क्रूर दौर में राहुल बजाज का जाना

राकेश अचल

उद्योगपति राहुल बजाज एक ऐसे दौर में गए हैं जब उनकी बहुत जरूरत थी। राहुल बजाज को जाने से रोका नहीं जा सकता था, लेकिन यदि वे कुछ वर्ष और हमारे बीच रहते तो देश के लिए अच्छा होता क्योंकि वे उस पीढ़ी के अंतिम कारोबारी थे जो सत्ता प्रतिष्ठान की आँखों में आँखें डालकर बोलने का हुनर भी जानते थे और माद्दा भी रखते थे। यानि वे देश के सामने मौजूद सबसे क्रूर दौर में रुखसत हुए हैं।

देश के बड़े लोगों से मिलना आसान नहीं होता, खासकर हम कस्बाई पत्रकारों, लेखकों के लिए। बावजूद इसके बहुत सी ऐसी हस्तियां होती हैं जो प्रत्यक्ष रूप से मिले बिना भी लोगों के लिए अपनी सी बन जाती हैं। आम आदमी को लगने लगता है कि जैसे ऐसे हुनरमंदों के बारे में वो सब जानता है। राहुल बजाज ऐसे ही लोगों में से थे। वे अपने से लगते थे। क्योंकि उनके डीएनए में असली राष्ट्रवाद प्रवाहित होता था।

राहुल बजाज के बारे में लिखने से पहले मुझे दो दिन तक सोचना पड़ा कि आखिर उनके बारे में मैं क्या नया लिखूं? लोग उनके बारे में सब कुछ तो लिख चुके हैं। बावजूद मुझे ये भी लगा कि यदि राहुल बजाज के बारे में मैं कुछ नहीं लिखता तो ये उनके योगदान के प्रति कृतघ्नता होगी। दरअसल राहुल बजाज उन कारोबारियों में से थे जो मौजूदा सत्ता या किसी सत्ता की गोदी में नहीं बैठे। उनके पितामह गांधीवादी और कांग्रेस के शुभचिंतक थे, बावजूद इसके राहुल बजाज ने कांग्रेस की सत्ता को भी आँखे दिखाई और मौजूदा सत्ता को भी।

किसी भी कारोबारी के लिए अपने उपनाम को ब्रांड में बदल देना बहुत आसान नहीं होता। ये बड़ा कठिन काम है। कठिन तब और है जब आपको अपना मुनाफ़ा कमाते हुए ब्रांडिंग करना हो। राहुल बजाज ने ये किया। उन्होंने कभी भी ‘कर लो दुनिया मुठ्ठी में’ का लोक-लुभावन नारा नहीं दिया। हालाँकि एक समय था जब वे अपने उत्पादों के जरिये ये काम आसानी से कर सकते थे। लेकिन शायद उनकी मंशा ऐसी थी नहीं। किसी दुनिया को मुठ्ठी में करने के लिए सरकारें खरीदना पड़ती हैं या सरकारों की मुठ्ठी गर्म करना पड़ती है। राहुल बजाज इन दोनों अनैतिक तरीकों से बचते रहे।

दुनिया का कोई कारोबारी बिना मुनाफे के काम नहीं करता। करना भी नहीं चाहिए। हर कारोबारी को अपनी पूँजी का प्रतिसाद चाहिए, लेकिन कितना चाहिए ये तय कर पाना कठिन काम है। राहुल बजाज ने ये कठिन काम भी किया। उन्होंने अपनी मुठ्ठी भींची नहीं, खुली रखी। जनता के लिए भी, अपने कर्मचारियों के लिए भी और देश के लिए भी। उन्होंने अपनी मुठ्ठी ही नहीं बल्कि अपनी जुबान भी बंद नहीं की, अन्यथा कारोबारी ऐसा दुस्साहस नहीं करते। सरकार के खिलाफ मुंह खोलने की कीमत चुकाना पड़ती है। राहुल बजाज ने इसकी फ़िक्र नहीं की और जब जरूरत पड़ी तब सरकार के निर्णयों, नीतियों के खिलाफ खुलकर बोला।

