और अब गुलजार का ‘मित्रों’ से किनारा कर लेना

पहले अरुंधति रॉय, फिर इरफान हबीब और अब गुलजार…

हैरानी हो रही है कि यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है। आप पूछेंगे, इस सूची के लंबा होने पर मुझे क्‍या आपत्ति है…

जी, मुझे क्‍या आपत्ति हो सकती है… हमें चाहिए आजादी का समय है, वक्‍त के बदलाव का समय है, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के हमलावर हो जाने का समय है… मुझे क्‍या आपत्ति हो सकती है?

और मैं आपत्ति अगर करूं भी तो उससे होना जाना क्‍या है? सबसे पहले तो मुझसे ही यह सवाल किया जाएगा कि आप यह आपत्ति किस ‘खेमे’ से कर रहे हैं। आपत्ति करने के लिए आपका गांधी या गोडसे के खेमे में होना जरूरी है। आपकी आपत्ति तभी मान्‍य होगी।

या फिर आपकी आपत्ति का संज्ञान उस समय लिया जाएगा जब आपके हाथ में पत्‍थर हो। आज दो ही लोगों को आपत्ति जताने का हक है, या तो जिनके मुंह में गाली है उन्‍हें या फिर जिनके हाथ में पत्‍थर है उन्‍हें… कराह या सिसकियां अब आपत्ति जताने के तरीके और दायरे से बाहर हो गई हैं।

आप मौन हैं तो यह आपकी प्रॉब्‍लम है। आपके चुप रह जाने को आपत्ति के खाते में दर्ज नहीं किया जाएगा। आप धीरे से अपनी बात कहते हैं या संयत और शालीन शब्‍दों में अपना विरोध जताते हैं तो आपत्ति जताने का यह तरीका ‘कायराना’ मान लिया जाएगा।

आपत्ति जताने के लिए जरूरी है कि आप लोगों को रंगा-बिल्‍ला या कुंगफू कुत्‍ता बन जाने की सलाह दें, किसी समारोह में मंच पर चढ़कर ऊधम करें, पत्‍थर फेंके, आग लगाएं, अपनी बात न मानने वालों या अपने से असहमत रहने वाले को देशद्रोही कहें, झूठ को सच और सच को झूठ साबित करें…

अगर आप में आपत्ति जताने के इन तरीकों की समझ या शऊर नहीं है तो आपकी आपत्ति का कोई मोल नहीं… अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो सामने वाले को उसकी हर बात पर चुपचाप ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ जारी करते रहें… चुप रहें, सुखी रहें…

मैंने गुलजार का जिक्र किया… हां, पहले मैंने अरुंधति रॉय का जिक्र किया था, फिर इरफान हबीब का जिक्र किया अब मैं गुलजार का जिक्र कर रहा हूं… सवाल उछालिये, गुलजार कहां से आ टपके, जवाब है वहीं से जहां से अरुंधति रॉय आई थीं या जहां से इरफान हबीब आए थे।

अरुंधति ने सलाह दी थी खुद को रंगा-बिल्‍ला या कुंगफू कुत्‍ता बता दो, इरफान हबीब ने तरीका सुझाया- मंच पर चढ़ जाओ और अब गुलजार कह रहे हैं ‘मित्रो’ से परहेज करो। पूछिये आप, ये मित्र कहां से आए…

तो सुनिये, 28 दिसंबर को मुंबई में हिन्‍दी दैनिक अमर उजाला के साहित्‍य पुरस्‍कार समारोह में लोगों को संबोधित करते हुए गुलजार ने कहा- ‘’मैं आप लोगों को ‘मित्रो’ कहकर संबोधित करने वाला था, लेकिन फिर रुक गया। दिल्ली के लोगों से डर लगता है, कोई नहीं जानता है कि वो कौन सा कानून ले आएंगे।‘’

खुलासा करने की जरूरत नहीं कि गुलजार का इशारा किस तरफ था। वे संकेतों में क्‍या कुछ कहना चाह रहे थे…

लेकिन गुलजार ने जो कहा, उसने फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर हमारे बुद्धिजीवियों को ये हो क्‍या रहा है? क्‍या वे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि विरोध कैसे करना है, उसका तरीका क्‍या होना चाहिये… वे विरोध तो करना चाहते हैं… कर भी रहे हैं, पर जिस तरह से कर रहे हैं उसने उन्‍हें उनकी पायदानों से नीचे ही उतारा है…

आखिर गुलजार ने ‘मित्रो’ से परहेज क्‍यों किया, क्‍यों नहीं अपनी ‘चाह’ को पूरा करते हुए उन्‍होंने अपने संबोधन की शुरुआत इस शब्‍द से की। क्‍या अब हमने शब्‍दों का भी बंटवारा कर लिया है। क्‍या हमने मान लिया है कि कुछ शब्‍द ‘उनके’ हो गए हैं और कुछ शब्‍द ‘हमारे’। विरोध में यदि गालीगलौज गलत है तो शब्‍दों से दूर होना भी सही नहीं…

विरोध का यह कौनसा तरीका है कि हम अपने सामने उपस्थित समुदाय को संबोधित करते हुए ‘मित्र’ जैसे शब्‍द को भी ‘शत्रु’ का शब्‍द मानकर उसे इस्‍तेमाल नहीं करना चाहते? क्‍या विरोध में हम इतने अंधे हो गए हैं कि समाज को जोड़ने और लोगों के बीच दोस्‍ती का रिश्‍ता बनाने वाले शब्‍दों को भी ‘विरोधी खेमे’ का शब्‍द मानकर उससे परहेज करने लगे हैं? शब्‍द किसी की बपौती हैं क्‍या?

आज आपने मित्र शब्‍द को बोलने से परहेज किया, कल को यदि आपका विरोधी शांति, सद्भाव, सौहार्द, भाईचारा, संविधान, लोकतंत्र, गांधी, अहिंसा, गांधीवाद को इफरात से इस्‍तेमाल करने लगेगा तो क्‍या आप इन शब्‍दों से भी परहेज करने लगेंगे। ‘अंधभक्ति’ और ‘अंधविरोध’ के इस द्वंद्व में क्‍या हम अपने शब्‍दकोश से उन शब्‍दों को यूं ही रिस जाने देंगे जो समाज के घावों पर मरहम का काम करते हैं, जो समाज में आई दरारों को भरने का काम करते हैं, जो अंधेरी राहों में लाइट हाउस का काम करते हैं…

इन शब्‍दों पर खुद का अधिकार छोड़ना और दूसरों का आधिपत्‍य स्‍वीकार कर लेना, आपके विरोध को नहीं आपकी पराजय को दर्शाता है… याद रखिये जो लड़ाई आप लड़ रहे हैं उसमें शब्‍द बहुत मायने रखते हैं। अपने खाते में अच्‍छे शब्‍दों को रखना तरकश में ब्रह्मास्‍त्रों को रखने की तरह है। अपना तरकश खाली कर आप दूसरों का तरकश ब्रह्मास्‍त्रों से क्‍यूं भरे दे रहे हैं?  याद रखिये-

वे आएंगे

और कब्‍जा कर लेंगे

आपके शब्‍दों पर

नरसंहार, आगजनी, हिंसा

दुश्‍मनी, खून-खराबा

जैसे शब्‍दों पर चिपका देंगे

शांति, अहिंसा, सद्भाव, सौहार्द

संविधान, लोकतंत्र और गांधीवाद

जैसी चिप्पियां

और छिपा देंगे

आपके आंसू और सिसकियां

जरूरी है

सद्भाव को शब्‍दकोश से निकाल

आग के हवाले कर देने की

साजिश को रोकना

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