बहुत पुरानी कहावत है कि दूध का जला छाछ को भी फूंक कर पीता है। समय के साथ इस कहावत के कई वर्जन आए… किसी ने देशकाल और परिस्थितियों को देखते हुए इसमें यूं संशोधन किया कि ‘’दूध का जला कोल्ड ड्रिंक को भी फूंक कर पीता है।‘’ लेकिन मुझे इस कहावत को लेकर आज भी 45 साल पहले वाला एक फिल्मी दृश्य सबसे ज्यादा पसंद आता है। याद कीजिये ‘पाकीजा’ फिल्म में राजकुमार का बोला गया वह डॉयलाग जिसमें वे चरित्र अभिनेता सप्रू को इसी कहावत का जवाब देते हुए कहते हैं- ‘’अफसोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं..!’’
मुझे लगता है मध्यप्रदेश सरकार भी इन दिनों दूध से जल रही है। जी हां, मामला मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा घोषित भावांतर योजना का है जो किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने के इरादे से लाई गई है। इस योजना को मुख्यमंत्री ने 16 अक्टूबर को लांच किया था और उसके बाद से ही प्रदेश के खेत खलिहान से लेकर राजनीति की मंडी तक इस पर घमासान मचा हुआ है।
सोमवार को प्रदेश के पूर्व मंत्री और मुरैना के सांसद अनूप मिश्रा ने इस मामले में कृषि विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा को खुला पत्र लिखा। उन्होंने सीधे सीधे चेतावनी सी देते हुए कहा है कि इस योजना की मैदानी समीक्षा की जाए वरना यह मुख्यमंत्री की ‘किसान हितैषी छवि’ को नुकसान पहुंचाएगी।
मिश्रा का कहना है कि ‘भावांतर’ शिवराजसिंह चौहान की हृदयस्पर्शी योजना है लेकिन इसके क्रियान्वयन में ऐसा नहीं दिख रहा। जिस प्रकार से भावान्तर योजना को मंडियों में लाया गया है, इससे किसान अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहा है। यह योजना मंत्रालय में बैठकर बनाई है। इसे लेकर या तो आप मंडियों में पहुंचकर फीडबैक लें या फिर मैं (मिश्रा) जाता हूं।
सोमवार को ही प्रदेश के कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने कैबिनेट की बैठक में आरोप लगा दिया कि भावांतर में व्यापारियों ने ‘कॉकस’ बना लिया है। उन्होंने सुझाव दे डाला कि उड़द की खरीद को भावांतर से अलग कर उसके समर्थन मूल्य का भुगतान किया जाना चाहिए। हालांकि वित्त मंत्री जयंत मलैया सहित कई मंत्रियों ने भावांतर योजना का समर्थन करते हुए कहा कि जरूरी सुधार के साथ इसे लागू किया जाना चाहिए।
संभवत: मध्यप्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य था जिसने किसानों की आय दुगुनी करने का नारा सबसे पहले दिया था। उस नारे के बाद से ही राज्य सरकार ने कई तरह की कोशिशें की हैं कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाया जा सके। यही वजह थी कि सरकार ने करोड़ों रुपए का घाटा उठाकर पिछले सालों में प्याज उत्पादक किसानों से प्याज खरीदने जैसा आत्मघाती फैसला भी किया।
चाहे प्याज की खरीदी का मामला हो या भावांतर का। योजनाओं में बुनियादी रूप से किसानों के कल्याण का ही भाव छिपा है। लेकिन दिक्कत यह है कि जनकल्याणकारी नीतियों और घोषणओं को मैदानी स्तर पर अमल में लाने वाली नौकरशाही और संबंधित एजेंसियों का मानस अभी भी हर योजना से पैसा वसूल लेने वाला ही है। और जब सरकारी अमले का मानस ऐसा हो तो दलालों और बिचौलियों की चांदी होना स्वाभाविक है।
यही कारण है कि सत्ता के गलियारों से लेकर मंडी के चौगान तक फैले ये दलाल गरम केसरिया दूध भी पी रहे हैं और गुलाबजल की सुगंध वाला ठंडा दूध भी। इधर सब कुछ करने के बावजूद सरकार खुद को दूध से जलाए बैठी है। उसे किसानों के लिए कुछ न करने पर भी पत्थर खाने पड़ रहे हैं और किसान हितैषी उपाय करने पर भी वह अपयश की भागी हो रही है।
शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री ने मंगलवार को भी हालात की समीक्षा कर अफसरों और मंत्रियों से कहा कि वे किसानों को हर हाल में उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाएं। भावांतर भुगतान योजना के संबंध में फैलायी जा रही भ्रांतियां दूर करने के लिए जिलों में नियंत्रण कक्ष स्थापित हों। सीनियर अफसर खुद मंडियों में जाकर समस्याओं का निराकरण करवाएं।
होना भी शायद यही चाहिए। क्योंकि योजना को लेकर जितना भ्रम फैल रहा है उतनी ही सरकार की बदनामी हो रही है और योजना के भविष्य पर भी सवाल खड़ा हो रहा है। लोगों को योजना की सही सही जानकारी ही पता नहीं है। जैसे भुगतान का ही मामला ले लीजिए। मैंने कई लोगों से यूं ही पूछा कि भावांतर में भुगतान कैसे होगा, तो कोई ठीक ठीक नहीं बता पाया। जितने मुंह उतनी बातें।
जबकि योजना को लेकर 16 अक्टूबर को जारी प्रेस नोट ही बताता है कि सरकार ने जिस ‘मॉडल विक्रय दर’ को भुगतान का आधार बनाया है, वह किसान द्वारा बेची गई फसल के मूल्य से चाहे अधिक हो या कम, दोनों ही सूरत में किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य से अंतर की राशि का भुगतान होगा। लेकिन इस फार्मूले को इतना उलझाकर बताया गया है कि किसान से लेकर राजनेता तक कन्फ्यूज हो रहे हैं और नतीजतन सरकार का विरोध बढ़ता जा रहा है।
जरा उस फार्मूले को बताने वाली सरकारी जानकारी पढि़ए, वह कहती है- ‘’योजना में किसानों को देय राशि की गणना के प्रावधान के अनुसार यदि किसान द्वारा मण्डी समिति परिसर में बेची गई अधिसूचित फसल की विक्रय दर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम परंतु राज्य शासन द्वारा घोषित मॉडल विक्रय दर से अधिक हुई, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा किसान द्वारा विक्रय मूल्य के अंतर की राशि किसान के खाते में अंतरित की जाएगी। इसी तरह यदि किसान द्वारा मण्डी समिति परिसर में विक्रय की गई अधिसूचित फसल की विक्रय दर राज्य शासन द्वारा घोषित मॉडल विक्रय दर से कम हुई, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा मॉडल विक्रय दर की अंतर की राशि किसान के खाते में अंतरित की जाएगी।‘’
अब इस उलटबांसी को समझने में जब अच्छे खासे पढ़े लिखे इंसान को भी पसीना आ जाए तो बेचारा किसान क्या खाक समझेगा। दरअसल सारा झगड़ा ही सही बात को सही तरीके से लोगों तक पहुंचाने का है। जब आप खीर में अचार डालकर परोसेंगे तो कौन खाने आएगा…?