सरदार पटेल के बाद अब नरसिंहराव भी कांग्रेस से छिन गए

अजय बोकिल

देर से ही सही, इतिहास न्याय तो करता है। 28 जून को देश के प्रमुख अखबारों में जब पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव की 99 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि स्वरूप फुल पेज के विज्ञापन देखे तो सुखद आश्चर्य के साथ लगा कि दुनिया में देर है, अंधेर नहीं। हैरानी की बात यह थी कि ये विज्ञापन उस कांग्रेस पार्टी ने नहीं दिए थे, जिसमें नरसिंहराव ने अपनी पूरी जिंदगी खपा दी थी, बल्कि महज 20 साल पहले जन्मी और अब तेलंगाना में सत्तारूढ़, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) सरकार ने दिए थे। इसमें पी.वी. को ‘तेलंगाना का गौरव’ और ‘भारत की शान’ बताया गया था।

विज्ञापन में ‘भारत माता के परमप्रिय पुत्र को महा अभिवादन’ के साथ राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने प्रदेश में साल भर तक चलने वाले ‘नरसिंहराव जन्म शती समारोह’ की शुरुआत की घोषणा की। स्व. राव की जयंती पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और सांसद राहुल गांधी ने भी श्रद्धांजलि तो दी, लेकिन उसमें सांत्वना भाव ज्यादा था, स्वीकार्यता का कम।

स्व. पी.वी. नरसिंहराव देश के उन प्रधानमंत्रियों में हैं, जो ‘एक्सीडेंटली’ बने, लेकिन इतिहास पर अमिट छाप छोड़ गए। इस श्रेणी में राजीव गांधी, पी.वी.नरसिंहराव और डॉ. मनमोहन सिंह को रखा जा सकता है। क्योंकि इन लोगों ने पीएम बनने के लिए कोई अलग से जोड़ तोड़ नहीं की और न ही देश उन्हें ‘भावी प्रधानमंत्री’ के रूप में देखता था। परिस्थितिजन्य मजबूरी ने उन्हें पीएम के तख्ते पर बिठाया और इस अवसर को उन्होंने ‘स्वर्णिम’ बनाने की पूरी कोशिश की। बिना इसकी‍ चिंता किए कि इतिहास उनके कामों का किस रूप में मूल्यांकन करेगा, किस रूप में उसे स्वीकार करेगा।

पी.वी. नरसिंहराव तो राजनेता होने के साथ-साथ बहुभाषी विद्वान भी थे। वे उस तेलंगाना (पूर्व की हैदराबाद रियासत) क्षेत्र से आते थे, जो ‘एक भाषा-एक प्रांत’ की राजनीति के तहत पहले आंध्र प्रदेश का हिस्सा बना और बाद में क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति के चलते आंध्र से अलग होकर वापस तेलंगाना बना। राव कांग्रेस सरकारों में कई अहम पदों पर रहे, लेकिन पार्टी पर छाई गांधी परिवार की धुंध के चलते उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि वो कभी देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं।

जैसे श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के पद पर उनके पुत्र (हालांकि कांग्रेस में तब भी कई योग्य दावेदार थे) राजीव गांधी की ताजपोशी हुई, उसी तरह स्व.राजीव गांधी की निर्मम हत्या के बाद यह पद स्व. पी.वी. नरसिंहराव की झोली में गिरा। इसके पीछे कांग्रेस की आंतरिक खींचतान और पति की हत्या से दुखी श्रीमती सोनिया गांधी की सत्ता से दूर रहने की इच्छा भी थी।

राव ने ऐसे कठिन वक्त में देश की बागडोर संभाली थी, जब देश की अर्थ व्यवस्था रसातल को जा रही थी। दुनिया भर में साम्यवादी-समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं दम तोड़ रही थीं। इस रास्ते पर भारत जितनी दूर जा सकता था, जा चुका था। सवाल था कि अब आगे क्या? वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने का एक ही तरीका था- देश में बुनियादी आर्थिक सुधार।

नरसिंहराव वाचाल या बहुत लोकप्रिय नेता भले नहीं थे, लेकिन परिस्थिति को समझने और उसके मुताबिक हल ढूंढने की जिद और संकल्प उनमें था। इसीलिए उन्होंने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपना वित्तमंत्री बनाया और काम की पूरी छूट दी। वास्तव में यह देश का समाजवादी अर्थ विचार से तलाक लेने वाला यू-टर्न था। इसकी तब काफी आलोचना भी हुई। लेकिन राव डिगे नहीं।

आज देश 5‍ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के जो सपने देख रहा है, उसके मूल में वो साहसिक, सुविचारित और दूरदर्शी फैसले हैं, जो राव के समय में हुए। पी.वी. नरसिंहराव निश्चित ही साहसी राजनेता थे। यह बात तो खुद डॉ. मनमोहन सिंह ने स्वीकार की है। भाजपा जैसी पार्टियों को उनका अहसानमंद होना चाहिए कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में राव की जो भूमिका रही, उसीने देश में ‘राष्ट्रवादी’ सरकार का राजमार्ग तैयार किया।

राव पीएम रहते हुए कुछ ऐसे विवादों में भी घिरे, जो तब तक किसी प्रधानमंत्री को लेकर पहले नहीं सुने गए थे। इनमें एक था एक करोड़ रुपये की रिश्वत लेने का आरोप या फिर अपने ही राजनीतिक विरोधियों को हवाला कांड में निपटाने का आरोप। बावजूद इसके राव और मनमोहनसिंह की जोड़ी को भारत के इतिहास में ‘त्राता’ के रूप में याद किया जाएगा।

