राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने हाल ही में विजयदशमी के दिन संघ के स्थापना दिवस पर अपने वार्षिक संबोधन में कहा था- ‘’राष्ट्र के नवोत्थान में शासन, प्रशासन के द्वारा किये गये प्रयासों से अधिक भूमिका समाज के सामूहिक प्रयासों की होती है। इस दृष्टि से शिक्षा व्यवस्था महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज के मानस में आत्महीनता का भाव व्याप्त हो इसलिये शिक्षा व्यवस्था की रचनाओं में, पाठ्यक्रम में व संचालन में अनेक अनिष्टकारी परिवर्तन विदेशी शासकों के द्वारा पारतंत्र्यकाल में लाये गये। उन सब प्रभावों से शिक्षा को मुक्त होना पडेगा।‘’
सरसंघचालक ने कहा था कि शिक्षा सस्ती व सुलभ हो साथ ही सभी पाठ्यक्रम मतवादों के प्रभाव से मुक्त होकर सत्य का ज्ञान कराने के साथ साथ बच्चों में राष्ट्रीयता व राष्ट्रगौरव का बोध जगाएं और उनमें आत्मविश्वास,उत्कृष्टता की चाह, जिज्ञासा, अध्ययन व परिश्रम की प्रवृत्ति के अलावा शील, विनय, संवेदना, विवेक व दायित्वबोध भी जाग्रत करें। डॉ. भागवत ने उम्मीद जताई थी कि ‘’इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने वाली बहुप्रतीक्षित, आमूलाग्र परिवर्तनकारी शिक्षा नीति शीघ्र ही देश के सामने रखी जायेगी।‘’
इसके साथ ही भागवत ने शिक्षा को लेकर समाज की भूमिका का जिक्र करते हुए कहा था- ‘’क्या शिक्षा केवल विद्यालयीन शिक्षा होती है? क्या अपने स्वयं के घर-परिवार, अपने माता-पिता, घर के ज्येष्ठ, अड़ोस-पड़ोस के वरिष्ठों के कथनी व करनी से, उनके आचरण की प्रामाणिकता, भद्रता व संस्कारों से मनुष्यता के व्यवहार, करुणा व संवेदना की सीख नहीं मिलती?’’
आमतौर पर सरसंघचालक का विजयादशमी वाला वार्षिक संवाद देश के राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में बहुत ध्यान से सुना जाता है। और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग तो उसे और भी अधिक दायित्वबोध से सुनते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री विजय शाह ने या तो डॉ. भागवत का भाषण सुना ही नहीं, या सुनकर अनसुना कर दिया अथवा उन्होंने तय किया है कि वे चूंकि सरकार में हैं इसलिए उन्हें संघ की सीख की कोई आवश्यकता नहीं।
शायद यही कारण रहा होगा कि मंगलवार को विजय शाह ने स्कूल शिक्षा विभाग के जीवन कौशल से सबंधित कार्यक्रम ‘उमंग’ को लांच करते हुए जो बातें कहीं वे कम से कम संघ की नीति व सरसंघचालक के विचारों से तो मेल नहीं खातीं। विजय शाह ने इस कार्यक्रम में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ देने की वकालत करते हुए स्कूल शिक्षा के पाठ्क्रम में यौन शिक्षा को शामिल करने जरूरत बताई और इसमें यूनीसेफ जैसी संस्था का सहयोग लेने की बात भी कही।
स्कूल शिक्षा मंत्री ने कहा कि मैं अपने विभाग के सहयोगियों से चर्चा कर रहा था कि वय:संधि के काल में बच्चे जब बहुत कुछ जान रहे होते हैं तब उन्हें यौन शिक्षा भी दी जानी चाहिए। इसलिए इसे स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। 70 साल पहले स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती थी। मैं केंद्र सरकार से आग्रह करूंगा कि इसे पूरे देश के स्कूली पाठ्क्रम के लिए अनिवार्य बनाया जाए।
अपने विवादास्पद बयानों के लिए चर्चित रहने वाले विजय शाह ने बच्चों और महिला शिक्षिकाओं की मौजूदगी में बॉलीवुड के एक गीत से बात को और ‘स्पष्ट‘ करते हुए कहा कि आज भी हमारे यहां ‘परदे में रहने दो,परदा न हटाओ’ की मानसिकता हावी है। जबकि दुनिया के कई देश बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने के मामले में बहुत आगे बढ़ गए हैं।
शाह की राय के विपरीत, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े जो संगठन शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं और नई शिक्षा नीति बनाने में जिनकी अहम भूमिका है, वे संगठन सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि यौन शिक्षा जैसे विषय पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किए जाने चाहिए। शिक्षा से जुड़े संघ के आनुषांगिक संगठन ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ के सचिव अतुल कोठारी का मत है कि ‘चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास’ का पाठ्यक्रम तैयार किया जाए। यौन शिक्षा के बजाय स्कूलों में योग शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल हो।
नई शिक्षा नीति तैयार करने के लिए बनाई गई टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी के सामने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपना पक्ष रखते हुए सीधे सीधे ‘सेक्स’ शब्द पर ऐतराज जताया था। मंत्रालय चाहता था कि इस तरह की बातों को ‘यौन शिक्षा’ या ‘यौन स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं’ कहने के बजाय यह विषय बच्चों को ‘’किशोर शिक्षा कार्यक्रम एवं राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम’’ के नाम से पढ़ाया जाए।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक और शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के अध्यक्ष दीनानाथ बत्रा भी यौन शिक्षा को पाठ्क्रम में शामिल करने का विरोध कर चुके हैं। उनका कहना है कि ‘’ऐसा कोई भी कदम छात्र-छात्रओं के दिमाग को और दूषित करेगा इसलिए परिष्कृत और भारतीयकृत पाठ्क्रम में इसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। आप कल्पना नहीं कर सकते कि केवल ‘सेक्स’ शब्द कहने से ही कक्षा में महिला शिक्षिकाओं व छात्राओं की क्या प्रतिक्रिया होगी।‘’
ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि मध्यप्रदेश की स्कूली शिक्षा और यहां का स्कूल शिक्षा विभाग क्या भाजपा और उसके मार्गदर्शी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की नीतियों से अलग किसी और राह पर चलाया जा रहा है? क्या संगठन की नीतियां उन लोगों तक ही सही ढंग से नहीं पहुंच पा रहीं जिन पर सरकार में बैठकर उनके क्रियान्वयन का जिम्मा है? यदि ऐसा है तो सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों की मैदानी स्थिति क्या होगी?
bahut khub.
धन्यवाद सर