रमेश रंजन त्रिपाठी
गणेश जी का प्राकट्य कब हुआ? जब मनुष्य के हृदय में सबकुछ निर्विघ्न संपन्न हो जाने की कामना का उदय हुआ। कार्य की सफलता हेतु बुद्धिमानी, चतुराई, संसाधन, तत्परता, धैर्य और भाग्य के पक्षधर होने की आवश्यकता होती है। तमाम दुश्वारियों के बीच काम की बात सुनने, सूंघने, अविचल बने रहने, खाने तथा दिखाने के अलग-अलग दांतों की तरह गोपनीयता बनाए रखने की मानसिकता और आवश्यकतानुसार वक्रतुण्ड की भाँति टेढ़ेपन की महत्ता को गजानन के स्वरूप से बेहतर कौन अभिव्यक्त कर सकता है? लंबोदर में सारी सूचनाओं और दिमागी भोजन को पचा जाने की क्षमता, शूर्पवत कानों से सुनी-सुनाई बातों को फटक कर उपयोगी और व्यर्थ को अलग-अलग छाँटने की योग्यता विशिष्ट नेता यानी विनायक के अतिरिक्त किससे मिल सकती है?
किसी कार्य के सफलतापूर्वक पूरा होने की अभिलाषा ने इंसानों के मन के साथ बाहर भी आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया। इसके लिए कल्याण अर्थात् शिव रूपी पिता तथा शक्ति यानी उमा रूपी माता के पुत्र गणेश को कुशल-क्षेम का उत्तरदायित्व सौंपने में किसी को हिचक क्यों होती? गणों के विशिष्ट अधिपति की अर्द्धांगिनी पूर्ण सफलता की पर्याय सिद्धि और ज्ञान पाने के लिए आवश्यक बुद्धि ही हो सकती हैं। ऐसे माता-पिता और उनके बेटे-बहू जहां विराजमान हों, वहाँ शुभ और लाभ बालक बनकर आंगन में खेलेंगे ही!
मनुष्य ने होश संभाला तो पाया कि विघ्न-बाधाएँ पहले से मुँह बाए खड़ी हैं। जब तकलीफें आदिकाल से मौजूद हैं तो उनके विनाशक भी तो अनादि हुए। विघ्नेश्वर इतने प्राचीन हैं कि उनके माता-पिता ने अपने विवाह के समय भी उनकी पूजा की थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक कार्य की शुरुआत गणनायक की पूजा से की जाती है, चाहे वह पावन अवसर कल्याणकारी शिव और शक्ति, शांति, वैभव, प्रसिद्धि की देवी उमा के दाम्पत्य सूत्र में बंधने का ही क्यों न हो। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्रीराम चरित मानस’ में शिव-पार्वती विवाह के प्रसंग में गणेश पूजन का उल्लेख करते हुए कहा है कि सुननेवालों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि देव अनादि होते हैं। तात्पर्य यह है कि पौराणिक आख्यानों में अलंकारिक भाषा का पर्याप्त उपयोग किया गया है। अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हो गईं। भारतीय समाज में कार्य की शुरुआत को श्रीगणेश करना कहा जाता है। बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने की शुरुआत श्रीगणेश का ध्यान करने से होती है।
विघ्नों का हरण करनेवाले गणेश जी के स्वरूप पर सम्मोहित जनमानस के बड़े वर्ग ने उन्हें सर्वशक्तिमान और सृष्टि के नियंता परमपिता के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। गणेश पुराण की रचना हुई। गजानन स्वयं अष्टविनायक के रूप में प्रकट हुए। उनके अवतारों का वर्णन मिलता है। हाथी का सिर, एकदंत, मूषक वाहन, महाभारत लेखन, प्रथम पूज्य जैसे कई प्रसंगों पर अनेक कथाएँ कही जाने लगीं। गणपति को परमेश्वर माननेवालों के गाणपत्य समुदाय को मान्यता मिली। वैष्णव, शैव, शाक्त और सौर संप्रदाय भी हैं जो विष्णु, शिव, शक्ति और सूर्य की उपासना करते हैं।
धीर, गंभीर, विशाल, शक्तिशाली हाथी को सनातन धर्म में प्रथम पूजनीय देवता के विग्रह रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। यद्यपि अनेक जीवों को हिंदू धर्म में पूज्य माना जाता है परंतु हाथी जैसी प्रतिष्ठा अन्य किसी को नहीं मिली। दसों दिशाओं को थामने की क्षमता दिग्गजों के अलावा किसमें हो सकती थी? देवताओं के राजा और स्वर्ग के अधिपति इंद्र की प्रतिष्ठा में ऐरावत हाथी और वज्र चार चाँद लगा देते हैं। मानवीय शक्ति का पैमाना हाथियों का बल माना जाता था। महाभारत में पांडुपुत्र भीमसेन के शरीर में दस हजार हाथियों के बल का वर्णन मिल जाता है। जो भव्यता और विशालता गजराज में है, अन्यत्र कहाँ? हाथी और छह अंधों की कहानी प्रसिद्ध है। कई लोगों ने उसे स्कूल के कोर्स में पढ़ा है। अंधे व्यक्ति हाथी को छूकर देखते हैं और उन्हें वह खंभे, पेड़ के तने, दीवार, नली, पंखे और रस्सी जैसा प्रतीत होता है। अपनी बात मनवाने के लिए उनमें झगड़े की नौबत आ जाती है। अक्ल की आँखों पर पट्टी बांधे लोग अधूरी और व्यर्थ की बातों पर आज भी लड़ते रहते हैं न?
अंग्रेजों के राज में महाराष्ट्र में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को घरों में बिठाए जानेवाले गणपति को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने सार्वजनिक मंच पर लाकर उत्सव का रूप प्रदान किया ताकि लोगों को एकत्र होने का बहाना मिल सके और उन्हें आजादी का आव्हान करने का सुअवसर।
गणेश जी सर्वसुलभ सहृदय देवता हैं। भक्तगण अनगिनत रूपों में उनका स्मरण, ध्यान, पूजा, आराधना कर भवसागर को पार करने में आनेवाली बाधाओं को दूर भगाया करते हैं।
(लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार)

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