मैं जानता हूं कि यह समय हरेक घटना को राजनीतिक चश्मे से देखने का है। इस कठिन समय में कोई सही बात कहना भी खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि इस समय में बात का सही या गलत होना मायने नहीं रखता, उसका ‘पॉलिटिकली करेक्ट‘ होना मायने रखता है। इसीलिए जो भी बोला जा रहा है, उसे पहले राजनीति की तराजू पर रख कर देखा जा रहा है।
लेकिन इसके बावजूद शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए कि ‘’हमारी लड़ाई कश्मीर के लिए है, कश्मीरियों के खिलाफ नहीं है।‘’ यह बयान समय की मांग था। मोदी ने राजस्थान के टोंक में जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि कश्मीरी बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है। हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं और कश्मीर का बच्चा बच्चा आतंकवादियों के खिलाफ है।
प्रधानमंत्री का कहना था कि आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में हमें कश्मीर के बच्चों को अपने साथ रखना है। देश में कश्मीरियों के खिलाफ कोई भी घटना होती है तो वह गलत है। इससे देशविरोधी ताकतों को बढ़ावा मिलता है। हिन्दुस्तान के किसी भी कोने में कश्मीर के लाल की हिफाजत करना देश के हर नागरिक का कर्तव्य है।
दरअसल प्रधानमंत्री को यह बयान इसलिए देना पड़ा क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी खबरें आने लगी हैं कि वहां कश्मीरियों को प्रताडि़त किया जा रहा है। उन्हें संबंधित राज्य को छोड़कर चले जाने को कहा जा रहा है। उनसे ऐसा व्यवहार किया जा रहा है मानों हर कश्मीरी आतंकवादी या आतंकवाद का हिमायती हो।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट भी केंद्र व राज्य सरकारों को मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों के जरिए निर्देशित कर चुका है कि कश्मीरी छात्रों, नागरिकों और अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने, उनका बहिष्कार करने, उनके साथ मारपीट की घटनाओं को रोकने के पुख्ता इंतजाम करें और ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।
इस मामले में सरकार, कोर्ट और पुलिस-प्रशासन से भी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की है। अकसर देखा गया है कि जब भी इस तरह की कोई घटना होती है उसे बहुत बढ़ा चढ़ाकर या बार बार दिखाया जाता है। महाराष्ट्र की एक घटना को टीवी चैनलों ने ऐसे बार-बार दिखाया जैसे एकता कपूर के किसी घरफोड़ू सीरियल के किसी पात्र को पड़ने वाला थप्पड़ पच्चीस पचास बार दिखाया जाता है।
ऐसी घटना हो जाने के बाद मीडिया का संयम बरतना और घटना की प्रस्तुति में इस बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि उससे कहीं नकारात्मक या समाज में विघटनकारी भाव तो नहीं फैल रहा। यदि कोई खबर, खबर न रहकर समाज में वैमनस्य और हिंसा का कारण बनने वाली हो तो वैसी खबरों का न दिखाया जाना ही बेहतर है। इस तरह के दृश्य एक तरफ लोगों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं दूसरी तरफ घटना का शिकार हो रहे लोगों में बदले की भावना जाग्रत करते हैं।
चाहे राजनीतिक क्षेत्र की बात हो या मीडिया की, इन दिनों हर कोई उकसाने या भड़काने वाली बातें कर रहा है। लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि चाहे किसी राज्य विशेष का मामला हो या किसी समुदाय विशेष का। ये इसी देश का हिस्सा हैं। आतंकी या अलगाववादी गतिविधियों में शामिल होने वालों या उन्हें अंजाम देने वाले मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दें तो बाकी लोग इस देश के नागरिक हैं और उनके पास भी उतने ही कानूनी, समाजिक और मानव अधिकार हैं जितने देश के अन्य नागरिकों के पास हैं।
कश्मीर में यदि कोई जघन्य घटना हुई है तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसके लिए हरेक कश्मीरी को जिम्मेदार माना जाए। आतंकवादियों का बदला आम कश्मीरी से लिया जाए। यह देश इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख दंगों के रूप में ऐसी ही हिंसा का दंश झेल चुका है। उस समय भी आम सिखों को हत्यारे के रूप में चिह्नित कर उन पर जो अत्याचार हुए उसके घाव आज तक नहीं भरे हैं।
हमें याद रखना होगा कि ऐसी हिंसा के घाव कभी नहीं भरते बल्कि वे लगातार रिसते रहने वाला ऐसा सामाजिक नासूर बन जाते हैं जो किसी भी देश के सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर सकता है। जब जब भी ऐसे वाकये हुए हैं, उन्होंने अनेकता में एकता के सूत्र वाले भारत को चोट ही पहुंचाई है।
एक बात और समझनी होगी कि चाहे आतंकी हों या अन्य कोई अपराधी। उनके खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई का अधिकार कानून व्यवस्था का काम संभालने वाली एजेंसियों को है, नागरिकों को नहीं। उन्हें सजा देने का काम अदालत का है लोगों का नहीं। उनकी सजा का स्थान या तो जेल है या फिर फांसी का फंदा। हम सड़क पर उनका हिसाब-किताब नहीं कर सकते। यह अराजकता को बढ़ावा देने वाली बात है।
आज तोड़ डालो, फोड़ डालो, कुचल डालो, बरबाद कर डालो जैसे बहुत से नारे चल रहे हैं, लेकिन अंतत: कोई भी कार्रवाई सारे परिणामों को ध्यान में रखते हुए ही करनी होगी। चारों तरफ जंग का माहौल बनाया जा रहा है। टीवी चैनलों को देखकर ऐसा लग रहा है मानो जंग अब हुई कि तब हुई… लेकिन जंग भी जंग के तरीकों से ही होती है।
जंग की फतवेबाजी करने वाले या कश्मीर के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले शायद यह नहीं जानते कि अगर युद्ध जैसी कोई परिस्थिति पैदा भी हुई तो उसमें भी सेना को सबसे ज्यादा सहयोग स्थानीय लोगों का ही चाहिए होगा। हम सिरफिरे होकर यहां कश्मीर के लोगों के साथ जो व्यवहार करेंगे उसका वहां क्या संदेश जाएगा हमें पता ही नहीं है। युद्ध जैसी परिस्थिति में यदि स्थानीय लोगों का सहयोग न मिले तो हालात कितने विकट हो सकते हैं इसका अनुमान तक हम नहीं लगा सकते।
क्या हम ऐसी परिस्थिति निर्मित करना चाहते है कि भविष्य में कभी युद्ध जैसे हालात बनें तो हमारी फौज को सीमा और घरेलू दोनों मोर्चों पर लड़ना पड़े? इसलिए जरूरी है कि हम अपना दिमाग भी ठंडा रखें और अपने आसपास वालों का भी। लड़ाई कैसी भी हो, गुस्से या उत्तेजना में लड़ी जाने वाली लड़ाई नुकसानदायक ही होती है। क्या हम खुद को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं?