भी है कि ऐसी घटनाएं सरकार और लोगों, दोनों का ध्यान बंटाती हैं और व्यवस्था को अनावश्यक बातों में ऊर्जा खर्च करने को बाध्य करती हैं।
पहली घटना पिछले साल के अंतिम दिन की है। जब राज्य के नए श्रम मंत्री महेंद्रसिंह सिसोदिया मंत्री बनने के बाद पहली बार अपने क्षेत्र में पहुंचे थे। हिनौतिया गांव में स्वागत सत्कार के दौरान कार्यकताओं ने उनसे अफसरों की शिकायत की। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस पर मंत्री ने कहा ‘किसी भी अधिकारी को फोन लगाओ और वह काम नहीं करे, तो मुझे बताओ। काम न करने वाले अफसरों को लात मारकर बाहर कर देंगे।’ यह टिप्पणी महेंद्रसिंह सिसोदिया की छवि के विपरीत थी।
अब यह तो किसी से छिपा नहीं है कि यह आर-पारदर्शिता का जमाना है। यहां सारा खेल वाट्सएपियों के हाथ में होता है। मंत्रीजी के मुंह से जब वह बात निकली तो, हर हरकत को रस्मी तौर पर अपने मोबाइल में कैद करने वाले ऐसे ही किसी बंदे ने उसे रिकार्ड कर लिया और देखते ही देखते वह बयान वायरल हो गया।
लेकिन ऐसे मामले तूल तब पकड़ते हैं जब आप अपनी गलती या चूक को जस्टिफाई करने की कोशिश करें। थोड़ी सी शुरुआती हिचक के बाद महेंद्रसिंह सिसोदिया ने समझदारी दिखाई और अपनी गलती मानते हुए कहा कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। घटना को लेकर मीडिया के सवालों पर उनका जवाब था- ‘’प्रदेश की सरकार भ्रष्ट और लापरवाह अधिकारियों को बर्दाश्त नहीं करेगी। पिछले दिनों उनसे एक शब्द का चयन गलत हो गया था जिसे वह ‘विदड्रॉ’ करते हैं।‘’ उनके इतना कहते ही बात खत्म हो गई।
हाल ही में ऐसे ही एक और मामले ने तूल पकड़ा। यह मामला ज्यादा बड़ा और संगीन इसलिए था क्योंकि इसमें खुद मुख्यमंत्री कमलनाथ इन्वाल्व थे। हुआ यूं कि जबलपुर में एक सरकारी स्कूल के प्रधान अध्यापक ने किसी कार्यक्रम में पिछली और नई सरकार के कामकाज की तुलना करते हुए कमलनाथ को ‘डाकू’ कह दिया।
इस घटना का वीडियो भी तुरंत वायरल हो गया और कांग्रेस के नेताओं ने इसकी शिकायत जिला कलेक्टर छवि भारद्वाज से की। कलेक्टर ने संबंधित प्रधान अध्यापक मुकेश तिवारी को सिविल सेवा आचरण नियम के उल्लंघन का दोषी करार देते हुए निलंबित कर दिया। लेकिन कमलनाथ ने अफसरों के इस कदम पर जो रुख अपनाया वह उनके बड़े नेता होने का उदाहरण प्रस्तुत करता है। मुख्यमंत्री ने बड़प्पन दिखाते हुए कहा- किसी को भी अपनी बात कहने की छूट है, मैं उस शिक्षक को माफ करता हूं।
इस बारे में मुख्यमंत्री की ओर से जारी बयान में कहा गया- ‘’मुझे जानकारी हुई है कि जबलपुर में एक शासकीय विद्यालय में पदस्थ अध्यापक द्वारा एक बैठक में मेरा नाम लेकर डाकू शब्द कहे जाने का वीडियो सामने आया। इसकी शिकायत मिलने पर उन्हें सिविल सेवा आचरण नियम के तहत निलंबित किया गया है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है।‘’