निजी तौर पर कारोबारियों को लेकर मेरे मन में श्रद्धा का भाव बहुत कम रहता है, लेकिन देश की आजादी से पहले जन्मे कुछ कारोबारी हैं जिन्हें देखकर उनके प्रति आदर का भाव जन्म लेता है। मसलन घनश्यामदास बिड़ला का नाम इस तरह के कारोबारियों के रूप में लिया जा सकता है। घनश्यामदास बिड़ला के कुछ कारखाने हमारे शहर में भी थे, वे यहां आते थे तो उनसे रूबरू होने का मौक़ा मिला था। उनके बेटों से भी मिला, लेकिन उनके प्रति आदरभाव अंकुरित नहीं हुआ। उनके पौत्र भी देखे, लेकिन जो बात घनश्यामदास बिड़ला में थी वो उनके वंशजों में नहीं थी। राहुल बजाज भी इसी तरह के सबसे अलग कारोबारी थे।

राहुल बजाज के तीन पीढ़ियों से नेहरू परिवार के साथ घनिष्ठ पारिवारिक मैत्री संबंध थे। और इसमें उनका कोई दोष नहीं था। राहुल के पिता कमलनयन और इंदिरा गांधी कुछ समय तक एक ही स्कूल में पढ़े थे। वो उनका ही कार्यकाल था, जिसमें बजाज, स्कूटर बनाने वाली शीर्ष कंपनी बन गई थी। साल 2005 के दौरान राहुल ने अपने बेटे के हाथ में कंपनी की जिम्मेदारियों को देना शुरू किया और बेटे को कंपनी का एमडी बनाया। राहुल के गाँधी-नेहरू परिवार के निकट होने की वजह से आज की सरकार में राहुल बजाज की उपेक्षा हुई हो ऐसा नहीं है, लेकिन उन्हें सरकार ने वैसा भाव भी नहीं दिया जैसा अडानी और अंबानी या बाबा से व्यापारी बने रामदेव को दिया।

स्वतंत्रता सेनानी जमनालाल बजाज के पोते राहुल बजाज करीब 50 साल तक बजाज ग्रुप के चेयरमैन रहे। साल 2001 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उनकी पढ़ाई दिल्ली के ही सेंट स्टीफेंस कॉलेज से हुई थी, हालांकि लॉ की डिग्री हासिल करने के लिए वो मुंबई पहुंचे। उनके नेतृत्व में बजाज ऑटो का टर्नओवर 7.2 करोड़ से 12 हजार करोड़ तक पहुंच गया और देश की अग्रणी स्कूटर और वह दोपहिया वाहन बेचने वाली बड़ी कंपनी बन गई थी। ये उनके व्यक्तित्व का एक पहलू था। उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू ये था कि वे देश के मामलों में हस्तक्षेप करने से न डरते थे और न बचते थे। आज दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल देश के दूसरे कारोबारी ऐसा करने से बचते भी हैं और डरते भी हैं।

राहुल बजाज को इसलिए भी याद रखा जाएगा क्योंकि वे विद्रोही स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने कारोबार में ही नहीं बल्कि अपने निजी जीवन में भी विद्रोही तेवरों को बरक़रार रखा। राहुल ने पारम्परिक रिवाजों से हटकर एक मराठी लड़की से प्रेम विवाह किया, उन्होंने भारतीय परिवारों और युवाओं को जो तोहफे दिए वे अपनत्व से भरे थे। उनके कारोबार में कर लो दुनिया मुठ्ठी में का भाव नहीं था, उन्होंने ‘हमारा बजाज’ बनाकर देश को अपनत्व दिया, लूटा नहीं, जबकि वे ऐसा कर सकते थे। मेरे घर में भी राहुल बजाज के दोनों बड़े उत्पाद लम्बे अरसे तक रहे। अडानी, अम्बानी से भी हमारा कोई बैर नहीं हैं। उनके उत्पाद और सेवाएं भी हमारी जरूरतों का हिस्सा हैं, लेकिन वे राहुल बजाज की तरह हमारे दिलों तक नहीं पहुँच पाए हैं।

ये देश राहुल बजाज को कांग्रेसी या यूपीए सरकार के विरोधी के रूप में नहीं अपितु सत्ता प्रतिष्ठान के विरोधी के रूप में और आश्रम व्यवस्था के समर्थक के रूप में हमेशा याद करेगा। सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध करने वाला चाहे कारोबारी हो या कोई कलमकार, सम्मानित कम किया जाता है, दण्डित ज्यादा किया जाता है, लेकिन राहुल बजाज इसका अपवाद थे। उन्हें जनता और सरकार दोनों का सम्मान भी मिला और प्यार भी। उन्हें दण्डित करने का साहस कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान नहीं कर पाया। ऐसे सबसे अलग राहुल बजाज को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।(मध्यमत)
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