ग्राउंड रिपोर्ट

ब्रजेश राजपूत

छतरपुर से खजुराहो की ओर फोर लेन रास्ते पर करीब पंद्रह किलोमीटर चलने पर ही बायें हाथ पर एक रास्ता कटता है। जो गढ़ा गांव की ओर जाता है। रास्ते पर लगे बोर्ड और होर्डिंग्स से ही अंदाजा हो जाता है कि ये रास्ता आम नहीं है। वैसे भी इन दिनों देश भर में चर्चित और मीडिया चैनलों में धूमधाम से नानस्टाप चलने वाले बागेश्वर धाम की ओर जाने वाला रास्ता सामान्य कैसे हो सकता है।

चौराहे पर खडे ई-रिक्शा और टेंपो दस से बीस रुपये में बागेश्वर धाम सरकार की ओर ले जाने के लिये हांका लगाते रहते हैं। उन रिक्शों में बैठते ही शुरू हो जाता है वो खास जगह की ओर जाने वाला रास्ता जो सामान्य सा भी नहीं है। इस उंचे नीचे ऊबड खाबड गड्ढों से भरे रास्ते पर दो किलोमीटर बाद शुरू होता है गढ़ा गांव जहां इन दिनों श्रद्वालु और दुखियारों का डेरा है।

गढ़ा गांव और वहां के लोगों की बात बाद में करेंगे पहले चलते हैं उस जगह जहां जाने और देखने को लोग उतावले होते हैं यानि बागेश्वर धाम। हजार लोगों की आबादी वाले इस गांव के संकरे टेढ़े मेढ़े रास्ते को पार कर गांव के दूसरे छोर पर एक छोटी सी पहाडी है जहां पर है बागेश्वर धाम। पहाड़ी पर चढ़ने के लिये इन दिनों सीढि़यां और छाया के लिये शेड नये लगे हैं।

ऊपर दो छोटे-छोटे मंदिर दिखते हैं इनमें से एक है भगवान बागेश्वर महाराज यानि शंकर जी की छोटी सी मढि़या। ये इतनी छोटी है कि शिवलिंग को स्पर्श करना हो तो झुक कर भी एक आदमी मुश्किल से जा पाये। यहां के सेवादार दीपेंद्र बताते हैं कि ये चंदेल कालीन प्राचीन मंदिर है। मगर बागेश्वर क्यों, इसका जवाब मिला कि चूंकि इस पहाड़ के आसपास घना जंगल था जिसमें बाघ घूमते थे इसलिये इसे बाघेश्वर कहते थे, जो अब बागेश्वर बोला जाने लगा।

महादेव की इस मढि़या के पास ही बना है बालाजी धाम यानि हनुमान जी महाराज का नया-सा मंदिर। बागेश्वर धाम महाराज के आचार्य धीरेंद्र शास्त्री इन्हीं बालाजी के उपासक हैं और कहते हैं कि उनको इन्हीं की सिद्वी मिली है जिसके दम पर वो लोगों का भूत भविष्य बताते हैं। बालाजी के मंदिर से सट कर ही लगा है एक बड़ा सा पेड़ जिससे चिपट कर लोग चीखते चिल्लाते रहते हैं।

ये क्या हो रहा है पूछने पर दीपेंद्र कहते हैं कि ये प्रेत बाधा से ग्रसित लोग हैं जो यहां मंगलवार और शनिवार को आते हैं इस पेड़ में पाजिटिव एनर्जी है और उसे छूकर या उससे चिपट कर इन लोगों के दिमाग पर छायी निगेटिव एनर्जी दूर हो जाती है। यहीं हमें कुछ लोग ऐसे भी दिखे जिनको जंजीर से बांधा गया था और वो जमीन पर लोट लगा रहे थे।

इन तीन जगहों के आस-पास बेरिकेड लगायी गयी है और दिलचस्प ये है मंदिर से दूरी बनाने के लिये लगायी गयीं बैरिकेड पर ही काले लाल और पीले रंग की पोटलियां बंधी हुयीं है। इन पोटलियों में अलग-अलग फरमाइशें या श्रद्धालुओं की मन्नतें हैं। काले में प्रेत बाधा से मुक्ति तो पीले में शादी ब्याह की मन्नत वहीं लाल में सामान्य कामकाज करवाने की दरखास्त। हमने पूछा ये क्या है तो बताया गया कि ये अर्जियां हैं।

