क्‍या आप सांस ले रहे हैं?  तो उसका भी पैसा देना पड़ेगा…

आज फिर अपने प्रिय उपन्‍यास राग दरबारी की याद…

आप सोचते होंगे कि यह मुझे रह रहकर राग दरबारी की याद क्‍यों आ जाती है? तो उसका सहज, सरल उत्‍तर यह है कि मुझे ऐसा लगता है कि देश में जो कुछ चल रहा है वह राग दरबारी जैसा ही है, उससे कुछ अलग नहीं। इसलिए जब भी मुझे देश को समझना होता है,मैं राग दरबारी का पारायण कर लेता हूं, क्‍योंकि आप चाहे देश को समझें या राग दरबारीको, बात एक ही है।

तो मुझे आज राग दरबारी की याद यूं आई कि उसमें शिवपालगंज की एक कोऑपरेटिव यूनियन में हुए गबन से जुड़ा बहुत दिलचस्‍प किस्‍सा है। किस्‍सा लंबा है सो आपके लिए उसे संपादित रूप में पेश कर रहा हूं। श्रीलाल शुक्‍ल लिखते हैं…

‘’कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था। न इसमें जाली दस्तखतों की जरूरत पड़ी थी, न फर्जी हिसाब बनाया गया था, न नकली बिल पर रुपया निकाला गया था। ऐसा गबन करने और ऐसे गबन को समझने के लिए किसी टेक्निकल योग्यता की नहीं, केवल इच्छा-शक्ति की जरूरत थी।‘’

‘’कोऑपरेटिव यूनियन का एक बीज गोदाम था जिसमें गेहूँ भरा हुआ था। एक दिन यूनियन का सुपरवाइजर रामसरुप दो ट्रक साथ में लेकर बीज गोदाम पर आया। ट्रकों पर गेहूँ के बोरे लाद लिये गये। दूर से देखने वालों ने समझा कि यह तो कोऑपरेटिव में रोज होता ही रहता है। वे बोरे पड़ोस के दूसरे बीज गोदाम में पहुँचाने के लिए रामसरुप खुद एक ड्राइवर के बगल में बैठ गया और ट्रक चल पड़े। सड़क से एक जगह कच्चे रास्ते पर मुड़ जाने से पाँच मील आगे दूसरा बीजगोदाम मिल जाता; पर ट्रक उस जगह नहीं मुडे़, वे सीधे चले गये।

यहीं से गबन शुरू हो गया…।

किस्‍सा लंबा है, लेकिन बाद में होता यह है कि गबन की सूचना मिलने पर कोऑपरेटिव यूनियन के डाइरेक्‍टरों की बैठक बुलाकर उसमें एक प्रस्‍ताव पारित किया जाता है। प्रस्‍ताव में मांग की जाती है कि गबन के कारण यूनियन को जो आठ हजार रुपये की हानि हुई है,उसकी क्षतिपूर्ति के लिए सरकार अनुदान दे। इस प्रस्‍ताव पर सवाल उठाते हुए उपन्‍यास का ही एक पात्र रंगनाथ कथा के सबसे प्रभावी पात्र वैद्यजी से पूछता है- “सरकार से क्या मतलब?गबन आपकी यूनियन के सुपरवाइजर ने किया और उसका हरजाना सरकार क्‍यों दे?”

वैद्यजी का जवाब आता है- “तो कौन देगा? सुपरवाइजर तो अलक्षित हो चुका है। हमने पुलिस में सूचना दे दी है। आगे सरकार का दायित्व है। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। होता, तो सुपरवाइजर को पकड़कर उससे गेहूं का मूल्य वसूल लेते। अब जो करना है, सरकार करे। या तो सरकार सुपरवाइजर को बन्दी बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करे या कुछ और करे। जो भी हो, यदि सरकार चाहती है कि हमारी यूनियन जीवित रहे और उसके द्वारा जनता का कल्याण होता रहे तो उसे ही यह हरजाना भरना पड़ेगा। अन्यथा यह यूनियन बैठ जायेगी। हमने अपना काम कर दिया, आगे का काम सरकार का है।”

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अब इस कथा को याद करने का असली कारण…

इन दिनों आर्थिक मोर्चे और वित्‍तीय व्‍यवस्‍था में हो रही भारी उथल पुथल की बड़ी चर्चा है। ऐसे में रविवार को वित्‍त मंत्री अरुण जेटली का बयान आया कि लोग यदि विकास चाहते हैं तो उन्‍हें इसकी कीमत चुकानी होगी। जेटली के इस बयान से ही मुझे ‘राग दरबारी’ याद आया जिसमें वैद्यजी कहते हैं कि सरकार यादि सहकारिता आंदोलन को चलाए रखना चाहती है तो उसे कोऑपरेटिव यूनियन में हुए गबन की भरपाई करनी होगी।

यानी अब आप भूल जाइए महंगाई कम होने या करों में राहत मिलने की बातें। सरकार ने साफ कह दिया है कि यदि आपको विकास चाहिए तो पैसा खर्च करना होगा। इसका सीधा मतलब यह है कि सरकार और जनता के बीच न तो लोकतांत्रिक रूप से चुने गए शासक और शासित का कोई रिश्‍ता है और न ही यह लोककल्‍याणकारी राज्‍य है। अब तो सरकार कारोबारी बनकर दुकान चला रही है। पैसा दीजिए तो माल मिलेगा वरना नहीं।

अब तक नेता अपने चुनावी वायदों में और राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में विकास के बड़े बड़े दावे किया करते थे। जनता से कहा जाता था कि आप यदि हमें वोट देंगे तो हम आपके लिए ये करेंगे, वो करेंगे, लेकिन अब ये सारे फंडे बीते जमाने की बात हो गए हैं। अब सरकार सीधे सीधे पैसे के खेल पर उतर आई है। पैसा दो तो विकास मिलेगा वरना नहीं। आजादी से पहले भारत में एक नारा बहुत मशहूर हुआ था- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्‍हें आजादी दूंगा। लेकिन आजाद भारत का आज का नारा है- तुम मुझे पैसे दो, (तभी) मैं तुम्‍हें विकास दूंगा…

गुजरात में विकास के पागल होने का नारा खूब चल रहा है। लेकिन लगता है विकास पागल ही नहीं हुआ वह विशुद्ध साहूकारी हो गया है। और जनता सबकुछ सहकर भी चुप रहने को मजबूर है। अरे जब पैसा देकर ही चीजें खरीदनी है तो फिर सरकार की जरूरत ही क्‍या है। और यह वसूली भी जिस तरीके से हो रही है उसका क्‍या? मनमाने टैक्‍स लगाए जा रहे हैं,दिन रात वसूली के नए नए तरीके खोजे जा रहे हैं। जहां राहत दी जा सकती है, (पेट्रोल और डीजल पर लिए जाने वाले अनाप शनाप टैक्‍स इसका उदाहरण हैं) वहां आप राहत नहीं दे रहे। आपके मंत्रियों की नजर में मोटरसाइकल पर चलने वाला आदमी धनपति है, भले ही उसने अपना दुपहिया लोन पर उठाया हो और भले ही वह जैसे तैसे उससे अपना रोजगार चला रहा हो लेकिन आपकी नजर में उसकी जेब लूट लिए जाने योग्‍य है।

इस रवैये को देखते हुए तो लगता है वह दिन दूर नहीं जब सरकार आपसे कहे- आप हमारी हवा से सांस लेते हैं, सांस लेनी है तो उसका भी पैसा देना पड़ेगा…

 

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