मैं इस बात को पहले भी कह चुका हूं कि अर्थशास्त्र का सिद्धांत ‘बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’ सिर्फ अर्थजगत तक ही सीमित नहीं है। इसे अलग अलग रूपों और संदर्भों में जीवन के अनेक क्षेत्रों में देखा जा सकता है और इस्तेमाल भी किया जा सकता है। इसी सिद्धांत की तर्ज पर आप मीडिया की दुनिया के लिए भी कह सकते हैं कि हर नई खबर पुरानी खबर को चलन और चर्चा से बाहर कर देती है।
यकीन न आए तो अभी-अभी की कुछ घटनाओं को याद कीजिये। हैदराबाद में वेटरनरी डॉक्टर की रेप के बाद की गई हत्या का प्रकरण ही ले लें। उस घटना के बाद देश भर में मानो भूचाल आ गया था। जगह जगह प्रदर्शन और विरोध हो रहे थे। हैदराबाद की पुलिस चौतरफा आरोपों से कठघरे में थी। लेकिन चंद दिनों में ही मानो पांसा ही पलट गया। खबर आई कि पुलिस की हिरासत से भागते हुए चारों आरोपी मुठभेड़ में मारे गए।
जैसे ही यह खबर आई पूरे देश का मूड ही बदल गया। आए दिन दुष्कर्म और उसके बाद हत्या की घटनाओं से हटकर फोकस इस बात पर चला गया कि ऐसे अपराधों के आरोपियों को ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए। देश भर में हैदराबाद पुलिस की जयजयकार होने लगी। लोग हैदराबाद पुलिस के लिए फूलों की वर्षा करने लगे, उनकी चलाई गई गोलियों के बदले उन्हें मिठाई खिलाई जाने लगी। लोगों ने पुलिस वालों को सैल्यूट किया और उनके पैर भी छुए।
यह मामला चल ही रहा था कि लोगों ने इसी संदर्भ में दिल्ली के निर्भया कांड का मामला उठाते हुए चर्चा को इस बात पर मोड़ दिया कि देखो हैदराबाद में तत्काल फैसला हो गया लेकिन निर्भया के परिवार को सात साल बाद भी न्याय नहीं मिला। बहस इस बात पर होने लगी कि कानून में ऐसा संशोधन हो कि दुष्कर्म के मामलों में दी जाने वाली सजा जल्द से जल्द मिले।
देश इस पर कोई फैसलाकुन बहस कर पाता उससे पहले सरकार संसद में नागरिकता संशोधन कानून ले आई। आनन फानन में लाया गया यह बिल न सिर्फ संसद में पेश हुआ बल्कि दो दिनों के भीतर संसद से पास होकर राष्ट्रपति के पास पहुंचा और उनसे मंजूरी मिलने के बाद कानून भी बन गया। जो विपक्ष संसद में नागरिकता संशोधन बिल को पास होने से नहीं रोक सका था वह सड़कों पर उतर आया और कई राज्यों ने इसे अपने यहां लागू न करने को ऐलान करते हुए विरोध का बिगुल बजा दिया।
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर देश भर में विरोध की लहर उठी। कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं रहा और मीडिया एवं खबरों का सारा फोकस इसी के इर्दगिर्द घूमने लगा। सड़कों पर निकले लोग, पथराव करते लोग, आग लगाते लोग, पुलिस को घेरकर मारते लोग, लोगों पर लाठियां बरसाती पुलिस, आंसूगैस के गोले छोड़ती पुलिस ये सब दृश्य टीवी चैनलों पर चलने लगे। मुद्दा सीएए से हटकर पुलिस की बर्बरता और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान और हिंसा पर केंद्रित हो गया।
