हिन्दी फिल्म इतिहास की मशहूर फिल्म ‘शोले’ के क्लाइमेक्स से जुड़ा एक प्रसंग है जिसमें गब्बर के लोगों से मुकाबला करते समय घायल हो गया जय (अमिताभ बच्चन) अपने साथी वीरू (धर्मेंद्र) को यह कहते हुए बसंती (हेमा मालिनी) को लेकर वहां से निकल जाने को कहता है कि तब तक वह डाकुओं को रोके रखेगा। वीरू नहीं मानता तो जय अपनी जेब से सिक्का निकालकर टॉस के जरिये फैसला करता है और वीरू को वहां से जाना पड़ता है। बाद में जय के मर जाने पर वीरू जब उसके हाथ में पड़े सिक्के को देखता है तो पाता है कि जय जिस सिक्के से टॉस किया करता था उसके दोनों ओर हेड ही था।
देश में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही चल रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि मुद्दों पर फैसला करने को लेकर जो सिक्का उछाला जा रहा है उसमें दोनों ओर हेड के बजाय टेल हैं। हिन्दी में कहें तो सिर के बजाय पूंछ से फैसले हो रहे हैं। पहले लोग सहमति या असहमति में सिर हिलाया करते थे लेकिन इन दिनों दुम हिला रहे हैं। श्रीलाल शुक्ल ने अपने कालजयी उपन्यास में एक जगह लिखा है- जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा निकलता है। उसी तरह आज कहा जा सकता है, सिक्का कोई भी उछालो दोनों तरफ दुम (टेल) ही निकलती है।
दरअसल दो दिन पहले मैंने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहे विरोध के सिलसिले में चर्चित लेखिका अरुंधती रॉय के दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में दिए गए उस बयान का जिक्र किया था जिसमें उन्होंने लोगों को सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के लिए जब सरकारी कर्मचारी उनसे जानकारी मांगने आएं तो वे अपना नाम गलत बताएं। वे रंगा-बिल्ला या कुंगफू-कुत्ता कुछ भी नाम बता दें पर असली नाम और पता न बताएं।
ऐसा लग रहा है कि देश में किसी भी बात का विरोध करने वालों ने अपना विवेक और संयम खो दिया है। विरोध के नाम पर जो हो रहा है उसने शालीनता की तमाम सीमाएं लांघ डाली हैं। सबसे ताजा किस्सा केरल का है जहां भारतीय इतिहास कांग्रेस के मंच पर जाने माने इतिहासकार इरफान हबीब, राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से भिड़ गए।
राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, कन्नूर विश्वविद्यालय में आयोजित भारतीय इतिहास कांग्रेस के 80वें सत्र का उद्घाटन भाषण दे रहे थे। जब उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बोलना शुरू किया तो वहां मौजूद कुछ लोगों ने उनका विरोध किया। इसी दौरान इतिहासकार इरफान हबीब मंच पर चढ़ गए और आरिफ मोहम्मद खान को बोलने से रोकने की कोशिश करते हुए उन्होंने राज्यपाल के एडीसी और सुरक्षाकर्मियों से धक्कामुक्की भी की।
घटना के बाद केरल राज्यपाल के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से किए गए ट्वीट में कहा गया कि, “इरफान हबीब ने राज्यपाल के उद्घाटन भाषण को बाधित करने की कोशिश की। उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आजाद को कोट करने पर राज्यपाल से कहा कि उन्हें तो गोडसे को कोट करना चाहिए। उन्होंने (इरफान) राज्यपाल के एडीसी और सुरक्षाकर्मी को धक्का भी दिया।” राजभवन की ओर से घटना के समय का वीडियो भी जारी किया गया।