झारखंड के गुमला जिले से आया शैलेंद्र सिहं का परिवार लाल कपड़े में नारियल बांधकर बैरिकेड से बांध रहा था। पूछा ये क्या और क्‍यों कर रहे हो तो मुस्कुराते हुये कहा कि बालाजी महाराज के दरबार मे अर्जी लगा रहे हैं, कुछ मांगा है। हमने पूछा किसने कहा ऐसा करने को, तो बताया सब कर रहे हैं तो हम भी कर रहे हैं। भरोसा है, जो मांगा वो मिलेगा। हां इतने लोगों को मिला है तो हमें भी मिलेगा। किसी ऐसे को जानते हो जिसे ये बांधने से कुछ मिला है, तो मुस्कुराकर रह गये।

यहां आने वाले अधिकतर ऐसे ही हैं जो सुनी सुनाई बात पर ही चले आ रहे हैं और श्रद्वा और भक्ति भाव से बालाजी महाराज की जय जयकार कर रहे हैं। इन दो छोटे-छोटे मंदिरों के दर्शन कर नीचे उतरते हैं तो वहीं पर बना है आचार्य धीरेंद्र शास्त्री का वो स्थान जहां पर वो रहते और जनता से मिलते हैं। पहाड़ी के ठीक नीचे ये दो मंजिला गांव की पंचायत का सामुदायिक भवन है, जिसमें धीरेंद्र ने लोगों की सहूलियत के लिये ठिकाना बना लिया है।

इस परिसर में एक तरफ से लोग आते हैं और दूसरी तरफ से दर्शन कर निकलते रहते है। जिससे मिलना होता है उससे धीरेंद्र शास्त्री टोकन व्यवस्था की मदद से समय देकर मिलते भी हैं। आने वाले लोगों की समस्या सुनने के बाद उनको पेशी पर बुलाते हैं। पेशी का मतलब कोर्ट कचहरी नहीं बल्कि सामने पहाड़ी पर बने मंदिर पर पांच या दस बार आना होता हैं। अर्जी लगाने के बाद यहीं पेशी होती है, लोगों को भरोसा है कि पेशी और बालाजी के दर्शन के बाद दुख-दर्द दूर हो जायेंगे।

धीरेंद्र जहां पर बैठते हैं वहीं पीछे की तरफ उनके दादा संन्यासी बाबा के बैठने का स्थान है। बेहद सामान्य तरीके से रहने वाले धीरेंद्र शास्त्री कैसे बागेश्वर धाम सरकार के नाम से जाने जाने लगे ये पूछने पर उनके मित्र रिंकी सिहं बताते हैं कि इनके परिवार में पुरोहिताई का काम होता था। इनके दादा भी यही काम करते थे यानि पर्चे पर कुछ लिखकर भूत भविष्य बताना।

शुरुआती दिनों की छोटी-मोटी पुरोहिताई के बाद धीरेंद्र रामकथा करने लगे। कुछ आस-पास के गांवों में कथा की, जिसमें जितना मिलता रख लेते थे। मगर कुछ कथित सिद्वियों के चलते उनकी लोगों को बतायी बातें सच होने लगी तो उनका दरबार बड़ा होता गया। रही सही कसर कोरोना काल और सोशल मीडिया के प्रचार ने पूरी कर दी। लोगों ने घर बैठे खूब कथा सुनी, लाइव प्रसारण देखा और यू-टयूब पर धीरेंद्र महाराज को देखा सुना।

बस फिर क्या था महाराज की ठेठ बुंदेली बोली, उनका लड़कपन, बोलचाल की अदा, अपने बालाजी पर अटूट भरोसे ने ही उनको पिछले दो सालों में भारी लोकप्रिय कर दिया। हर मंगलवार और शनिवार को गढ़ा गांव में मेला लगता है। धीरेंद्र शास्त्री की राम कथा की अगले दो साल तक की भरपूर बुकिंग है। एक टीवी चैनल उनकी कथाओं का निर्बाध प्रसारण करता है और मीडिया उनकी बाइट और इंटरव्यू के लिये लालायित रहता है। उनसे जुड़ा कोई भी वीडियो आसानी से लाख दो लाख देख लिया जाता है।

बड़बोले धीरेंद्र शास्त्री मानते हैं कि वो जो करते है चमत्कार नहीं बस कृपा हनुमान जी महाराज की। हम आप इसे कृपा, पाखंड, ढोंग कुछ भी नाम दे लें मगर इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि धीरेंद्र शास़्त्री की लोकप्रियता इन दिनों चरम पर है। कितने दिनों तक? कोई नहीं जानता, मगर तेजी से लोकप्रिय होने वाले और बाद में गुमनामी में खोने वाले अनेक बाबा बैरागियों, महाराज, सरकारों के नाम हम आप सब जानते हैं।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्यमत)
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