विश्वास का संकट और कुमार विश्वास

राकेश अचल 

मंच के स्थापित कवि और राजनीति के नाकाम नेता कुमार विश्वास अपनी ही पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से उलझकर फंस गए हैं। अब उन्हें अपनी लड़ाई में कवियों के झुण्ड को शामिल करना पड़ा है। देश के कोई 40 कवियों के झुण्ड ने कुमार विश्वास के पक्ष में एक पत्र लिखकर अरविंद केजरीवाल से माफ़ी मांगने की मांग की है। कवियों को लगता है कि केजरीवाल ने विश्वास का नहीं बल्कि कवियों का अपमान किया है।

चुनांचे मैं भी एक कवि हूँ इसलिए मेरी भी सहानुभूति कुमार के साथ है, हालाँकि मैं कुमार को कभी विश्वास का कवि नहीं मानता। मुझे कभी नहीं लगता की केजरीवाल और कुमार का झगड़ा नैतिकता का झगड़ा है। राजनीति में आजकल नैतिकता के लिए कोई जगह है ही नहीं। मुझे हमेशा कुमार राजनीति में एक भटकती आत्मा की तरह दिखाई देते हैं। एक ऐसी आत्मा जो अब न घर की है और न घाट की। राजनीति में आने से पहले तक कुमार के पास युवा श्रोताओं की एक बड़ी भीड़ थी जिसे उन्होंने राजनितिक लिप्सा पूरी करने के लिए एक बार भुना लिया, लेकिन काठ की हांडी बार-बार तो आग पर नहीं चढ़ती?

अन्ना आंदोलन के जरिये राजनीति में आये कुमार विधायक तो बन गए किन्तु केजरीवाल या मनीष सिसौदिया नहीं बन पाए और यही उनकी हताशा की मूल वजह है, अन्यथा किसी को पागल कुत्ते ने काटा है जो अपनी ही पार्टी के सुप्रीमो से उलझ जाये? हालात बताते हैं कि विश्वास आजकल अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए दूसरों के हाथों का खिलौना बन गए हैं। अगर ऐसा न होता तो केजरीवाल के खिलाफ उनके आरोपों के बाद कांग्रेस के राहुल गांधी केजरीवाल और मोदी जी के प्रति हमलावर न हुए होते।

देश के कवि बेकार समझते हैं कि केजरीवाल ने कुमार का नहीं बल्कि देश के कवियों का अपमान किया है। केजरीवाल को पता है कि क्रांति और इतिहास में जगह बनाने वाले आज के कुमार विश्वास या झुण्ड में शामिल कवियों जैसे नहीं थे। कविता उनका पेशा नहीं था। वे कविता के नाम पर अश्लील चुटकले सुनाने वाले लोग नहीं थे। वे सियासत में भी नहीं थे। वे सिर्फ कवि थे। उनके अपमान की हिम्मत कोई राजनेता नहीं कर सकता था, केजरीवाल जैसे नेता तो तब थे ही नहीं।

वास्तविकता है कि विश्वास और केजरीवाल की लड़ाई सत्ता के सुख के बंटवारे की लड़ाई है। इसका कवि या कविता से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए देश के कवियों को इस लड़ाई में नहीं कूदना चाहिए। देश के कवियों को समझना चाहिए कि जहाँ भी धर्म या कविता का राजनीति के साथ घालमेल किया गया है वहां धर्म और कविता की कुगति हुई है। जैसे भाजपा राजनीति में धर्म के घालमेल की आरोपी है वैसे ही विश्वास कविता का राजनीति के साथ घालमेल के आरोपी हैं, इसलिए उनके साथ जो हो रहा है वो एक कवि की वजह से नहीं बल्कि एक नेता होने की वजह से हो रहा है। अब ये कुमार को तय करना चाहिए कि वे कवि हैं या नेता?

मेरी नजर में कुमार न तो भरोसे के कवि हैं और न भरोसे के प्राध्यापक। वे मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे जरूर हैं। उन्होंने न अपनी प्राध्यापकी के साथ न्याय किया और न कविता के साथ। उन्होंने एक पूरी पीढ़ी को बरगलाया है प्रेम के नाम पर। जिसने भी कुमार का मंच संचालन और कविता पाठ देखा-सुना होगा वो जानता है कि कुमार कितने अश्लील और बेहया कवि हैं। वे दस पंक्ति की कविता सुनाने के लिए सौ पंक्ति के चुटकले सुनाने वाले कवि हैं और इसी बात के वे लाखों रुपये लेते हैं।

आज जो काम राजनीति कर रही है वो ही काम कुमार कविता के नाम पर कर रहे हैं। इसलिए उनके प्रति सहानुभूति जताना भी एक भूल है। कुमार को विवाद के जरिये जो चाहिए था वो मिल गया। वे केंद्र से वाय श्रेणी की सुरक्षा चाहते थे, सो मिल गयी। राजनीति में गनमैन स्टेटस सिंबल होता है। बिना इसके कोई नेता दरअसल नेता लगता ही नहीं है। कुमार भी नहीं लगते थे। अब मुमकिन है कि वे जब कविता पढ़ने जाएँ तो उनके पीछे दो गनमैन खड़े नजर आएं।

अरविंद केजरीवाल के प्रति मेरे मन में कोई आदरभाव नहीं है। वे आज आम नेताओं की तरह ही जनधन की बर्बादी करने में लगे हैं, किन्तु वे एक नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं, इससे न मैं इंकार कर सकता हूँ और न कुमार विश्वास। कुमार विश्वास अरविंद केजरीवाल नहीं बन सकते और केजरीवाल विश्वास नहीं बन सकते। ऐसे  में देश के कवियों के झुण्ड को भी अपने आपको इस लड़ाई से अलग कर लेना चाहिए। जिस दिन कविता और कवियों की अस्मिता की कोई लड़ाई होगी मैं भी उसमें शामिल हो जाऊंगा। बेहतर हो कि कुमार या तो राजनीति छोड़ दें या कविता। दोनों के साथ एक ही वक्त में निभाना उनके बूते की बात नहीं है। या तो राजनीति उनकी कविता को खा जाएगी या वे खुद ही हीन भावना के शिकार होकर अपना सब कुछ गंवा बैठेंगे।(मध्यमत)
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