कांग्रेस की बेगानी शादी में, दीवाने अब्दुल्ला

राकेश अचल

एक कहावत है कि- ‘बेगानों की शादी में दुनिया के तमाम अब्दुल्ले दीवाने हो ही जाते हैं। यही हाल देश के गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों का है। अध्यक्ष को लेकर कांग्रेसी बेफिक्र हैं लेकिन बाक़ी के सब दल परेशान हैं,  कि बिना अध्यक्ष वाली कांग्रेस आखिर पैदल चल कैसे रही है?

कांग्रेस के पास सचमुच अध्यक्ष नहीं है। अब जब पार्टी है तो अध्यक्ष भी होना ही चाहिए। लेकिन नहीं है तो नहीं है। जो लोग बिना अध्यक्ष की पार्टी को लेकर परेशान थे या परेशान हैं वे या तो बेचैन हैं या फिर पार्टी छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं। जो नहीं भाग पाए वे भागने के रास्ते तलाश रहे हैं। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। उसके लिए अध्यक्ष का चुनाव कोई बड़ी बात नहीं है। समस्या तो शायद  बिलकुल नहीं है।

कांग्रेस को बिना अध्यक्ष का देख दूध डाल रहे लोगों को शायद ये पता नहीं है कि कांग्रेस जब से बनी है तब से लेकर अब तक एक-दो नहीं बल्कि पूरे 87 अध्यक्ष चुन चुकी है। अध्यक्ष चुनना कांग्रेस के लिए बांये हाथ का काम है। कांग्रेस अध्यक्ष चुनने को लेकर कभी परेशान नहीं रही। जब कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं बनता तो गांधी-नेहरू खानदान वाले खुद अध्यक्ष बन जाते हैं, लेकिन ये पहला मौक़ा है कि खानदान वाले ही अध्यक्ष पद से दूर भागे-भागे फिर रहे हैं।

कांग्रेस अपने अध्यक्ष बहुत सोच-समझकर, देखभाल कर बनाती है। आप कांग्रेस के अब तक के अध्यक्षों की सूची उठाकर देख लीजिये, उसका एक भी अध्यक्ष न तो टीवी पर चन्दा लेते पकड़ा गया और न कांग्रेस ने एक भी ऐसा अध्यक्ष बनाया जो तड़ीपार कहलाता हो। कांग्रेस के अध्यक्ष गूंगे, बहरे और कठपुतली जरूर हो सकते हैं, हुए भी हैं लेकिन वैसे नहीं हुए जैसे दूसरे दलों में होते आये हैं।

कांग्रेस के पास सदस्यों की भी कोई कमी नहीं, कमी होती तो कांग्रेस पिछले आठ साल में स्वाहा हो चुकी होती। कांग्रेस के सदस्य भी मिस्डकॉल वाले नहीं हैं। जितने हैं, जैसे हैं असली हैं। हाँ आजकल उनमें बिकने की बीमारी जरूर लग गयी है। फिर भी कांग्रेस न सदस्यों की घटती तादाद को लेकर परेशान है और न अध्यक्ष पद को लेकर। कांग्रेस कुछ भी नहीं है, किन्तु दुनिया की सबसे पार्टी हो या सबसे छोटी पार्टी, सबके लिए एक समस्या है, एक चुनौती है। एक हौवा है। सब सोते में भी कांग्रेस-कांग्रेस चिल्लाते रहते हैं। आखिर ऐसा क्यों है? कांग्रेस के पास अध्यक्ष हो, न हो, या कैसा हो, कब हो? इन सबसे किसी को क्या मतलब? मुझे तो बिलकुल कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस की समस्या है, कांग्रेस जाने! हमें क्या लेना-देना?

