मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सभी को जिस अंतिम आंकड़े का इंतजार था वह मतगणना शुरू होने के करीब 24 घंटे बाद आया और उसके मुताबिक कांग्रेस को 114 और भाजपा को 109 सीटें मिली हैं। इनके अलावा बसपा ने 2, सपा ने एक सीट और चार सीटें निर्दलियों ने हासिल की हैं।
मंगलवार देर रात तक, जब अंतिम स्थिति स्पष्ट नहीं थी और दोनों प्रमुख दलों की सीटों की संख्या में लगातार बदलाव हो रहा था, तब ऐसा लग रहा था कि भाजपा अपनी 15 साल की सत्ता आसानी से छोड़ने वाली नहीं है। यदि उसे अपने लिए जरा सी भी संभावना दिखी तो वह मौका हाथ से नहीं जाने देगी।
मैं देख रहा था कि तमाम टीवी चैनलों पर भाजपा के प्रवक्ता और नेता अपनी ही पार्टी की सरकार बनने के दावे के साथ, दूसरे दलों और निर्दलियों के साथ जोड़तोड़ की बातें भी खुलकर कर रहे थे। कोई बसपा को अपना पुराना साथी बता रहा था तो कोई मीडिया को नसीहत देते हुए कह रहा था कि निर्दलियों और कांग्रेस से चुनकर आए लोगों की ‘अंतरात्मा की आवाज’ को भी आप लोग नजरअंदाज न करें।
लेकिन बुधवार सुबह होते होते जब भाजपा जादुई आंकड़े से सात सीटें और कांग्रेस सिर्फ दो सीट दूर रह गई तो हालात बदलने लगे। ऐसा नहीं था कि भाजपा ने हथियार डाल दिए थे। वहां कई लोग ऐसे थे जो चाहते थे कि संभावना टटोलने में बुराई क्या है। लेकिन तमाम गुण भाग करने के बावजूद बात बनने की सूरत दिखाई नहीं दे रही थी।
भाजपा को अपने कदम पीछे खींचने के लिए दो कारणों से मजबूर होना पड़ा। पहला और निर्णायक कारण तो यह था कि आंकड़ों का गणित उसके पक्ष में नहीं बैठ रहा था। दरअसल भाजपा को 116 का जादुई आंकड़ा हासिल करने के लिए सात विधायकों की जरूरत थी और तभी वह सरकार बनाने का दावा कर सकती थी।
सामान्य स्थिति होती या बाजार में ‘माल’ इफरात से मौजूद होता तो यह सात का आंकड़ा जुटाना भी कोई मुश्किल बात नहीं थी। लेकिन मामला इसलिए फंसा कि किसी भी तरह की सौदेबाजी के लिए सिर्फ सात ही लोग मौजूद थे। यानी बाजार से पूरा लॉट उठाए बिना बात नहीं बनने वाली थी।
आप कह सकते हैं कि जिस तरह इस बार पूरे चुनाव में कांटा फंसा था वह अंतिम पड़ाव तक भी फंसा ही रहा। एक मुश्किल यह भी थी कि जिन सात लोगों पर आंख लगी हुई थी वे भी अलग-अलग दलों और मिजाज के लोग थे। मसलन दो विधायक बसपा के थे तो एक विधायक सपा का। निर्दलियों में से भी अधिकांश वो थे जो कांग्रेस से ही बगावत करके चुनाव लड़े थे।
यदि सपा-बसपा को टटोला भी जाता तो सबसे पहले उत्तरप्रदेश की राजनीति ही आड़े आ जाती। और फिर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के नफे नुकसान के मद्देनजर, भविष्य की राजनीति के लिहाज से भी यह करीब-करीब नामुमकिन था कि बसपा और सपा का नेतृत्व कांग्रेस के बजाय भाजपा के साथ जाने का जोखिम उठाता। और एक बार को यदि ये दोनों दल मान भी जाते तो भी भाजपा के लिए सरकार बनाने लायक बहुमत तो नहीं जुट रहा था।
यही हाल निर्दलियों के मामले में भी था। यदि बसपा और सपा को छोड़ चार निर्दलीयों को भी भाजपा का समर्थन करने के लिए राजी कर लिया जाता तो भी बात बनने वाली नहीं थी क्योंकि तब भी भाजपा को सरकार बनाने के लिए तीन और विधायकों की जरूरत होती। यानी हर सूरत में जरूरी था कि शेष बचे सातों विधायक ही यदि एक साथ कोई फैसला करें तभी भाजपा की सरकार बन सकती है अन्यथा नहीं।
हालात मुश्किल हो सकते हैं यह कांग्रेस को पता था। और अतीत के अनुभवों से वह सबक भी ले चुकी थी कि ऐसे मामलों में ढिलाई बरतना कितना जोखिम भरा हो सकता है। इसलिए कांग्रेस ने चुनाव परिणाम का कांटा फंसता देख, स्थिति से निपटने की तैयारी काफी पहले से ही शुरू कर दी थी। इसका फल उसे निर्दलियों के समर्थन के रूप में मिला।
दरअसल भाजपा के लिए तो संभावना का गुब्बारा मंगलवार रात ही पंचर हो गया था जब समाजवादी पार्टी ने ऐलानिया तौर पर कह दिया था कि वह कांग्रेस को समर्थन करेगी। यानी सात में से एक विधायक का तो कांग्रेस के पाले में जाना पक्का हो ही चुका था। ऐसे में बाकी छह यदि एक साथ भाजपा के पाले में जाने का फैसला कर भी लेते तो बाजी बराबर रहने वाली थी। बहुमत किसी के पास नहीं होता।
दूसरी तरफ चाहे बसपा और सपा हो या फिर निर्दलीय, सभी एक दूसरे के गेमप्लान को लेकर आशंकित भी थे कि कोई एक भी टूटा तो सारा प्लान बिखर जाएगा। अवचेतन में इस बात का दबाव जरूर रहा होगा कि जाएं तो सातों जाएं अथवा कोई न जाए। और एक दूसरे के ‘मूव’ को न ताड़ पाने या यूं कहें कि भरोसा न होने के कारण किसी ने भी भाजपा का दामन थामने में रुचि नहीं दिखाई होगी।
दूसरा कारण यह रहा कि कांग्रेस के साथ जाने में इन सभी का फायदा इस लिहाज से भी अधिक था कि संख्या बल के आधार पर वह सरकार बनाने के ज्यादा नजदीक थी और सबसे बड़ा दल होने के कारण, कायदे से राजभवन की ओर से सबसे पहले उसे ही सरकार बनाने का बुलावा मिलना था। इसीलिए सभी स्वाभाविक रूप से सत्ता के चुंबक की ओर आकर्षित हुए।
ऐसे में जब भाजपा को लगा कि उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद बात नहीं बन रही तो उसने बजाय जोड़तोड़ करके बदनामी मोल लेने के, खुद को शहीद की मुद्रा में पेश करने का फैसला किया और काफी सोचविचार के बाद ऐलान कर दिया गया कि वह सरकार बनाने नहीं जा रही है।