इरफान की हरकत पर राज्यपाल ने कहा, “आपको विरोध करने का पूरा अधिकार है, मगर मुझे चुप नहीं करा सकते। जब आप बहस और चर्चा के दरवाजे बंद करते हैं तो आप हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं।” राज्यपाल ने यह भी सफाई दी कि वह इस मसले पर नहीं बोलने वाले थे, मगर जब पूर्व के वक्ताओं ने नागरिकता संशोधन कानून पर बोलना शुरू किया तो उन्हें भी लगा कि सवालों का जवाब देना चाहिए।
मंच पर हुए हंगामे से नाराज राज्यपाल बोले- ‘’मैं अपने भाषण में किसको कोट करूं और किसको नहीं, यह मैं तय करूंगा। मौलाना आजाद किसी की जायदाद नहीं हैं। यहां हल्ला मचा रहे लोग मुझे धमकी देकर चुप नहीं करा सकते हैं। मेरी बातों को भी आपको शांति से सुनना पड़ेगा।’’ राज्यपाल के कार्यालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया, ‘’राज्यपाल ने विरोधी विचारधारा के प्रति असहिष्णुता को अलोकतांत्रिक करार दिया है।‘’
नागरिकता कानून को लेकर विरोध और उस विरोध के चलते अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का सभी को अधिकार है। यदि आप सरकार के किसी कदम से सहमत नहीं हैं तो अपनी असहमति या विरोध दर्ज कराने का या अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हमारा संविधान सभी को देता है। लेकिन इसके साथ ही एक तरफ जहां यह अपेक्षा रहती है कि ऐसे किसी भी विरोध को ताकत या सत्ता के बल पर कुचला नहीं जाना चाहिए वहीं यह भी उम्मीद की जाती है कि विरोध का तरीका भी शालीन और संयत हो।
हैरानी की बात है कि इन दिनों हिंसा या हिंसक आचरण को ही विरोध का तरीका मान लिया गया है। बिना पढ़ालिखा या गैर समझदार तबका ऐसा करे तो भी बात समझ में आती है कि उन्हें विषय का उतना ज्ञान नहीं है या उनकी समझ अभी उतनी नहीं है, लेकिन अरुंधती रॉय या इरफान हबीब जैसे लोग जब जनता को उलटी सीधी सलाह देकर भ्रमित करने लगें या राज्यपाल के भाषण के दौरान मंच पर चढ़कर माइक छीनने की कोशिश करने लगें तो सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है कि वैचारिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा लेकर चलने वाले इन लोगों को क्या हो गया है?
जो लोग सड़क पर उतरकर या हाथ में पत्थर लेकर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं उनके बारे में एकबारगी कहा जा सकता है कि उनके पास विरोध को जताने या खुद को अभिव्यक्त करने का शायद और कोई तरीका नहीं हो, लेकिन इरफान हबीब जैसे लोग, जिनमे पास अपनी राय व्यक्त करने के तमाम मंच सहज उपलब्ध हैं वे भी यदि ऐसी छिछोरी या नासमझ हरकतें करें तो उसे क्या समझा जाए। एक तरफ तो विरोध करने वाले संविधान और गांधी के शांति और अहिंसा के संदेश की वकालत करते नहीं थकते और दूसरी ओर सार्वजनिक रूप से ऐसा हिंसक/असहिष्णु आचरण करते हैं।
यदि आप सत्ता पक्ष पर यह आरोप लगा रहे हैं कि वह मनमानी करने और लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलने की राह पर चल रहा है तो आपका यह आचरण, आपकी ऐसी घटिया हरकतें और समाज को अपराध की ओर धकेलने वाली आपकी बेहूदा सलाहें भी लोकतंत्र का कोई भला नहीं कर रहीं। यह विरोध नहीं बल्कि आपकी बौखलाहट को उजागर करता है। और याद रखिये कि बौखलाहट से कोई लड़ाई नहीं जीती जाती, वह तो उलटे आपके विरोध की धार को कम ही करती है। इस तरह का अशोभनीय प्रदर्शन आपके नाम और प्रतिष्ठा को गड्ढे में उतारने वाला है। इरफान का अर्थ है ज्ञान, विद्वत्ता और हबीब का हर्थ है दोस्त या प्रिय व्यक्ति लेकिन आपकी हरकत ने इन दोनों ही अर्थों को मिट्टी में मिला दिया है।