आप सोचिये कि कांग्रेस के पास कोई अध्यक्ष नहीं है किन्तु कांग्रेस 150 दिन की 3500 किमी लम्बी पदयात्रा करने जा रही है। कांग्रेस ने इसे भारत जोड़ो नाम दिया है। कांग्रेस या तो सनक गयी है या फिर जानबूझकर सनकी हुई नजर आना चाहती है। कांग्रेस को सोचना चाहिए कि जिस दल के पास दुनिया में सबसे ज्यादा सदस्य हैं, जिस दल के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष है, जब वो पार्टी पदयात्रा नहीं कर रही, तो कांग्रेस ऐसा जोखिम भरा काम क्यों कर रही है? अगर करना ही है तो पहले अध्यक्ष का चुनाव करो! देश जोड़ने के लिए पदयात्राएं तो कभी भी की जा सकती हैं।

मुझे तो कभी-कभी ख्याल आता है कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद को लेकर कोई गैर कांग्रेसी अदालत की शरण न ले ले! मुमकिन है कोई दीवाना अब्दुल्ला ललित जी से कहे कि-‘आप कांग्रेस से अध्यक्ष चुनने के लिए कहें। न कहें तो खुद अध्यक्ष चुनकर दे दें। आप ललित हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं। फिर आपके पास ऐसे ऐतिहासिक फैसले देने के लिए वक्त ही कितना है? कम समय में ज्यादा ऐतिहासिक काम करना ही ललितकला कहा जाता है।

बात कांग्रेस अध्यक्ष की हो रही है, इसलिए भटकाव से बचना जरूरी है। कांग्रेस अध्यक्ष के साथ और अध्यक्ष के बिना भी इस देश पर 49 साल शासन कर चुकी है। 16 आम चुनाव लड़ चुकी है। छह में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुकी है। आठ साल से विपक्ष की भूमिका में है, लेकिन मरी नहीं है। कौओं के कोसने से ढोर मर सकते हैं किन्तु कांग्रेस का बाल-बांका भी नहीं हो सकता। होना होता तो, कब का हो चुका होता?

कांग्रसियों ने अभी तक पार्टी के नए अध्यक्ष को लेकर आस नहीं छोड़ी है। कांग्रेसियों को पता है कि पार्टी को आज नहीं तो कल अध्यक्ष मिल ही जाएगा। अध्यक्ष, कागज का शेर होगा कि पप्पू, ये अलग बात है। कांग्रेस किसी भी तरह के अध्यक्ष से काम चला सकती है। उत्तर, दक्षिण या पूरब-पश्चिम के होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। कांग्रेस को अपना अध्यक्ष खोजने के लिए दिल्ली छोड़ नागपुर तो जाना नहीं है! कांग्रेस के अध्यक्ष का फैसला जनपथ पर होता है, सो हो जाएगा।

कांग्रेस का हौवा इतना ज्यादा है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष की सचमुच की नानी सचमुच दिवंगत हो गयीं तो वे चिल्ला उठे कि-‘अब तो मान लीजिये की उनकी नानी मर गयीं हैं।” नानी मरना हमारे यहां एक लोकोक्ति है। असल में किसी की नानी जब मरती है तब सब रोते हैं। परिवार में नानी ही है जो अपने नवासों को सबसे ज्यादा प्यार-दुलार करती है। अब जिसके पास नानी हो ही न, तो वो क्या जाने नानी का प्यार और उसके न होने का दुःख?

बहरहाल मैं यात्रा पर हूँ, फिर भी फिक्रमंद नहीं हूँ। कांग्रेस से तो मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है। मेरे लिए तो सब कुछ पंकज है। अब न गाय-बछड़े पाले जा सकते हैं और न दो बैलों की जोड़ी। ले-देकर हाथ का पंजा है, उसे तो कोई काटकर फेंक नहीं सकता। कमल वाले भी अपना हाथ काटने की मूर्खता नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे यहां आज भी ‘अपना हाथ, जगन्नाथ’ कहा और माना जाता है।
(मध्यमत)
डिस्‍क्‍लेमर ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्यात्मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है। यदि लेख पर आपके कोई विचार हों या आपको आपत्ति हो तो हमें जरूर लिखें।
—————-
नोट मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected]  पर प्रेषित कर दें। संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here