यह भी हैरानी की बात है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पिछले दिनों देश-दुनिया के कई नामी अर्थशास्त्रियों से भारत की आर्थिक चुनौतियों और समाधान को लेकर अलग-अलग बातचीत की। लेकिन उन्होंने अपनी ही पार्टी के उस ‘सीमाचिन्ह अर्थशास्त्री’ से इंटरव्यू करना जरूरी नहीं समझा, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में 4 साल, बतौर रिजर्व बैंक गवर्नर 3 साल, देश के ‍वित्त मंत्री के रूप में 5 साल और प्रधानमंत्री के रूप में 10 साल तक संभाला तथा आगे बढ़ाया। जिसे भारत की आर्थिकी की जमीनी समझ है।

यहां सवाल यह है कि राव की लगभग गुमनामी में हुई मौत के 16 साल बाद टीआरएस को अचानक उनकी क्यों याद आई? क्योंकि 1996 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राव को कांग्रेस ने लगभग हाशिए पर डाल दिया था। उनके साथ सौतेला बर्ताव होने लगा था। जिन आर्थिक सुधारों की क्रेडिट आज कांग्रेस लेने से नहीं चूकती, उस वक्त यही फैसले ‘हार के कारण’ मान लिए गए थे।

राव को पार्टी अध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया था। बाकी के साल राव ने केवल अपनी आत्मकथा ‘द इनसाइडर’ लिखने में बिताए। हालांकि इसके कुछ अंश राव के पीएम रहते आउटलुक पत्रिका में छपे थे। पी.वी. नरसिंहराव और उनके अनुवर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अच्छे संबंध थे। राव ने बड़े दिल और गहरी समझ का राजनेता होने के नाते संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे पर भारत का पक्ष रखने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल भेजा, उसका नेतृत्व अटलजी को सौंपा।

इस फैसले का मकसद दुनिया को यह संदेश देना था कि कश्मीर को लेकर भारत एक है। तब अटलजी लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष थे। हालांकि राव और अटलजी वैचारिक रूप से भी अलग थे। आज किसी पीएम से ऐसी पहल की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि ऐसा काम वही राजनेता कर सकता है, जो केवल आत्ममुग्ध न हो, जिसमें गहरा आत्मविश्वास हो, जो विरोधी की प्रतिभा का भी कायल हो और जो राष्ट्र को उसकी संपूर्णता में देखे।

कांग्रेस के लिए बड़ा झटका (अगर माने तो) यह है कि उसका एक और बड़ा राजनेता ‘हाई जैक’ हो चुका है। सरदार वल्लभ भाई पटेल को भाजपा पहले ही अपना ‘प्रेरणा पुरुष’ घोषित कर चुकी थी, अब राव भी तेलंगाना के ‘पितृपुरुष’ और ‘प्रेरणा पुरुष’ बन गए हैं। वैसे भी टीआरएस के पास अपने सीएम के. चंद्रशेखर राव के अलावा ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसका आभामंडल राष्ट्रीय हो। खुद चंद्रशेखर भी क्षेत्रीय नेता ही हैं।

राजनीतिक पार्टियां सत्तासीन होने के बाद इतिहास में अपनी अस्मिता और ‘वैधानिकता’ खोजने की हरसंभव कोशिश करती हैं। भले ही इसके लिए उन्हें नेताओं का ‘अपहरण’ ही क्यों न करना पड़े। वैसे भी टीआरएस कोई विचार आधारित पार्टी नहीं है। पार्टी की एक ही विचारधारा है- पृथक तेलंगाना राज्य। क्योंकि तेलंगाना वासियों का मानना है कि भाषिक-राजनीतिक एकता के चक्कर में आंध्र प्रदेश में ‍शामिल होकर उन्होंने अपनी स्वतंत्र अस्मिता गंवा दी। तेलंगाना राज्य बनने से उन्हें वह काफी हद तक वापस मिल गई है।

अब जरूरत है इस राज्य को एक आकाशीय व्यक्तित्व से जोड़ने की, जिसकी छाया में स्वतंत्र तेलंगाना की प्रासंगिकता सिद्ध की जा सके। चूं‍कि नरसिंहराव ऐसे राजनेता हैं, जो अपनी ही पार्टी में उपेक्षित रहे हैं, इसलिए टीआरएस ने उन्हें ही अपना ‘आदर्श पुरुष’ मान लिया है। पार्टी राव को भारत रत्न देने की मांग भी उठा रही है। मोदी सरकार इस पर क्या निर्णय लेती है, यह देखने की बात है।

जाहिर है कि मातृ पार्टी कांग्रेस भले राव को दरकिनार कर चुकी हो, लेकिन नए राजनीतिक तकाजों ने विस्मृत राव को फिर एक नए अवतार में जन्म दे दिया है। बतौर प्रधानमंत्री राव ने 1991 में नांदयाल सीट से लोकसभा का उपचुनाव भी ‘तेलुगू बिड्डा’ (तेलुगू बच्चा) के रूप में लड़ा और जीत का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया था। तब टीआरएस का जन्म भी नहीं हुआ था। लेकिन शायद पूत के पांव पालने में दिख चुके थे। उस वक्त आंध्र में हिलोरें ले रही ‘तेलुगू देशम’ की अवधारणा का परिवर्तन आगे चलकर ‘तेलंगाना’ में होना था। उसे आकार लेने में 23 साल लग गए। तो क्या तेलंगाना को अपना ‘पितृ पुरुष’ मिल गया है?

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टीम मध्‍यमत

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