एक मशहूर पेय के विज्ञापन की टैग लाइन है- डर के आगे जीत है। मुझे नहीं पता कि भारत के राजनेता वह पेय पीते हैं या नहीं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने उस विज्ञापन की टैग लाइन को जीवनकर्म में उतार लिया है। भारत की राजनीति का नया मंत्र या यूं कहें कि नया नारा है-डरने डराने में ही जीत है…
यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले कुछ दिनों की घटनाएं न सिर्फ ऐसा होने की गवाही दे रही हैं, बल्कि इस बात को पुख्ता तौर पर स्थापित भी कर रही हैं कि भारत की राजनीति अब डरने-डराने के भयावह खेल में तब्दील होती जा रही है। दुश्मन पर घात प्रतिघात में डर को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
टीवी विज्ञापनों और सिनेमा संदर्भों का ही इस्तेमाल करें तो इस भयासुर संग्राम में मुझे एक और मशहूर डायलॉग याद आ रहा है जो हिन्दी फिल्म इतिहास की ब्लॉक बस्टर फिल्म शोले में अद्वितीय खलनायक गब्बरसिंह के मुंह से कहलवाया गया था। उसमें गब्बर कहता है- जो डर गया, समझो मर गया। ऐसा लगता है कि राजनीति के नायक/खलनायक अपनी-अपनी सेनाओं को यही नसीहत देकर आक्रमण के लिए तैयार कर रहे हैं।
एक समय था जब राजनीति में ब्लैकमेलिंग का बोलबाला था और उस शब्द के हिन्दी रूपांतर के तौर पर मीडिया में भयदोहन शब्द प्रचलित हुआ था। ब्लैकमेलिंग के लिए भयदोहन उचित हो या न हो लेकिन आज की परिस्थिति के लिए यह शब्द और ज्यादा मौजूं लगने लगा है। राजनीति में धनबल और बाहुबल के साथ-साथ पिछले कुछ सालों से टेरर फंडिंग जैसे शब्द का चलन भी बढ़ा है। और उसी तर्ज पर आज की राजनीति को ‘टेरर पॉलिटिक्स‘ कहा जा सकता है।
यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं कि डर की इस राजनीति का नया उद्गमस्थल लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली हमारी संसद बनी है जहां 7 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की चर्चा का उत्तर देते हुए डरने और डराने का संदर्भ देते हुए विपक्ष पर हमला बोला।
प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की एक टिप्पणी पर कहा- ‘’जी हां, आप चिंता मत कीजिए, देश को लूटने वालों को मोदी डरा कर रहेगा। जिन्होंने देश को लूटा है, तबाह किया है, उनको डरना ही होगा। ऐसे लोगों के खिलाफ लड़ने के लिए ही जिंदगी खपाई है। इस देश में चोर, लुटेरे, बदमाशों में डर बिल्कुल खत्म हो गया था, उसी कारण देश बर्बाद हुआ, उनमें डर पैदा करने के लिए देश ने मुझे यहां बिठाया है। इसलिए हम इस काम को आगे बढ़ाने वाले हैं।‘’
प्रधानमंत्री की इस बात का जवाब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 8 फरवरी को भोपाल में दिया। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भोपाल में आयोजित किसान आभार रैली में राहुल ने कहा कि किसानों की कर्ज माफी के हमारे कदम से नरेंद्र मोदीजी घबरा गए हैं। ‘’मैं समझ गया हूं, नरेंद्र मोदीजी को डरा के आप कोई भी काम करा सकते हो…’’
राहुल ने मोदी सरकार द्वारा छह हजार रुपए सालाना वाली किसान सम्मान योजना घोषित करने के पीछे का मुख्य कारण भी कांग्रेस के किसान कर्ज माफी वायदे को बताया। साथ ही केंद्र की योजना का एक तरह से मखौल उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि एक तरफ कांग्रेस किसानों का हजारों करोड़ का कर्ज माफ कर रही है और दूसरी ओर मोदी सरकार किसानों को 17 रुपए रोज की मदद का झुनझुना पकड़ा रही है।
इस सारी राजनीतिक बयानबाजी में बड़ा सवाल यह है कि क्या अब देश की सरकारें और राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को डराने धमकाने की राजनीति करेंगी? एक तरफ प्रधानमंत्री संसद में विपक्ष के नेता से कहते हैं कि डर पैदा करने के लिए ही जनता ने मुझे इस कुर्सी पर बैठाया है तो दूसरी ओर सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता कहता है कि प्रधानमंत्री को डराकर कोई भी काम कराया जा सकता है।
डरने और डराने के इस डरावने खेल में वो जनता कहां जाए जो डरी सहमी परिस्थितियों में जीने को मजबूर है। जब महारथी ही एक दूसरे को डराने धमकाने का खेल खेल रहे हों तो गरीब गुरबों की औकात ही क्या है कि वे अपने किसी डर की या उस डर को दूर करने की बात किसी से कर सकें।
मुद्दा यह है कि हमारा लोकतंत्र संवैधानिक व्यवस्थाओं और कानून से चलेगा या डराने-धमकाने की मानसिकता से। प्रधानमंत्री देश के मुखिया हैं। उनके पास कानून को लागू करने वाली तमाम एजेंसियां हैं, उन्हें उन एजेंसियों को स्वतंत्रतापूर्वक अपना काम करने देने की परिस्थितियां सुनिश्चित करनी चाहिए। यदि वे खुद कहने लगें कि लोगों ने मुझे यहां डराने के लिए बैठाया है तो न तो यह उनके व्यक्तित्व को शोभा देता है और न ही उनके पद की गरिमा को। आखिर वे प्रधानमंत्री हैं, कोई थानेदार नहीं… और कानून तो थानेदार को भी किसी को डराने-धमकाने की इजाजत नहीं देता, हां उसके पास यह अधिकार जरूर है कि वह अपराधी को कानून के मुताबिक सजा दिलवाए।
दूसरी तरफ विपक्षी दल भी यदि यह सोचते हैं कि देश के प्रधानमंत्री को डराकर कोई काम करवाया जा सकता है तो वे भूल रहे हैं कि डराने की ज्यादा क्षमता और हथियार सरकार के पास ही सबसे अधिक होते हैं। यदि आप सरकार को लोकतांत्रिक और कानूनी तरीके से कठघरे में खड़ा करने में असमर्थ होकर सिर्फ डर का तीर चलाने पर ही निर्भर होने लगेंगे तो अपनी जमीन को ही कमजोर करेंगे। तब आपकी बात पर भरोसा भी कम होने लगेगा, क्योंकि लोग मानने लगेंगे कि आप शायद तथ्य के आधार पर बात नहीं कर रहे, आपका मकसद सिर्फ सरकार को डराना भर है, फिर चाहे वह राफेल का मामला हो या किसी और घपले घोटाले का…
ऐसे डर से न तो राजनीतिक जीत हासिल की जा सकती है और न ही लोकतंत्र और संवैधानिक ढांचे को बचाया जा सकता है।