कमलनाथ ने आगे कहा- ‘’यह सही है कि शासकीय सेवा में पदस्थ रहते हुए उनका यह आचरण नियमों का उल्लंघन हो सकता है, इसलिए उन पर निलंबन की कार्रवाई की गई, लेकिन मैं सोचता हूं कि उन्होंने इस पद पर आने के लिए कितने सालों तक मेहनत की होगी। निलंबन की कार्रवाई से उन्हें परेशानियों से गुजरना पड़ सकता है। कार्रवाई नियमों के हिसाब से सही हो सकती है लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से इन्हें माफ करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि इन पर कोई कार्रवाई हो। एक शिक्षक का काम होता है, विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा देना। उम्मीद करता हूं कि वे भविष्य में अपने कर्तव्यों पर ध्यान देंगे।‘’
मुख्यमंत्री का यह बयान सामने आते ही सरकारी मशीनरी सक्रिय हुई और सरकार के मुखिया की मंशा के अनुरूप उस शिक्षक का निलंबन निरस्त कर दिया गया। जाहिर है कमलनाथ के इस कदम ने उनके कद को और ऊंचा किया। यह रवैया अपनाकर उन्होंने संकेत दिया कि वे ऐसी छोटी मोटी बातों को लेकर उलझने या अपना समय जाया करने में भरोसा नहीं करते।
समाज में हर तरह के लोग होते हैं और जब तरह तरह के लोग हैं तो वे तरह तरह की बातें भी करेंगे, ऐसे में हरेक बात पर यदि नेता या सरकारें रिएक्ट करने लगें तो काम ही नहीं कर पाएंगे। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि इन बातों को अव्वल तो तूल ही न दिया जाए और यदि मीडिया तूल देने की कोशिश भी करे तो तुरंत अपनी गलती को स्वीकार कर बात को वहीं खत्म कर दिया जाए।
पर ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री की यह मंशा उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों और अफसरशाही तक ठीक से पहुंच नहीं रही। एक तरफ खुद को डाकू तक कह देने वाले को कमलनाथ माफ करते हुए उसके खिलाफ कार्रवाई निरस्त करवाते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के सहयोगी एक मंत्री को एक मंदिर में थोड़ी दूरी पर जूते उतारने की बात कहना इतना बड़ा जुर्म बन जाता है कि मंदिर के प्रशासक को ही हटा दिया जाता है।
मंदिर वाला यह किस्सा उज्जैन का है। हुआ यूं था कि राज्य के पर्यटन मंत्री सुरेंद्रसिंह बघेल ने 11 जनवरी को रामघाट व त्रिवेणी घाट का निरीक्षण किया। इसी दौरान जब वे महाकाल मंदिर दर्शन के लिए पहुंचे तो कर्मचारियों ने धर्मशाला के पास ही उनके जूते उतरवा दिए। यह तो पता नहीं कि मंदिर कर्मचारियों की इस हरकत पर मंत्री की क्या प्रतिक्रिया थी लेकिन तराना क्षेत्र के विधायक महेश परमार को इस पर खासी आपत्ति हुई। उनका कहना था कि वीआइपी कोटितीर्थ कुंड तक जूते सहित जाते हैं। उन्होंने बड़े अफसरों तक अपना विरोध दर्ज कराया और उसके बाद मंदिर प्रशासक को हटा देने वाली घटना हुई।
अब इसमें मंत्रीजी की नाराजी का कितना हाथ है और कितना नहीं यह तो साफ नहीं है, लेकिन प्रशासक को हटाए जाने के फैसले को देखा तो इसी नजर से जा रहा है। दरअसल ऐसी घटनाओं से यह सवाल उठना लाजमी है कि जब सरकार का मुखिया अपने फैसलों से अपने सहयोगियों को कोई संदेश दे रहा है तो वह संदेश वे समझ भी रहे हैं या नहीं। या वे अपने ही मुख्यमंत्री की मंशा के विपरीत छोटी मोटी बातों को तूल बनवाकर यूं ही सरकार को उलझाए रखने पर तुले हैं।