राकेश दुबे

अभी जिस दिन इस वर्ष का अंतिम चन्द्रग्रहण था, देर रात दिल्ली ने भूकम्प के झटके झेले। यह सही है अभी भारत में भूकंप का पूर्वानुमान संभव नहीं है।  मैक्सिको जैसे देश ऐसे निगरानी तंत्र से ही अपना बचाव करते हैं। वहां भूकंप से बचने के लिए एजेंसियों को एक से डेढ़ मिनट का वक्त मिल जाता है। जाहिर है, एशिया में इस तरह का तंत्र बनाने के लिए हिमालय के आस-पास बसे सभी देशों को एक मंच पर आना होगा।

नेपाल, चीन और भारत में आए भूकंप के ये झटके अस्वाभाविक नहीं थे। इसका केंद्र नेपाल का मणिपुर था। भूगोल के हिसाब से इंडियन टेक्टोनिक प्लेट पूर्व से पश्चिम तक फैला है, जिसमें हमारा पूर्वोत्तर का इलाका, हिंदुकुश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान के कुछ भाग आदि आते हैं। यहां इंडियन प्लेट अपने से कहीं भारी यूरेशियन प्लेट के भीतर समा रही है या टकरा रही है, जिससे न सिर्फ हिमालय ऊपर की ओर उठ रहा है, बल्कि यह पूरा इलाका ही भूकंप के लिहाज से काफी संवेदनशील बन गया है। अभी 6.3 तीव्रता का भूकंप आया है, पर पूर्व में इससे भी अधिक ‘मैग्निट्यूड’ के कंपन आ चुके हैं।

हिमालय के आस-पास भूकंप का आना भले ही चौंकाने वाली बात न हो, लेकिन ऐसी प्राकृतिक घटना को गंभीरता से लेना चाहिए। हिमालय का फैलाव काफी दूर तक है, इसलिए यहां हल्की सी भी उथल-पुथल हमें बड़ी चोट दे सकती है। इसकी प्रकृति को देखते हुए ही यहां आठ या इससे भी अधिक तीव्रता के भूकंप की आशंका जाहिर की जा चुकी है। अगर ऐसा होता है, तो नेपाल या सीमावर्ती इलाकों के अलावा दिल्ली या उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी भारी तबाही मच सकती है। अगस्त 1988 में बिहार में आए भूकंप को हम अब तक याद करते हैं।

भूकंप का पूर्वानुमान संभव नहीं है। चंद हल्की थरथराहटों से बड़े भूकंप की आशंका भी नहीं जाहिर की जा सकती। हां, कुछ तकनीकी और व्यावहारिक उपाय जरूर किए जा सकते हैं। मसलन, एक बेहतर चेतावनी सिस्टम तैयार करना। और यह तभी हो सकता है जब एशिया में इस तरह का तंत्र बनाने के लिए हिमालय के आस-पास बसे सभी देश एक मंच पर आएं।

स्थानीय स्तर पर भी कुछ उपाय किए जा सकते हैं, जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। जैसे, भविष्य के घरों को भूकंपरोधी बनाना। हकीकत में भूकंप इंसान की जान नहीं लेता, इमारतें लेती हैं। अगर हम इमारतों को तैयार करने में आधुनिक व उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, तो बड़ी तीव्रता के भूकंप भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। मगर दिक्कत यह है कि अपने देश में ‘बिल्डिंग कोड’ होने के बावजूद शायद ही घर-निर्माण में इस बात पर ध्यान दिया जाता हो।

कानून लागू करने वाली एजेंसियों की जिम्मेदारी तय नहीं है, जो करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि नई इमारतें पूरी तरह से बिल्डिंग कोड का पालन करें। भूकंप के लिहाज से भारत में चार जोन-2, 3, 4 और 5 तय किए गए हैं। इसमें जोन-5 काफी संवेदनशील है, तो जोन-2 अपेक्षाकृत कम। इन पर भी गौर किया जाना चाहिए।

शहरों के अनियोजित विस्तार भी चिंता का विषय हैं। हर बड़े शहर में और उसके आसपास में न जाने कितनी अवैध कॉलोनियां बस चुकी हैं। इनमें रहने वाली सघन आबादी निश्चय ही बारूद के ढेर पर है। ताज़ा घटना में, दिल्ली 6.3 तीव्रता का भूकंप झेल चुकी है और यह जोन-4 का हिस्सा है, इसलिए यह आशंका जताई जाती रही है कि कोई बड़ा भूकंप यहां जान-माल का भारी नुकसान पहुंचा सकता है। इस आशंका से पार पाने के उपायों पर हमारे नीति-नियंताओं को जरूर सोचना चाहिए। विशेषज्ञों के अनुसार इसकी एक विधा ‘रेट्रोफिटिंग’ है इसकी तरफ ध्यान दे सकते हैं।

हमने जो आपदा प्रबंधन अधिनियम बनाया है, उसमें आपदा आने से पहले के बचाव-उपायों पर जोर दिया गया है। इसमें जन-जागरूकता बढ़ाने की बात भी कही गई है, जबकि इससे पहले की नीतियों में आपदा के बाद के राहत-कार्यों पर जोर दिया जाता रहा था। भूकंप से होने वाले नुकसान को टालने के लिए ‘प्री-डिजास्टर मैनेजमेंट’ काफी जरूरी है। आइसलैंड जैसे देशों में तो छोटी-छोटी तीव्रता वाले भूकंप भी माप लिए जाते हैं, जिस कारण वे कहीं अच्छी तैयारी कर लेते हैं। हम ऐसा तंत्र नहीं बना सकते, लेकिन बचाव के उपायों के प्रति गंभीरता दिखाकर अपना नुकसान काफी कम कर सकते हैं।

यह समझना होगा कि भूकंप ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जिसे कतई रोका नहीं जा सकता, इसलिए बचाव के उपाय ही विकल्प हैं। एक बड़े भूकंप के बाद कुछ हल्के कंपन आते ही हैं। इसे ‘ऑफ्टर-शॉक’ कहते हैं। दरअसल, जमीन के अंदर जब कोई टुकड़ा टूटता है या अपना स्थान बदलता है, तो उसके ‘सेटल’ होने, यानी किसी नए स्थान पर जमने तक धरती कई बार हल्की-हल्की कांपती है। अगर बड़े भूकंप से आपकी इमारत को थोड़ा-बहुत नुकसान भी पहुंचा हो, तो मुमकिन है कि आने वाले हल्के कंपन भी आपको बड़ी चोट पहुंचा जाएं। संभलिये!(मध्यमत)
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