भारतीय टेलीविजन के चर्चित एंकर रवीश कुमार ने हाल ही में अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ में मीडिया के वर्तमान हालात को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं। रवीश ने जो लिखा उसका शीर्षक उन्होंने दिया ‘’आप देख रहे हैं दर्शकों की हत्या का सीधा प्रसारण’’। रवीश का यह ब्लॉग 15 मई को आया। तारीख का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि इसके एक दिन पहले यानी 14 मई को भोपाल में विश्व संवाद केंद्र ने नारद जयंती के उपलक्ष्य में एक संवाद आयोजित किया जिसका विषय था ‘’सफल मीडिया और सार्थक मीडिया का अंतर्द्वंद्व’’ ! इसमें दो वक्ताओं वरिष्ठ मीडियाकर्मी एवं रिलायंस इंडस्ट्रीज में प्रेसीडेंट व मीडिया निदेशक उमेश उपाध्याय और न्यूज 18 इंडिया के डिप्टी मैनेजिंग एडिटर सुमित अवस्थी ने अपनी बात रखी।
चूंकि मैं पिछले कई सालों से इसी मीडिया संसार से जुड़ा हूं, इसलिए अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि विचार प्रधान लेखन या भाषण की प्रक्रिया में अकसर ऐसा होता है कि विचार प्रवाह कई दिनों तक पकता रहता है और एक क्षण ऐसा आता है जब लगता है कि अब इसे लिख या बोल डालना चाहिए। तो मैं मानकर चल रहा हूं कि रवीश कुमार जिस समय दिल्ली में अपने ब्लॉग ‘’आप देख रहे हैं दर्शकों की हत्या का सीधा प्रसारण’’ के विचार को अंतिम रूप दे रहे होंगे, उसी समय उमेश उपाध्याय और सुमित अवस्थी दिल्ली से 700 किमी दूर भोपाल में मीडिया की सफलता और सार्थकता के अंतर्द्वंद्व पर बात कर रहे थे।
मैं आज सिर्फ इन दोनों प्रसंगों में कही गई बातें आपके सामने रख देता हूं। इन्हें पढ़कर आप खुद ही अंदाज लगाइए कि जिस मीडिया के बारे में कहा जाता है कि देश उसकी तरफ बड़ी उम्मीद से देखता है या देख रहा है उस मीडिया के भीतर क्या स्थिति है और वहां किस तरह का द्वंद्व अथवा अंतर्द्वंद्व चल रहा है। सुमित अवस्थी ने कहा कि सार्थक और सफल मीडिया की बात करना बहुत कठिन है। आज वही मीडिया सफल है जो अच्छा मुनाफा कमा रहा हो, जो बंद होने की कगार पर न हो और जहां से कर्मचारियों को निकाला न जा रहा हो। पर फिर उन्होंने खुद ही सवाल उठा दिया- ‘’लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि ऐसा मीडिया सार्थक भी है?’’
उमेश उपाध्याय ने इसी बात को दूसरे ढंग से कहा। वे बोले- सफलता को सार्थक होना ही चाहिए और सफल वही होता है जो सार्थक हो। लेकिन सफलता का अर्थ आज मीडिया में व्यावसायिक सफलता या पैसा कमाना ही रह गया है। यहां तक भी ठीक है, लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि पैसा कमाने की इस अंधी दौड़ में हर रंग का पैसा चल रहा है। किसी को न यह देखने की फुर्सत है और न चिंता कि वह पैसा काला है या और किसी रंग का… ‘’मूल मुद्दा मीडिया की सफलता और सार्थकता का नहीं बल्कि उसके भारतीय और अभारतीय होने का है।‘’
अपनी बात के निचोड़ के रूप में सुमित अवस्थी ने एक तरह से अपील करते हुए कहा कि सूचनाओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सोशल मीडिया पर जो भी जानकारियां लोगों के पास आ रही हैं, उनकी सत्यता और विश्वसनीयता को परखे बिना उन्हें आंख मूंदकर आगे न बढ़ाया जाए। जबकि उमेश उपाध्याय का कहना था कि ‘भारतीय संवाद’ में ‘भारतीय चिंतन’ को कैसे जोड़ा जाए इस बात की चिंता की जानी चाहिए।
अब जरा इसी परिप्रेक्ष्य में रवीश कुमार के ब्लॉग को देख लीजिए। सुमित अवस्थी और उमेश उपाध्याय जहां भारतीय संवाद की विश्वसनीयता और उसके भारतीय चिंतनधारा से जुड़ाव की बात कर रहे हैं, वहीं रवीश का अनुभव कह रहा है कि मीडिया के मामले में कैसी सफलता और कैसी सार्थकता? यहां तो ‘दर्शक की ही हत्या‘ हो रही है, वो दर्शक जिसके लिए खबरिया चैनल इतना बड़ा तामझाम खड़ा करके या जाल फैलाकर बैठे हैं।
रवीश इस बात को ही खारिज कर रहे हैं कि खबरों को लेकर आपके सामने आने वाला एंकर कोई खरी बात आप तक पहुंचा रहा है। वे लोगों को यह भी नसीहत दे रहे हैं कि किसी पत्रकार या एंकर से कोई उम्मीद न लगाएं। उनके मुताबिक अब इस बात से उन्हें चिढ़ होने लगी है जब लोग उनसे कहते हैं कि ‘आपसे ही उम्मीद है’’ ‘’आप ही कुछ कर सकते हैं…’’ वे सवाल उठाते हैं- ‘’आख़िर लोग इतने मूर्ख कैसे हो सकते हैं? क्या उन्हें वो ‘स्ट्रक्चर’ नहीं दिखता जिसके हम सब कल-पुर्ज़े हैं। जब टायर पंचर हो,चेन उतर गई हो और हैंडल टूटा हो तब भी क्या साइकिल कैरियर के दम पर चल जाएगी। अच्छे होने की कीमत हमसे इतनी न वसूलें कि सोते जागते लाश की तरह महसूस करूं।‘’
रवीश का मशविरा है कि ‘’आपको समस्याओं के निदान की उम्मीद प्रेस से ज़्यादा उनसे होनी चाहिए जिन्हें आप चुनते हैं। चैनलों की दुनिया में तो सब तय होता है। वहां तो संपादक की भूमिका भी एक तरह से ख़त्म कर दी गई है। उसका काम मैनेज होना या मैनेज होने से बचना रह गया है। एक पूरी प्रक्रिया के तहत पहले पत्रकारिता ख़त्म की गई और अब दर्शकों को ख़त्म करने की प्रक्रिया पूरी होने के कगार पर है। इसलिए टीवी देखने का मतलब है ख़ुद को ख़त्म करना। अपनी जिज्ञासाओं की हत्या करना और विवेक का गला घोंटना। ये दर्शकों की हत्या का दौर है।…’’
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इस पूरे विमर्श या बहस में मुझे बस एक ही बात कहनी है, क्या आपको नहीं लगता कि हमारे समूचे मीडिया में भी किसी ने ‘वानाक्राय’ घुसा दिया है और हमारे चारों ओर घूम रहे ‘रेनसमवेयर’ खबरों के बहाने हम से कोई फिरौती वसूल रहे हैं…
उचित समझें तो बताइएगा!