हरगोबिंद खुराना को याद करते हुए…

जयंत तोमर 

आनुवंशिक विज्ञान के क्षेत्र में योगदान के लिए जब हरगोबिन्द खुराना को नोबल पुरस्कार दिया गया तब दुनिया भर के लोग जिन कारणों से चौंके थे उनमें से एक कारण यह भी था कि तब उन्होंने जीवन के पचास वसंत भी पार नहीं किये थे। अन्यथा अपवाद स्वरूप ही किसी को इतनी जल्दी दुनिया की यह शीर्षतम उपलब्धि मिली है। हरगोबिन्द खुराना होते तो आज सौ साल पूरे कर रहे होते। दस साल पहले ही वे गये। उनके अनुसंधान ने जीवन की बहुत बड़ी गुत्थी को सुलझा दिया था।

लेकिन यहाँ चर्चा खुराना साहब की वैज्ञानिक उपलब्धियों से परे किसी दूसरी बात पर। क्या खुराना साहब को अपने देश में गुजारे लायक भी नौकरी मिली थी? जबकि वे पीएच डी करके स्वदेश वापस लौटे थे।हम सब को किसी न किसी तरह इस बात का आभास होता रहा है कि अपने देश में प्रतिभा की समय पर कद्र न होने को लेकर खुराना साहब में खिन्नता का गहरा अहसास था। यह अलग बात है कि उन्हें अविभाजित भारत में अपनी जन्मभूमि मुल्तान के पास रायपुर गाँव और वहाँ के ईख के खेत अक्सर याद आते थे ।

नहीं पता भारत के कितने अखबारों ने शताब्दी वर्ष पर हरगोबिन्द खुराना को याद किया है। पाकिस्तान के ‘डान’ ( Dawn) में जरूर एक खूबसूरत लेख है जो अमेरिका में आंकोलोजिस्ट के रूप में कार्यरत खुराना साहब की तीसरी पीढ़ी के सदस्य ने लिखा है। डॉन वही अखबार है जिसकी शुरुआत मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी। हम एक ऐसे देश में हैं जहाँ कोई कितनी भी ऊंची पढ़ाई कर ले, नौकरी की कोई गारंटी नहीं है। दूसरी ओर कितनी भी बडी़ प्रतिभा क्यों न हो आपकी योग्यता का औपचारिक मूल्यांकन डिग्री से ही किया जायेगा।

डॉ. हरगोबिन्द खुराना और महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। क्या श्रीनिवास रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय ने दाखिला दिया था? गणितज्ञों की सबसे बड़ी संस्था रॉयल सोसायटी के फेलो और मूर्धन्य गणितज्ञ प्रोफेसर हार्डी, जब रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में दाखिला दिलाने में असफल रहे, तब वे उस महान प्रतिभा को इंग्लैंड ले गये और ट्रिनिटी कालेज में दाखिला दिलाया। अगर प्रोफेसर हार्डी से मिलने का चमत्कारी संयोग न होता तो श्रीनिवास रामानुजन कहाँ होते? भारत के कुलपतियों और शिक्षाविदों ने तो उन्हें गणित के अलावा सभी विषयों में फेल देखकर यूनिवर्सिटी में दाखिला देने से इंकार ही कर दिया था। वही रामानुजन 32 साल की छोटी सी आयु पाकर भी हम सबको गौरवान्वित कर गये। वे शायद दुनिया में सबसे कम उम्र के रॉयल सोसायटी के फेलो हुए।

दूसरी ओर डॉ. हरगोबिन्द खुराना हैं। पीएच डी होकर भी स्वदेश में नौकरी नहीं मिल रही। लैटिन भाषा में मुहावरा है- जहाँ मुझे रोटी मिल जाये वही मेरा देश है। अपने कुटुम्ब, समुदाय और अपनी जड़ों से उखड़ कर सात समंदर पार अजनबी माहौल में जाना किसे अच्छा लगता है। फीजी, मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद में गन्ने के खेतों में मजदूरी करने अपना और परिवार का पेट पालने के लिए ही तो लोग गये थे। भारत के शिक्षा जगत में तब से लेकर अब तक क्या बदला है?  सैकड़ो विश्वविद्यालय हैं। नोबल पुरस्कार कितनों को मिला?

गैरसरकारी विश्वविद्यालयों से अगर उम्मीद करें तो उनकी स्वायत्तता सरकार और उसकी नियामक संस्थाओं के नियम कायदों के आगे दम तोड़े दे रही है। हमारी सरकारों का चरित्र हर युग में कमोबेश एक सा ही रहा है। ऐसा न होता तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने ढंग की शिक्षण संस्था खोलने के प्रति तत्पर क्यों होते? भारत में जनता अफसर, मंत्री और संतरी के प्रति सम्मोहित है। धनकुबेरों, सिनेमा और क्रिकेट के सितारों के प्रति भी। नहीं है तो केवल विद्वानों और गुणी जनों के प्रति।

आजादी के दीवाने फांसी के फंदे को चूमने से पहले गाते थे-
‘’इलाही वो दिन भी होगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ज़मीं होगी अपना आसमां होगा।‘’
क्या ऐसा दिन हम ला पाये हैं जब प्रतिभाओं के साथ हम समय पर न्याय कर सकें?
पुनश्च-
‘पाली साहित्य का इतिहास’ की भूमिका में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में जब पाली साहित्य में एम.ए. पाठ्यक्रम शुरू हुआ तो प्रश्नपत्र बनने यूरोप के एक विद्वान के पास भेजा गया। उन्होंने विश्वविद्यालय से कहा कि यहाँ तक क्यों परेशान हो रहे हैं, जिनसे मैने पाली सीखी है वे तो कलकत्ता में ही रहते हैं, उनसे बनवा लीजिए। विश्वविद्यालय ने लौटती डाक से जवाब भेजा-‘’एम.ए.की परीक्षा वही विद्वान दे रहे हैं, इसलिए उनसे प्रश्नपत्र नहीं बनवा सकते।‘’

(जयंत तोमर वरिष्‍ठ पत्रकार, समीक्षक और मीडिया शिक्षक हैं। यह सामग्री उनकी फेसबुक वॉल से साभार) 

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