जब यह बात चल ही रही थी कि जामिया मिलिया में पुलिस घुस गई। उस इलाके में हुई हिंसा और विवि में पुलिस की कार्रवाई ने फिर फोकस बदल दिया। मामला छात्रों के दमन और शिक्षा परिसरों में पुलिस के घुसने पर केंद्रित हो गया। कहा जाने लगा कि पुलिस आखिर ऐसे कैसे शिक्षा संस्थानों में घुस सकती है और ऐसे कैसे होस्टलों और लाइब्रेरी तक में जाकर बच्चों को लहूलुहान कर सकती है।
जामिया की घटना को लेकर देश के कई विश्वविद्यालय और शिक्षा संस्थान के छात्र सड़कों पर उतर आए और मीडिया के कैमरे छात्रों के आंदोलन और सड़कों पर उनके प्रदर्शन को दिखाने लगे। इसी बीच कानपुर आईआईटी में पाकिस्तान के मशहूर शायद फैज अहमद फैज की नज्म गाए जाने को लेकर आपत्ति हुई और संस्थान के प्रशासन ने इस बात की जांच के लिए कमेटी बिठा दी कि फैज की नज्म ‘हम देखेंगे’ क्या हिन्दू विरोधी है… बस फिर क्या था बहस इस बात पर केंद्रित हो गई कि क्या अब सरकारें कविताओं को हिंदू मुस्लिम होने का सर्टिफिकेट बांटेंगी।
यह सब चल ही रहा था कि 5 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कुछ हथियारबंद गुंडों ने घुसकर छात्रों की जमकर पिटाई कर दी। सारा मीडिया उसके बाद जेएनयू की ओर दौड़ पड़ा। लहूलुहान छात्रों के फोटो और वीडियो वायरल होने लगे। पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल किए जाने लगे। जिस पुलिस के जामिया में प्रवेश पर तूफान खड़ा हो गया था उसी पुलिस से पूछा जाने लगा कि वह जेएनयू में क्यों नहीं आई।
जब यह हल्ला चल ही रहा था तभी 7 जनवरी को दो घटनाएं हुईं। पहली तो यह कि दिल्ली की अदालत ने सात साल बाद आखिरकार निर्भया मामले के दोषियों के खिलाफ डेथ वारंट जारी कर दिया। दूसरी यह कि चर्चित अभिनेत्री दीपिका पादुकोण हिंसा का शिकार हुए जेएनयू के आंदोलनरत छात्रों से मिलने जेएनयू परिसर में पहुंच गईं। मीडिया का फोकस दोनों घटनाओं पर बराबर बंट गया।
और आज जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं मेरे सामने टीवी पर बहस इस बात की हो रही है कि दीपिका का जेएनयू जाना वहां के छात्रों के समर्थन में खड़ा होना था या अपने आने वाली फिल्म ‘छपाक’ का परोक्ष रूप से प्रमोशन करना। दरअसल ‘छपाक’ एसिड हमले का शिकार हुई युवती लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर आधारित फिल्म है और यह फिल्म 10 जनवरी से सिनेमाघरों में लगने वाली है। इस फिल्म में दीपिका ने सिर्फ मुख्य भूमिका ही अदा नहीं की है बल्कि वे गुलजार की बेटी मेघना गुलजार के साथ इस फिल्म की प्रोड्यूसर भी हैं।
‘छपाक’ इसलिए चर्चा में आई कि भाजपा के ही कुछ नेताओं ने दीपिका के जेएनयू में जाने से खफा होकर, उन्हें कथित ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का समर्थक बताते हुए यह आह्वान कर डाला कि ‘छपाक’ का बहिष्कार किया जाए। जैसे ही यह मांग आई मुद्दा फिर बदल गया और ताजा स्थिति यह है कि सीएए, जामिया, जेएनयू हिंसा के गुंडों की गिरफ्तारी और उन पर कार्रवाई सब एक तरफ, बात इस पर आ टिकी है कि ‘छपाक’ को देखा जाए या नहीं…
पता नहीं आप देश के चेहरे पर रोज फेंके जाने वाले इस एसिड की जलन और झुलसन को महसूस कर पा रहे हैं या नहीं… पुराने चेहरे को ओझल कर रोज नया चेहरा आपके सामने पटक देने की साजिश को समझ पा रहे हैं या नहीं…