पानी की खोज में निकली एक ‘अनुपम’ बूंद…

आदरणीय प्रभाष जोशी जी के शब्‍दों में कहूं तो अखबार की दुनिया में कागद कारे करते हुए 36 साल हो गए हैं। लेकिन इस दौरान में खैर मनाता रहा हूं कि कुछ लोगों के बारे में स्‍मृति शेषजैसा कुछ लिखने की नौबत कभी न आए। जैसे मैंने कभी नहीं चाहा कि पंडित कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी की ऑबिचुरी (शोक संदेश) लिखना पड़े।

इस नश्‍वर संसार की हकीकत जानते हुए भी मन हमेशा चाहता है कि कुछ लोग अनश्‍वर ही बने रहें। ऐसी ही मनौती अनुपम मिश्र के लिए भी मांग रखी थी कि उन पर कभी इस तरह का कुछ लिखने की नौबत न आए। हमेशा यही दुआ करता रहा कि किसी तालाब किनारे या किसी कुएं-बावड़ी पर अनुपमजी यूं ही बैठे मिलते रहें… पानी और पानी के ठियों-ठिकानों की बात करते हुए…

लेकिन विडंबना देखिए कि सोमवार को ऐसी तमाम दुआओं के विपरीत वो खबर आई… और अपने साथ मजबूरी का ऐसा बवंडर लेकर आई कि मैं स्‍मृति शेष अनुपम मिश्र पर लिख रहा हूं।

मेरी दुविधा यह है कि अनुपम मिश्र पर लिखते समय बात कहां से शुरू करूं… अनुपम मिश्र को क्‍या लिखूं… क्‍या उन्‍हें सिर्फ एक शरीर मानते हुए लिखूं या फिर इस चराचर जगत के अस्तित्‍व की आधार, उस बूंद के रूप में उनका जिक्र करूं, जो सदियों पहले तो थी, लेकिन सदियों तक रहे भी, इसकी चिंता में अनुपम मिश्र ने पूरा जीवन खपा दिया।

अनुपम जी के न रहने की खबर मिलने के बाद अपनी फेसबुक वॉल पर जब मैंने लिखा कि- ‘’अनुपम जी का जाना तालाबों के खरेपन का सूना हो जाना और उन बूंदों का सूख जाना है, जो कुओं और पोखरों से लेकर सागर तक को पानीदारबनाती हैं…’’ तो लगा कि मैं चाहे अनुपम मिश्र की बात करूं या अस्तित्‍व बचाती बूंद की, बात एक ही होगी।

कुदरत भी कभी-कभी कमाल की कुम्‍हारगीरी करती है। बाकी काम, विचार, व्‍यक्तित्‍व आदि की बात तो छोडि़ये, उसने अनुपम जी का चेहरा तक ऐसा रचा था जो आज के जलस्रोतों की पूरी कहानी बयां करता है। आप उनका फोटो देखें, क्‍या ऐसा नहीं लगता कि इस ऊबड़ खाबड़, बियाबान से लगने वाले चेहरे की हर सलवट में मानो एक सरस्‍वती बह रही हो, अपने अस्तित्‍व की खोज में… वो सरस्‍वती जिसे हमने… हां हम मनु की संतानों या आदमजादों ने सुखा डाला…

अनुपम जी के पिता, जाने माने कवि भवानीप्रसाद मिश्र की एक कविता की पंक्तियां है-

कलम अपनी साध

और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,

और बहते बने सादे ढंग से तो बह।

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,

और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।

चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाये

बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाये.

… तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी,

तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी।

और अपने पिता एवं चहेतों के भवानी भाई की इस संतान ने खुद को सचमुच ऐसा साधा कि वे इस समाज के लिए वरदान हो गए।

यह विडंबना ही है कि अनुपम मिश्र के न रहने की खबर उस समय आई है जब मध्‍यप्रदेश सरकार इस प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्‍त और सदानीरा बनाने के लिए नर्मदा सेवा यात्रा का आयोजन कर रही है। अनुपम जी ने जलस्रोतों की सुध लेने-लिवाने के लिए भले ही इस तरह के जलसानुमा उपक्रम न किए हों, लेकिन वे पानी बचाने की अलख जगाने के लिए मानो धूनी रमा कर बैठ गए थे। कबीर ने लिखा है- जोगी था सो रमि गया, आसन रही विभूति… आज के बाद भी अनुपम मिश्र की यह विभूति हर कुएं की जगत, हर तालाब की पाल और हर नदी के किनारे पर बिखरी मिलेगी।

अपनी प्रसिद्ध कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में अनुपम जी ने लिखा है-

‘’सैकड़ों, हजारों तालाब, जोहड़, नाड़ी, कुएं, कुईं, बेरी, ऐरि आदि अचानक शून्‍य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हजार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्‍म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज के एक हिस्‍से ने इस इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हजार को शून्‍य ही बना दिया। यह शून्‍य फिर से इकाई, दहाई, सैंकड़ा और हजार बन सकता है।‘’

जो लोग जीवन को सिर्फ और सिर्फ गणित की भाषा में ही समझते हैं, अनुपम जी उन्‍हें पानी की बात भी उसी गणित की भाषा में समझा गए… ठीक भवानी भाई की कविता की तरह- जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख…

बूंदों के इस चौकीदार के अनंत महासागर में विलीन हो जाने पर आज शायद बूंदें भी कहीं चुपचाप आंसू बहा रही होंगी…

मशहूर शायर मीर यदि होते तो जरूर कहते-

सिरहाने अनुपम के आहिस्‍ता बोलो

अभी टुक सोया है, बूंद बूंद कहते…

विनम्र श्रद्धांजलि!

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