खींच लाता है समय
उस मोड़ पर इंसान को,
दाँव पर यूँ ही नहीं
रखता कोई ईमान को….
 
हमने कब मायूस
लौटाया किसी मेहमान को,
अपनी कश्ती अपने
हाथों सौंप दी तूफ़ान को….
 
जिसकी ख़ातिर आदमी
कर लेता है ख़ुद को फ़ना,
कितना मुश्किल है
बचा पाना उसी पहचान को….
 
फिर न रख पाएगा वो
महफ़ूज़ क़दमों के निशाँ,
साथ जब मिल जाएगा
आँधी का रेगिस्तान को…

(विवेक जैन की वॉल से साभार)

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