राकेश अचल
जिस देश में बहुसंख्यक आबादी मांसाहारियों की हो वहां यदि आपको मक्खियां भिनभिनाते बूचड़खाने और टाट के पर्दे लगी मांस की दूकानें नजर न आएं तो हैरान न होइए। बात अमेरिका की है। यहां बेहतर प्रबंधन की वजह से ये सब मुमकिन हुआ है। भारत के लिए ये एक नजीर बन सकती है।
अमेरिका में मांसाहार को लेकर धीरे-धीरे अरुचि भी बढ़ रही है। लोग तेजी से शाकाहारी हो रहे हैं। शाकाहार में भी एक नई श्रेणी ‘वीगन’ है। अब 18 साल की आयु वर्ग के युवक, युवतियों में वीगन के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। मैं पांचवीं बार अमेरिका आया हूं और मेरी दिलचस्पी यहां के खानपान में रही है। मुझे पता चला कि अमेरिका में 16.5 फीसदी लोग तेजी से मांसाहार छोड़कर शाकाहार और ‘वीगन’ की ओर खिंचे चले आ रहे हैं। ‘वीगन’ श्रेणी के शाकाहारी अंडे, दूध यहां तक कि शहद तक से परहेज़ करते हैं।
मजे की बात ये है कि मांसाहार छोड़ने की वजह धार्मिक और सांस्कृतिक बिल्कुल नहीं है। ये सब स्वास्थ्य कारणों से हो रहा है। मांसाहार छोड़कर वीगन खाने की वकालत करने वालों में पर्यावरणविदों के साथ ही फैशन, अभिनय और खेल की दुनिया के शीर्ष लोग भी हैं।
अमेरिका में मांसाहार के तमाम उत्पाद बड़े उपभोक्ता भंडारों में बेहद हाइजीनिक स्थितियों में बिकते हैं। यहां मांस की दूकानें घृणा उत्पन्न नहीं करतीं। मांस बेचने वालों के चेहरे क्रूर और निर्मम नहीं दिखाई देते। मांस काली पोलीथीन में नही बेचा जाता, बल्कि शानदार पैकिंग में मिलता है। अमेरिका में मांस की दूकानों के बाहर छिछड़ो के लालच में आवारा कुत्तों की फौज नजर नहीं आती। मांसाहार और शाकाहार एक ही छत के नीचे आराम से बिकता है।
अमेरिका के रहने वाले लाखों, करोड़ों लोग अब अपने मेहमानों का भी पूरा ख्याल रखते हैं। अब अमेरिकियों की पार्टियों में शाकाहारी भोजन के साथ ही वीगन भोजन उपलब्ध होता है। यहां तक कि बच्चों की जन्मदिन पार्टियों में भी तिहरा इंतजाम किया जाने लगा है। खानपान के आंकड़े बताते हैं कि औसतन हर अमेरिकी साल भर में 250 पौंड गोश्त खा लेता है। इसके अलावा मछली तथा दूसरा समुद्री मांस 20 पौंड अलग से खप जाता है। लेकिन अब यहां भी शाकाहार तेजी से बढ़ रहा है। कम से कम पांच फीसदी की दर तो है ही।
अमेरिका में भारत की तरह बूचड़खाने नहीं है, लेकिन जहां मांसाहार की व्यवस्था की जाती है वे ठिकाने 2785 हैं। इन आधुनिक बूचड़खानों में गाय, सुअर और भेड़ो का मांस तैयार किया जाता है। इनमें 349 ऐसे कत्लखाने हैं जिनमें केवल पोल्ट्री फार्म के उत्पादन होते हैं।
अमेरिका में बढ़ते शाकाहार के बावजूद 20 मिलियन मुर्गे- मुर्गियां, 3.30 लाख सुअर और 16.6 लाख गायें काटी जाती हैं। इतने जानवरों का मांस 72 घंटे में देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया जाता है। मेरे कहने का आशय ये है कि अमेरिका मांसाहार के मामले में कोई साधु नहीं है। यहां भी परिस्थिति नारकीय है, किन्तु मांस बेचने का तरीका यहां काफी बेहतर है।
अमेरिका में रहते हुए मैंने एक बात और नोट की है कि यहां हर तरह का भोजन उपलब्ध होने के बाद भी भोजन की बहुत बर्बादी होती है। यहां जूठन मूल भोजन का आधा हिस्सा होता है। बचा खाना नाली में बहा दिया जाता है। भारत में तो जूठन पर आज भी जानवर और इनसान दोनों पलते देखे जा सकते हैं। अमेरिका में यदि भोजन की बर्बादी रोक दी जाए तो मुमकिन है कि भुखमरी से पीड़ित दुनिया का पेट भर जाए। दुख की बात ये है कि यहां भोजन की बर्बादी को लेकर कोई जागरूकता नहीं है। ये बात चुनावी मुद्दा भी आज तक नहीं बन सकी है।
(मध्यमत)
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